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उत्तरकाशी

देवडोली का आदेश शिरोधार्य : उड़द दाल से बन रहा डांडा नागराजा मंदिर

देवडोली का आदेश शिरोधार्य : उड़द दाल से बन रहा डांडा नागराजा मंदिर
सीएन, उत्तरकाशी।
आमतौर पर भवन, मंदिर आदि के निर्माण में पत्थर या ईंट के साथ सीमेंट, रेता और बजरी का प्रयोग किया जाता है परंतु राज्य के सीमांत जनपद उत्तरकाशी के भंडारस्यूं क्षेत्र में डांडा नागराजा के मंदिर निर्माण में इसकी जगह ग्रामीणों के घरों से दी गई उड़द की दाल का प्रयोग किया जा रहा है। बताया गया है कि मंदिर समिति द्वारा यह कदम देवडोली के उस आदेश पर उठाया गया है जिसमें मंदिर निर्माण में किसी भी प्रकार के सीमेंट और रेत-बजरी का प्रयोग नहीं किए जाने की बात की गई है। देवडोली के आदेश को शिरोधार्य करते हुए क्षेत्र के ग्रामीण मंदिर के लिए उड़द की दाल दान कर रहे हैं। आपको बता दें कि प्राचीन समय से ही यह गंगा-यमुना घाटी क्षेत्र अपनी भवन शैली निर्माण के लिए जानी जाती है। यहां के गांवों में पंचपुरा सहित ढैपुरा शैली के मकान सबसे ज्यादा बनाए जाते हैं। जिनमें आम जनमानस के संयुक्त परिवार के साथ ही मवेशियों के रहने की भी व्यवस्था होती है परन्तु आधुनिक युग में अब भौतिकवाद के चक्कर में यह पुरातन भवन निर्माण शैली हांसिए पर जा रही है। विलुप्त होती इस भवन शैली को बचाने के लिए भी जुणगा-भंडारस्यूं के ग्रामीणों द्वारा की गई यह नई शुरूआत सराहनीय है। अभी तक मिल रही जानकारी के मुताबिक उत्तरकाशी जिले के भंडारस्यूं क्षेत्र के दशगी और भंडारस्यूंय पट्टी में स्थित देवलडांडा में डांडा नागराज देवता का मंदिर का निर्माण कार्य इन दिनों कराया जा रहा है। इसके लिए जहां हिमाचल, बगांण के पत्थरों को सहारनपुर के कारीगरों द्वारा तराशा जा रहा हैं वहीं इसमें क्षेत्र के करीब करीब 10 से 11 गांव के ग्रामीण सहयोग कर रहे हैं और अपने घरों से उड़द की दाल मंदिर निर्माण के लिए दे रहे हैं।‌ इस संबंध में वरिष्ठ इतिहासकारों के मुताबिक पहाड़ में उड़द की दाल का प्रयोग भवन निर्माण में टिहरी रियासत के समय किया जाता था। परंतु धीरे धीरे यह परम्परा विलुप्त हो गई। अब पहाड़ों में भी अमूमन भवन निर्माण के लिए ईंट सीमेंट रेता का ही प्रयोग किया जाता है। उधर दूसरी ओर डांडा नागराज मंदिर समिति के अध्यक्ष विजेन सिंह कुमांई का कहना है कि बीते दिनों देवता की देवडोली ने आदेश किया था कि उनके मंदिर निर्माण में सीमेंट और रेत बजरी का प्रयोग न किया जाए। उसके स्थान पर उड़द (काली दाल) का प्रयोग किया जाए। जिसके बाद अब ग्रामीण अपनी श्रद्धा से घरों से उड़द की दाल पीस कर मंदिर समिति को दे रहे हैंं। जिसका प्रयोग मंदिर निर्माण में किया जा रहा है।

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