संस्कृति
चुड़कानी, कढ़ाही और बारिश : सबसे बड़ा आह्वलाद है भट्ट की चुड़कानी खाना
चुड़कानी, कढ़ाही और बारिश : सबसे बड़ा आह्वलाद है भट्ट की चुड़कानी खाना
शिप्रा पाण्डेय शर्मा, अल्मोड़ा/दिल्ली। जब कभी कोई डॉक्टर मेरे खून की जांच करता है,तो उसमें निर्बाध प्रवाह, कुछ भांग, जखिया, गंद्रायणी जैसी खुशबू पाता है, हालांकि खून में लौह तत्व की खुशबू ज्यादा होती है, पर अपन का तो ऐसे ही है. बेचारा डॉक्टर समझ नहीं पाता कि क्या कहूं, पर बेबस होकर पूछ ही लेता है कि खून में ऐसी क्या महक है जो थोड़ी अलग है. फिर उसे बताना ही पड़ता है कि यह पहाड़ी महक है जो बिरले ही मिलती है. मैं खाने-पीने को लेकर ज्यादा बातचीत करने वालों में से नहीं हूं पर आज पता नहीं क्यों मन कर रहा है कि इसी बारे में लिखा जाए. फूड़ चैनल्स भी देखती हूं, पर तभी तक जब तक उसको बनाने की बेसिक रेसिपी का पता चल जाए. उसके बाद स्विच. मेरी मम्मी कहती हैं कि औरतों का सारा समय रसोई में खाना बनाने में ही बर्बाद हो जाता है और इसके बावजूद कोई तमगा नहीं मिलता, थोड़ा सेटिस्फेक्शन मिलता होगा,. हम लोग छोटे थे और पहाड़ के (अल्मोड़ा कुमाऊं) परिवेश से एकदम विपरीत तत्कालीन बिहार के छोटे जिले में रहते थे, जहां अपनी जैसी भाषा बोलने वाले बिरले ही मिलते थे. ऐसे में अपने खानपान, भाषा, संस्कृति को संभाल कर रखना देहरी के अंदर सभी की जिम्मेदारी थी. कुमाऊनी बोलने में तो हम इतने एक्सपर्ट नहीं थे, पर आज भी इतनी आती है कि अपने परिवार (खासकर बेटे से) कुछ बोलूं कुमाऊनी में, तो वह समझ जाता है और कभी-कभार समझने का नाटक भी करता है. पापा-मम्मी ने तो हमेशा ही पहाड़ी में ही आपस में बात की और हम लोग उसे सुनते हुए समझने में बड़े हो गए. नींबू सान कर खाना, सिर्फ पहाड़ों में ही नहीं होता, हर पहाड़ी हाथ अपने गांवों से बाहर निकलकर उसे सानना और धूप में बैठकर खाना बहुत पसंद करता है और जहां भी रहता है,यह काम वह बहुत तसल्ली से करता है. हमारे वहां भी यह जाड़ों में जी भरकर किया जाता है. मेरे पापा खाने और खिलाने के बहुत शौकीन थे, इसका कोई अन्यथा अर्थ न निकाला जाए, उनका प्रेमाव्हल होकर आतिथ्य करना आज भी उन्हें जानने वाले लोग याद करते होंगे. दूसरा सबसे बड़ा आह्वलाद है भट्ट की चुड़कानी खाना. रविवार का दिन और एक एक्सरसाइज़ की तरह लगभग हर दूसरे संडे जाड़ों में भट्ट की चुड़कानी, भात और गाजर-मूली काटकर उसमें धनिये का नमक मिलाना एक परंपरा रही है. मैं तो आज भी यह बनाने में सिध्दहस्त नहीं हूं और अब मेरी मम्मी मेरी जीभ के इस स्वाद को मायके जाने पर हरा कर देती हैं. तनी काली कढ़ाही उतनी ही ज्यादा स्वादिष्ट चुड़कानी. भात और सलाद जब मिल जाए तो उसका स्वाद दुगुना हो जाता था. भट्ट के डुबुकों का तो असली आनंद ही उसे फीका बनाने और ऊपर से नमक मिलाकर खाने में आता है. इंग्लिश में भट्ट को ब्लैक बीन्स कहते हैं और इसमें प्रोटीन भरपूर मात्रा में पाया जाता है, इसलिए शाकाहारी मानुष के लिए यह सस्ते, सुलभ मांसाहारी भोजन का विकल्प भी कहा जा सकता है. य़ूरोपीय और अमेरिकी लोग इसे उबालकर ऐसे ही खा जाते हैं, दाल बनाने के लिए भी नहीं रुकते. इसे खाना तो अमृत के समान है और अगर कढ़ाही में यह खाने को मिल जाए तो खाने वाले को स्वर्ग के सारे दरवाज़े खुलते मिलेंगे क्योंकि चुड़कानी की मलाई तो किसी रबड़ी से कम नहीं. दाल उबलते-उबलते उसकी मलाई जो किनारे जमती है, उसके साथ भात खाने का मज़ा ही कुछ और है. अब जो चीज़ और उबाले मारने वाली है वह है कढ़ाई और बच्चियां. भाई साहब, कढ़ाही छोटी हो या बड़ी, कितनी भी बेहतरीन चुड़कानी हो या स्वादहीन, परिवार के बड़े अपने घर की बच्चियों को इसमें खाने से रोकते आए हैं