Connect with us

धर्मक्षेत्र

कुमाऊं में 160 वर्षों से भी अधिक पुराना रामलीला मंचन की परंपरा का इतिहास

कुमाऊं में 160 वर्षों से भी अधिक पुराना रामलीला मंचन की परंपरा का इतिहास
कुमाउंनी रामलीला को दुनिया का सबसे लंबे नृत्य.नाटिका होने का दर्जा हासिल  
चन्द्रेक बिष्ट, नैनीताल।
भगवान राम की कथा पर आधारित रामलीला नाटक के मंचन की परंपरा भारत में युगों से चली आयी है। लोक नाट्य के रुप में प्रचलित इस रामलीला का देश के विविध प्रान्तों में अलग अलग तरीकों से मंचन किया जाता है। उत्तराखण्ड खासकर कुमाऊं अंचल में रामलीला मुख्यतया गीत-नाट्य शैली में प्रस्तुत की जाती है। वस्तुतः पूर्व में यहां की रामलीला मौखिक परंपरा पर आधारित थी, जो पीढ़ी दर पीढ़ी लोक मानस में रचती-बसती रही। शास्त्रीय संगीत के तमाम पक्षों का ज्ञान न होते हुए भी लोग सुनकर ही इन पर आधारित गीतों को सहजता से याद कर लेते थे। कुमाऊं अंचल में रामलीला के मंचन की परंपरा का इतिहास लगभग 160 वर्षों से भी अधिक पुराना है। यहां की रामलीला मुख्यतः रामचरित मानस पर आधारित है जिसे गीत एवं नाट्य शैली में प्रस्तुत किया जाता है। कई ग्रामीण अंचलों में रामलीला का मंचन खेतों में फसल कट जाने के बाद भी किया जाता है, जिससे रामलीला आयोजन के लिये आसानी से बड़ा स्थान उपलब्ध हो जाता है और साथ ही ग्रामीण भी खेती के काम से निपट चुके होते हैं तो उनके पास काफी समय बच जाता है जिसका उपयोग वह रामलीला मंचन की तैयारियों में करते हैं। कुमाउंनी रामलीला देवीदत्त जोशी द्वारा लिखी गयी है जो कि रामचरितमानस पर ही आधारित है। इस रामलीला में संस्कृत रंगमंच और पारसी रंगमंच के साथ नौटंकी, नाच, जात्रा, रासलीला जैसी लोक.विधाओं का भी अंश मिलता है। कुमाउंनी रामलीला को दुनिया का सबसे लंबे ऑपेरा अर्थात नृत्य.नाटिका होने का दर्जा हासिल है जिस कारण इसे यूनेस्को ने विश्व सांस्कृतिक संपदा की सूची में स्थान दिया है।
अल्मोड़ा के बद्रेश्वर में हुई पहली कुमाऊंनी रामलीला      
चंदवंशी राजा बालो कल्याण चंद ने जिस अल्मोड़ा शहर को 1563 में बसाया, उसी अल्मोड़ा शहर के स्व. देवी दत्त जोशी काली कुमाऊं के तहसीलदार की प्रेरणा से 1860 में पहली कुमाऊंनी रामलीला बद्रेश्वर में हुई। तदुपरांत 1880 में नैनीताल, 1890 में बागेश्वर और 1902 में पिथौरागढ़ में कुमाऊंनी रामलीला की शुरुआत हुई। कुमाऊंनी रामलीला के जानकार शुरू से ही इस बात को अंगीकार करते आये हैं कि बृज की रासलीला के अतिरिक्त नौटंकी शैली का प्रभाव भी यहां की रामलीला में पड़ा है तथा पारसी रंगमंच से प्रभावित होकर पात्रों के हाव.भाव, वेशभूषा तथा रंगमंच की साज.सज्जा पर विशेष ध्यान दिया जाता है देवीदत्त जोशी ने पारसी नाटक के आधार पर सबसे पहले बरेली या मुरादाबाद में कुमाऊंनी तर्ज की पहली रामलीला 1830 में आयोजित की थी। इसी आधार पर दन्या के बद्रीदत्त जोशी ने 1860 में पहली रामलीला बद्रेश्वर में प्रदर्शित की थी। उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य कुमाऊंनी रामलीला विशेषकर अल्मोड़ा में कुछ नवीनता आयी। अब रामलीला के कई महत्वपूर्ण प्रसंग भी छायाचित्रों के माध्यम से दर्शकों को दिखलाए जाने लगे। यहां की नवरात्रियों में छायाभिनय का प्रथम प्रयास भारत के नृत्य सम्राट उदयशंकर ने अल्मोड़ा में किया। इस नगर के रानीधारा नामक स्थान के खुले प्रांगण में यह आयोजन संपन्न हुआ। इस मौके पर रानीधारा में दर्शकों की रेलमपेल मच गयी थी। 