धर्मक्षेत्र
सावन अत्यंत पवित्र महीना, धार्मिक दृष्टिकोण से ही नहीं बल्कि वैज्ञानिक दृष्टि से भी विशेष
सीएन, हरिद्वार। श्रावण मास, जिसे हिन्दू पंचांग के अनुसार वर्षा ऋतु में आने वाला एक अत्यंत पवित्र महीना माना जाता है, केवल धार्मिक दृष्टिकोण से ही नहीं बल्कि वैज्ञानिक दृष्टि से भी विशेष है। इस माह में शिवभक्त विशेष रूप से व्रत, पूजा-पाठ और सात्विक आहार का पालन करते हैं। इनमें सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इस मास में मांसाहार से पूर्णतः परहेज़ किया जाता है। हालाँकि यह धार्मिक आस्था से जुड़ा नियम है, लेकिन इसके पीछे गहरे वैज्ञानिक और पर्यावरणीय कारण भी निहित हैं, जो मानव स्वास्थ्य और प्रकृति दोनों की रक्षा करते हैं। श्रावण मास में वर्षा ऋतु अपने चरम पर होती है। इस मौसम में वातावरण में आर्द्रता बहुत अधिक होती है, जिससे मानव शरीर का पाचन तंत्र कमजोर हो जाता है। मांसाहार भारी और जठराग्नि को और भी धीमा करने वाला होता है। इससे अपच, गैस, अम्लता और अन्य पेट संबंधी समस्याएं बढ़ सकती हैं। इसलिए हल्का, सात्विक और जल्दी पचने वाला आहार श्रावण में स्वास्थ्य की दृष्टि से उपयुक्त माना गया है। मानसून के दौरान तापमान और नमी के कारण खाद्य वस्तुओं, विशेषकर मांस, मछली और अंडों में हानिकारक बैक्टीरिया और परजीवियों के पनपने की संभावना अत्यधिक बढ़ जाती है। मांस को सही तापमान पर संग्रहित और पकाया न जाए तो इससे फूड पॉइज़निंग, टायफॉयड, हैज़ा, वाइरल और डायरिया जैसी बीमारियाँ हो सकती हैं। इस खतरे से बचने के लिए मांसाहार से दूरी रखना वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी समझदारी है। श्रावण मास में अधिकांश नदियाँ, तालाब और जल स्रोत बारिश के कारण उफनते हैं और उनमें मिट्टी, कीचड़ तथा जानवरों का मल-मूत्र मिल जाता है। ऐसे जल स्रोतों से पकड़ी गई मछलियाँ और जलजीव दूषित होते हैं, जिनका सेवन स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो सकता है। इसी कारण इस मौसम में जलचर जीवों से दूरी बनाए रखना सुरक्षित है। श्रावण मास प्रकृति की उर्वरता और नवसृजन का समय होता है। यह समय पशु-पक्षियों के प्रजनन का भी होता है। ऐसे में यदि मांसाहार किया जाता है, तो इससे पशु जीवन चक्र बाधित होता है और पारिस्थितिकी संतुलन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इसी कारण, भारतीय संस्कृति ने धार्मिक नियमों के माध्यम से लोगों को इस अवधि में मांसाहार से रोक कर पर्यावरण संरक्षण का संदेश भी दिया है। मांसाहार का शरीर और मन दोनों पर प्रभाव पड़ता है। सात्विक आहार जहां मन को शांत, स्थिर और ध्यान योग्य बनाता है, वहीं मांसाहार तामसिक प्रवृत्ति को बढ़ाता है, जिससे चिड़चिड़ापन, आलस्य और आवेग बढ़ सकता है। श्रावण मास ध्यान, पूजा और आत्मनियंत्रण का काल है, इसलिए मानसिक स्थिरता के लिए मांसाहार से बचना आवश्यक माना गया है। श्रावण मास के दौरान वायरल संक्रमण, डेंगू, मलेरिया जैसी बीमारियों का प्रकोप बढ़ जाता है। मांसाहार शरीर को अधिक ऊर्जा देने वाला तो होता है, लेकिन यदि वह अशुद्ध, संक्रमित या अधपका हो, तो प्रतिरक्षा प्रणाली को कमजोर कर सकता है। वहीं सात्विक भोजन, जैसे हरी सब्जियाँ, फल, मूंग दाल आदि शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाते हैं। श्रावण मास में मांसाहार न करने की परंपरा केवल एक धार्मिक निर्देश नहीं, बल्कि वैज्ञानिक, स्वास्थ्यपरक और पर्यावरण-संरक्षण की दृष्टि से भी अत्यंत सार्थक है। आधुनिक विज्ञान भी इस बात को मानता है कि मानसून में हल्का और शुद्ध भोजन शरीर के लिए सर्वोत्तम होता है। इसलिए यह कहना अनुचित नहीं होगा कि हमारे पूर्वजों ने धार्मिकता की आड़ में जीवन जीने की वैज्ञानिक शैली को संरक्षित किया था। आज आवश्यकता है कि हम इन पारंपरिक नियमों को अंधविश्वास समझ कर खारिज न करें, बल्कि उनके पीछे के वैज्ञानिक कारणों को समझें और आचरण में लाएँ।