और कई साल बाद भी रोकते रहेंगे. सुना है कढ़ाही में खाना खाने से शादी के समय बारिश होती है और फिर सब गुड़गोबर. बहुत बड़ी भविष्यवाणी है यह, कढ़ाही बहुत बड़ी भविष्यवक्ता है. नास्त्रेदमस् से भी कहीं बड़ी. पहले तो लड़की पैदा हुई, फिर पैदा होते ही उसके लालन-पालन से पहले शादी के खर्चे का डर और फिर ऐसे में शादी के समय बारिश हो जाए, तो बा बा हो! जम्बू: उच्च हिमालयी क्षेत्रों का दिव्य मसाला हम तो कभी-कभार खाते थे कढ़ाही में, इसलिए हम पर तो इसका असर नहीं हुआ पर सोचो, जो लोग लगातार कढ़ाही में खाते होंगे, बेचारों के वहां शादी में लेने के देने पड़ जाते होंगे. पहले शादियां खुले में, कम खर्चे में हो जाया करती थीं. होने को वह भी कइयों के लिए एफोर्ड करने लायक नहीं होती थी, पर यह दर्द समझा जा सकता है. उस समय बैंक्वेट हॉल का चलन कहां ठहरा. आज भी ठेठ पडाड़ी शादी में रास्ते में लाल, हरी, पीली, नीली झंडियां लगा दीं, टेंट गाड़ दिया और हो गया ब्याह. फिर गांव खाये या गांव के गांव खाएं. आज के मिडिल क्लास लोगों को गांव में ही शादी करनी चाहिए, एक तो लोक-परंपरा कायम रहेगी और शहर के मुकाबले लगभग आधे खर्चे में कई लोगों का भोजन साथ में हो जाएगा. और तो और जो चहलपहल, झरफर देखने के मिलेगी वह यहां शहरों में तो नहीं ही मिलेगी या फिर इसके लिए अंबानी को आप सबको शादी के समय एक-एक दिन के लिए गोद लेना पड़ेगा. अच्छा हुआ, कई फेमिनिस्ट की नज़र अभी इस मुद्दे पर नहीं पड़ी है. नहीं तो कई मु्द्दों की तरह इसमें भी बराबरी का झंडा गाड़ना शुरू हो जाएगा. बच्चियों को भी कढ़ाही में खाने का बराबर का हक दिया जाए, इसके विरोध में हो सकता है कि वह परात में दुगुना भात लेकर खाने को बैठ जाएं. क्या होगा ऐसे में, जितने भोजन में पूरा परिवार खा लेता था, उससे दुगुनी मात्रा में पगंत को खिलाना पड़ जाएगा. मैंने तो कढ़ाही में खूब खाया है, उसके भी अपने दुष्परिणाम हैं. आज मेरे पास अलग-अलग तरह की सात-आठ कढ़ाहियां हैं- लोहे, हिंडेलियम, नॉन स्टिक की छोटी-मोटी अनेक कढ़ाहियां. पर दुविधा की बात यह है कि मुझसे चुड़कानी ही आज तक ढंग से नहीं बन पाई है. सोच रही हूं कि उन्हें ओएलएक्स में डाल दूं और उसे बेचने की पहली शर्त यह रखूं कि मेरी कढ़ाही का खरीददार चुड़कानी बनाने में निपुण हो, उसके हाथ की चुड़कानी चखने के बाद ही मैं निर्णय लूंगी कि वह कढ़ाही लेने लायक है अथवा नहीं. नहीं तो मेरी कढ़ाही तो वह कौढ़ियों के भाव बाज़ार में बेच देगा या उसमें किसी सब्जी की भुजिया बनाने लग जाएगा. लड़कियां हों या चुड़कानी यह स्वभाव से सरल और सहृदय और समरस होती हैं. उसे संवारने के लिए अच्छी कढ़ाही होनी आवश्यक है. साथ में भट्ट से चुड़कानी बनानी भी आनी चाहिए, नहीं तो कढ़ाहियों का ढेर ही लगता रहेगा. चुड़कानी तो बन ही जाएगी, कहीं आपकी लड़कियों को कढ़ाही समझकर यह समाज कबाड़ी में न दे दे, कि काम खत्म पैसा हज़म. जिस तरह भट्ट को सिल में पिसकर डुबुक बनाने से स्वाद में कई गुणा मजा आता है और फिर उसमें अंत में जखिया, खुसाणी का छोंक लगाकर खाने से अमरत्व प्राप्त होता है, उसी तरह अपनी लड़कियों को बचपन से ही घिसने की आदत लगवाइये. जब अनुभव, अवसर, वातावरण, सुख-दुख का छोंका बचपन से ही डलता रहेगा तब ही वह आत्मवालंबी बनेगी, अन्यथा आज एक कढ़ाही में बनेंगी और कल सुविधानुसार आपका कुक कढ़ाही बदल देगा. चुड़कानी की एक ही कढ़ाही होनी चाहिए, नहीं तो नॉन स्टिक की तरह बरतन-भांडे आते रहेंगे और कबाड़ में जगह लेते रहेंगे.
मूल रूप से अल्मोड़ा की रहने वाली शिप्रा पाण्डेय शर्मा दिल्ली में रहती हैं. स्वतंत्र लेखिका शिप्रा आधा दर्जन किताबों का अनुवाद भी कर चुकी हैं.
काफल ट्री से साभार