1941 की नवरात्रियों की संध्या को रामलीला छायाभिनय का प्रदर्शन किया गया। निश्चित रूप से उदयशंकर जैसे महान कलाकार ने अभिनय की जो नवीन विधा यहाँ के कलाप्रेमियों को दी, उसका सदुपयोग अल्मोड़ा की रामलीला में आज भी देखने को मिलता है। अल्मोड़ा नगर में 1940-41 में विख्यात नृत्य सम्राट पं. उदय शंकर ने छाया चित्रों के माध्यम से रामलीला में नवीनता लाने का प्रयास किया। हांलाकि पं. उदय शंकर द्वारा प्रस्तुत रामलीला यहां की परंपरागत रामलीला से कई मायनों में भिन्न थी लेकिन उनके छायाभिनय, उत्कृष्ट संगीत व नृत्य की छाप यहां की रामलीला पर अवश्य पड़ी। कुमाऊं की रामलीला में बोले जाने वाले सम्वादों, धुन, लय, ताल व सुरों में पारसी थियेटर की छाप दिखायी देती है, साथ ही साथ ब्रज के लोक गीतों और नौटंकी की झलक भी। सम्वादों में आकर्षण व प्रभावोत्पादकता लाने के लिये कहीं-कहीं पर नेपाली भाषा व उर्दू की गजल का सम्मिश्रण भी हुआ है। कुमाऊं की रामलीला में सम्वादों में स्थानीय बोलचाल के सरल शब्दों का भी प्रयोग होता है। रावण कुल के दृश्यों में होने वाले नृत्य व गीतों में अधिकांशतः कुमाऊंनी शैली का प्रयोग किया जाता है। रामलीला के गेय संवादो में प्रयुक्त गीत दादर, कहरुवा, चांचर व रुपक तालों में निबद्ध रहते हैं। हारमोनियम की सुरीली धुन और तबले की गमकती  गूंज में पात्रों का गायन कर्णप्रिय लगता है। संवादो में रामचरित मानस के दोहों व चौपाईयों  के अलावा कई जगहों पर गद्य रुप में संवादों का प्रयोग होता है। यहां की रामलीला में गायन को अभिनय की अपेक्षा अधिक तरजीह दी जाती है। रामलीला में बोले जाने वाले सम्वादों, धुन, लय, ताल व सुरों में पारसी थियेटर की छाप दिखायी देती है, साथ ही साथ ब्रज के लोक गीतों और नौटंकी की झलक भी। सम्वादों में आकर्षण व प्रभावोत्पादकता लाने के लिये कहीं.कहीं पर नेपाली भाषा व उर्दू की गजल का सम्मिश्रण भी हुआ है। कुमाऊं की रामलीला में सम्वादों में स्थानीय बोलचाल के सरल शब्दों का भी प्रयोग होता है। रावण कुल के दृश्यों में होने वाले नृत्य व गीतों में अधिकांशतः कुमाऊंनी शैली का प्रयोग किया जाता है। रामलीला के गेय संवादो में प्रयुक्त गीत दादर, कहरुवा, चांचर व रुपक तालों में निबद्ध रहते हैं। हारमोनियम की सुरीली धुन और तबले की गमकती  गूंज में पात्रों का गायन कर्णप्रिय लगता है। संवादो में रामचरित मानस के दोहों व चौपाईयों  के अलावा कई जगहों पर गद्य रुप में संवादों का प्रयोग होता है। यहां की रामलीला में गायन को अभिनय की अपेक्षा अधिक तरजीह दी जाती है। उत्तराखंड की सांस्कृतिक नगरी अल्मोड़ा में रामलीला के मंचन का इतिहास डेढ़ सौ साल पुराना है। आज भी यहां ऐसे कलाकार हैं जो आधी सदी से इस गौरवशाली परंपरा से जुड़े हुए हैं। रामलीला के मंचन के लिए एक माह तक कलाकार तालीम लेते हैं और रियाज़ करते हैं। यहां की रामलीला की एक खास बात यह भी है कि कलाकार गायन भी खुद करते हैं और रामलीला कई तरह के रागों में गाई जाती है। सांस्कृतिक नगरी में एक दर्जन से ज़्यादा जगहों पर रामलीला का मंचन होता है।  बद्रेश्वर से रामलीला का मंचन शुरू हुआ था। तब संसाधनों की कमी हुआ करती थी। अब तो नगर में एक दर्जन से अधिक स्थानों पर रामलीला का मंचन किया जाता है। रामलीलाओं का मंचन हो या फिर दशहरे में रावण वंश के पुतले बनाने और जलाने का उत्सव, यहां सब देखने को मिलता है। जब बिजली नहीं थी, तब लालटेन और चीड़ के छिलके से रामलीला का मंचन के दौर से लेकर अब आधुनिक सुविधाओं के साथ मंचन होने तक यहां दर्शक भी लगातार बने हुए हैं, हालांकि समय के साथ संख्या कम हो रही है।

