संस्कृति
कौन है भद्रा, क्यों है हव्वा के रूप में प्रचलित, मुहूर्त निकालते वक्त भद्रा का क्यों रखा जाता है विशेष ध्यान
कौन है भद्रा, क्यों है हव्वा के रूप में प्रचलित, मुहूर्त निकालते वक्त भद्रा का क्यों रखा जाता है विशेष ध्यान
सीएन, हरिद्वार। वैदिक ज्योतिष में मुहूर्तो पर विशेष बल दिया गया है। क्योंकि जीवन के सांस्कारिक कार्यो को बगैर मुहूर्त के लोग नहीं करते है। जन्म से लेकर मृत्यु तक 16 संस्कारों का विधान बतलाया गया है। हर संस्कार का अपना अलग.अलग महत्व है। लगभग इन सभी संस्कारों में मुहूर्तो की जरूरत पड़ती है। मुहूर्त निकालते वक्त भद्रा का विशेष ध्यान रखा जाता है। भद्रा की चर्चा आम जनमानस में हव्वा के रूप में प्रचलित है। भद्रा पूर्वकाल में देवदानव संग्राम में उत्पन्न हुई। इसका मुख गर्दभी की तरह है। यह पुच्छ सात हाथों एवं तीन पैरों से युक्त है। इसकी आं खेकौड़ी की तरह है तथा शब्द घोष बादलों की तरह है। उत्पन्न होने के बाद भद्रा शव वस्त्रों कफन को धारण कर धूम्रवर्ण की कान्ति से युक्त, पितरों के कारण शमशान में शव पर सवार होकर शीघ्र ही विशाल शरीर धारण कर दैत्यों की सेना रूपी जाल में आंधी की तरह प्रविष्ट हुई। तदन्तर भद्रा ने अग्नि भस्म को धारण कर वायुवेग से दैत्यों को यमुना के सहोदर यमराज के घर भेज दिया अर्थात दैत्यों का संहार किया। अनन्तर भगवान शिव के कर्णपद को प्राप्त हुई अर्थात शिव के कानों में निवास किया। भगवान शिव के प्रसाद से वी भद्रा विष्टि काल में किये गये मंगल कार्यो की सिद्धि को अपनी अग्तिुल्य जिह्रवा से खाती है। अतः अपना हित चाहने वाले व्यक्ति को भद्रा क्ष्विष्टिद्व काल में विवाहादि शुभ कार्य नहीं करना चाहिए। शुक्ल पक्ष में चतुर्थी एवं एकादशी के उत्तरार्ध में तथा पूर्णिमा एंव अष्टमी के पूर्वाद्ध में भद्रा होती है। कृष्ण पक्ष में एक रहित उक्त तिथियों में भद्रा होती है। कृष्ण पक्ष में तृतीया एंव दशमी के उत्तरार्ध में तथा चतुदर्शी एवं सप्तमी के पूर्वार्द्ध में भद्रा होती है। भद्रा की समस्त घटिका सभी प्रकार के कार्यो में शुभ नहीं कही गई है। कुछ आचार्यो ने भद्रा के अन्तिम 3 घटी को पुच्छ मानकर शुभ कहा है। भद्रा का षष्टयंश क्ष्जितने समय तक भद्रा हो उसका छठा भाग लगभग 5 घटी उसका मुख होता है। तीसवां भाग भद्रा का कण्ठ, तृतीयांश भाग ह्रदय, षष्ठांश भाग नाभि, पंचमेश कटिप्रदेश, शेष घटी भद्रा की पुच्छ होती है। भद्रा के मध्यम मान से 30 घटी मानकर निम्नलिखित प्रकार से अंगो का विभाजन किया जाता है। भद्रा के मुख में किया गया कार्य विनष्ट होता है। गले में करने से मृत्यु, ह्रदय में करने से हानि, नाभि में करने से नुकसान, कटिप्रदेश में कार्यारम्भ करने से शीघ्र ही बुद्धि का नाश होता है। भद्रा की पुच्छ में किये गये कार्य में निरन्तर विजय होती है। मीन, धनु, कन्या, तुला राशि में चन्द्रमा हो तो उस समय भद्रा पाताल में होती है। वृश्चिक, वृष, मिथुन एवं सिंह राशिगत चन्द्र हो तो भद्रा भूमि पर होती है एवं मेष, कर्क, मकर, कुम्भ राशि में चन्द्रमा होने पर भद्रा स्वर्ग में होती है। चतुदर्शी को भद्रा पूर्व में होती है, अष्टमी को आग्नेय कोण मेंए सप्तमी को दक्षिण में, पूर्णिमा को नैऋत्य कोण में, चतुर्थी को पश्चिम में, दशमी को वायव्य कोण में, एकादशी को उत्तर दिशा में तथा तृतीया तिथि को भद्रा ईशान कोण में होती है।
विष्टिः स्याद्धरितालिकाचर्न विधावृत्सर्गजात क्रिया वैमयेषु शिवार्ययोफलवती।
होमे सर्दवार्चने सोपाकम्र्महुताशनी जलधरार्चापाक यज्ञ क्रिया स्वाराष्धेघ्वरकम्र्मणीष्टयाजने भूप्रदाने तथा।।
अर्थात.हरितालिका पूजन विधि में उत्सर्ग विधि में, जातकर्म, विनियम किसी वस्तु के बदले में वस्तु लेने या देने में शिव.पार्वती पूजन मेंए श्रावणी कर्म में, होलिका दहन में, जलाशय के पूजन में, पाक क्रिया में, यज्ञ क्रिया में, इष्टपूजन में तथा राजा को कोई वस्तु प्रदान करने में भद्रा सदैव फलदायिनी होती है।