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संस्कृति

उत्तर भारत के ब्रज-अवध से निकलकर आयी कुमाऊंनी होली में कई विशेषताएं

उत्तर भारत के ब्रज-अवध से निकलकर आयी कुमाऊंनी होली में कई विशेषताएं
चन्द्रशेखर तिवारी, नैनीताल।
इन दिनों कुमाऊं मंें बैठी होली की धूम है। कुमाऊं अंचल की होली में विविध तरह की आंचलिक विशेषताएं मिलती हैं। उत्तर भारत के ब्रज.अवध से निकलकर आयी इस होली ने धीरे-धीरे पहाड़ के स्थानीय तत्वों को अपने में समाहित किया है और उसे एक नया स्वरूप देने की कोशिश की है। विभिन्न काल खण्डों में इसमें लोक के रंग भी घुलते रहे। होली के इसी रूप को आज हम उत्तराखंड की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत के तौर पर सामने पाते हैं ।
होली गायन की अवधि
कुमाऊं इलाके में होली गायन का आरम्भ बैठी होली के रुप में पूष के प्रथम रविवार से हो जाता है जो फाल्गुन माह के पूर्णिमा के बाद आने वाली छरड़ी तक या उससे आगे चैत्र के संवत्सर अथवा कहीं.कहीं रामनवमी तक भी चलता है। बसंत पंचमी से पूर्व तक बैठी होली में निर्वाण व भक्ति प्रधान होलियां तथा इसके बाद रंगभरी व श्रृंगारिक होलियां गायीं जाती हैं। पदम वृक्ष की टहनी को सार्वजनिक स्थान पर गाड़ने व चीर बंधन के बाद फाल्गुन एकादशी को रंग.अनुष्ठान होता हैए और खड़ी होलियां शुरू हो जाती है। इतने लम्बे दौर तक होली गायन का प्रचलन कहीं और नहीं दिखायी देता है।
होली गायन के विविध रुप
कुमाऊं में होली गायन के तीन रुप मिलते हैं. बैठ होली, खड़ी होली और महिलाओं की होली। इन सभी होलियों का विवरण पूर्व में दिया जा चुका है।
बैठ होलियों में गायन की शिथिलता
बैठ होली जो कि शास्त्रीय रागों पर आधारित होती है उसमें आम व्यक्ति जो इसके गायन में बहुत प्रवीण न भी हो वह भी अपने स्वर की भागीदारी  बिना हिचकिचाहट के साथ कर लेता है। बैठ होली गीतों में शास्त्रीय रागों की बाध्यता को यहां के समाज ने गायन के दौरान थोड़ी शिथिलता के साथ कम किया है। शास्त्रीय रागों से अनभिज्ञ गायक भी मुख्य गायक द्वारा उठाई गयी होली में अपना स्वर जोड़ लेता है।
आध्यात्म और प्रकृति से जुडे़ हैं होली गीत
यहां गायी जाने वाली होलियांे का यदि विश्लेषण करें तो हमें इनके अन्दर विविध भाव और संदेश दिखायी देते हैं। निर्वाण व भक्ति प्रधान होली गीत जहां समाज को सासांरिक माया.मोह से उबरने तथा ईश्वरीय शक्ति को अनुभूति करने का संदेश देते हैं तो वहीं श्रृंगार व रसभरी होलियां प्रकृति के साथ ही सम्पूर्ण मानव जगत में राग-रंग, उल्लास व प्रेम के भाव को संचारित करती हैं।
होली गीतों का सामयिक आन्दोलनों से जुड़ना
अनेक बार सामाजिक और समयामयिक आंदोलनों में यहां के होली गीतों को माध्यम बनाने का जो अभिनव प्रयोग किया गया है।यह भी एक तरह से यहां की होली की बड़ी विशेषता है। होली गीतों की तर्ज पर कुमाऊं के कवि गौर्दा व बाद में चारू चन्द्र पाण्डे व गिर्दा ने जिन होली गीतों को रचकर सामाजिक चेतना व आन्दोलन से जोड़ा वह अद्भुत कार्य था। स्वतंत्रता संग्राम के दौर में गौर्दा की होलियों तथा बाद में पहाड़ के वन व शराब आन्दोलनों में गिर्दा ने जिन गीतों ने भूमिका निभाई वह बहुत महत्वपूर्ण था। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान पहाड़ के लोगों में देश प्रेम की भावना पैदा करने में अल्मोड़ा के लोक कवि गौर्दा की होलियों का बड़ा योगदान माना जाता है। उनकी एक कुमाउनी होली इस तरह है।
होली अजब खिलाई मोहन अवतार कन्हाई
सूत कातकर चरखे से मोहन खद्दर चीर पहनाई
विदेशी माल गुलाल उड़ायो स्वदेशी रंग उड़ायी
गोरे सब नाचे नाच रंग बिरंगी पिचकारी मारी
स्वराज पताका उड़ायी जी हुजुरों को भांग पिलाई……..

सामाजिक एकता की प्रतीक हैं यह होलियां
परम्परागत तौर पर वर्षों से यहां की होलियां सामाजिक समरसता, सामूहिक एकता व भाई-चारे का भी प्रतीक रही हैं। आज भी पहाड़ के गांवो में सामूहिक तौर पर होली गांव के हर घर के आंगन में जाती है। यही नहीं कई स्थानों पर आसपास स्थित एक दूसरे के गांवो में भी होल्यार होली गाने जाते हैं। कुमाऊं के नगराें व कस्बों में होली के पर्व.आयोजन में सभी वर्ग.संप्रदाय के लोग समान रुप से हिस्सा लेते हैं। अल्मोड़ा की पुरानी बैठी होली में बाहर से आये कई पेशेवर मुस्लिम गायकों का भी योगदान रहा है। पहाड़ से प्रवास पर गये कई लोगों ने आज भी होलियों में अपने घर गांव आने की परम्परा कायम रखी है। लखनऊ, दिल्ली व मुम्बई जैसे अन्य महानगरों में होली के पर्व में प्रवासी लोगों को यहां की परम्परागत होलियां पहाड़ लौट आने को विवश कर देती हैं।
आशीष देने की निराली परम्परा मौजूद है यहां की होलियों में
कुमाऊं में होल्यारों की टोली घर के आंगन में पंहुचने के बाद जब दूसरे आंगन की ओर प्रस्थान करती है तब होल्यारों के मुखिया द्वारा सभी पारिवारिक सदस्यों को स्नेह युक्त आशीष दी जाती है। आशीष के ये वचन वसुधैव कुटुम्बकम् और जीवेत शरद शतम् की अवधारणा को पूरी तरह चरितार्थ करते हैं। आशीष का भाव यह है कि बरस दीवाली बरसे फाग….जीते रहो रंग भरो….घर का मुखिया, पारिवारिक जन….बाल बृन्द सब जीते रहें….पांचों देव दाहिने रहें और बसन्त इस घर की देहरी पर उतरता रहे।

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