नैनीताल की रामलीला में पारसी थियेटर का प्रभाव
अल्मोड़ा शहर के स्व. देवी दत्त जोशी काली कुमाऊं के तहसीलदार की प्रेरणा से 1860 में पहली कुमाऊंनी रामलीला बद्रेश्वर में हुई। तदुपरांत 1880 में नैनीताल, 1890 में बागेश्वर और 1902 में पिथौरागढ़ में कुमाऊंनी रामलीला की शुरुआत हुई।  राम 1918 में नैनीताल में रामलीला विधिवत सेवक सभा की स्थापना के साथ ही शुरू हो गयी थीण् शुरूआती दौर में यह रामलीला खुले मैदान में होती थी जिसे आलू पड़ाव कहा जाता था पर 1928 में चेतराम साह ठुलघरिया ने कमिश्नर से कह के रामलीला स्टेज की स्थापना करवाई और उसके बाद से रामलीला स्टेज में रामलीला का मंचन होने लगा। यहां की रामलीला में पारसी थियेटर का प्रभाव देखा जा सकता है। उसी से प्रभावित होकर यहां के कलाकारों ने रामलीला का मंचन शुरू किया। शुरू-शुरू में होली गायकों ने इसमें हिस्सेदारी की जिस कारण रामलीला में संगीत का प्रभाव आने लगा और फिर इसे संगीतमय बनाया जाने लगा। आज नैनीताल में मल्लीताल आलू पड़ाव, तल्लीताल, शेर का डांडा व सूखाताल में रामलीला का मंचन किया जाता है

More in धर्मक्षेत्र

Trending News

Follow Facebook Page

About

आज के दौर में प्रौद्योगिकी का समाज और राष्ट्र के हित सदुपयोग सुनिश्चित करना भी चुनौती बन रहा है। ‘फेक न्यूज’ को हथियार बनाकर विरोधियों की इज्ज़त, सामाजिक प्रतिष्ठा को धूमिल करने के प्रयास भी हो रहे हैं। कंटेंट और फोटो-वीडियो को दुराग्रह से एडिट कर बल्क में प्रसारित कर दिए जाते हैं। हैकर्स बैंक एकाउंट और सोशल एकाउंट में सेंध लगा रहे हैं। चंद्रेक न्यूज़ इस संकल्प के साथ सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर दो वर्ष पूर्व उतरा है कि बिना किसी दुराग्रह के लोगों तक सटीक जानकारी और समाचार आदि संप्रेषित किए जाएं।समाज और राष्ट्र के प्रति जिम्मेदारी को समझते हुए हम उद्देश्य की ओर आगे बढ़ सकें, इसके लिए आपका प्रोत्साहन हमें और शक्ति प्रदान करेगा।

संपादक

Chandrek Bisht (Editor - Chandrek News)

संपादक: चन्द्रेक बिष्ट
बिष्ट कालोनी भूमियाधार, नैनीताल
फोन: +91 98378 06750
फोन: +91 97600 84374
ईमेल: [email protected]

BREAKING