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पितृ पक्ष में कौओं का महत्व, उत्तराखंड के  इन स्थानों को कहा जाता है कौओं का तीर्थ  

पितृ पक्ष में कौओं का महत्व, उत्तराखंड के  इन स्थानों को कहा जाता है कौओं का तीर्थ  
सीएन, हरिद्वार।
समस्त देश में भाद्रपद पूर्णिमा से अश्विन अमावस्या तक पितृ पक्ष के रूप में मनाया जाता है। इस दौरान लोग अपने पूर्वजों का पिंडदान श्राद्ध करते हैं। अपने पूर्वजों को याद करते हैं। श्राद्ध पक्ष का हिन्दू धर्म में बहुत महत्व है। पितृपक्ष में पूर्वजों के आशीर्वाद लेने से घर में सुख शांति बनी रहती है। समस्त भारत के साथ उत्तराखंड में भी पितृ पक्ष में कौए को काफी महत्व दिया जाता है। पितृ पक्ष में गौ माता के साथ कौवों को भी भोजन कराया जाता है। धार्मिक मान्यताओं के आधार पर कहा जाता है कि पितृ पक्ष में पुरखों  कौओं का रूप लेकर धरती में आते हैं। पितरों के श्राद्ध का अंश पहुंचाने के लिए कौए को माध्यम बनाया जाता है। पौराणिक कथाओं के आधार पर बताया जाता है कि समुद्र मंथन पर देवताओं के साथ कौए ने भी अमृत चख लिया था। इसलिए कहते हैं उनकी मृत्यु का पता नहीं चलता। कौए की अप्राकृतिक मृत्यु होती है। कौए बिना थके लम्बी दूरी की यात्रा कर सकते हैं। सनातन धर्म की मान्यताओं के अनुसार इंसान को मृत्यु के उपरांत कौओ की योनि में जन्म लेना पड़ता है। इसके अलावा  रामायण में एक प्रसंग आता है एक बार देवराज इंद्र के पुत्र जयंत ने  कौए का रूप धारण करके माँ सीता को चोंच मार कर घायल कर दिया। तब भगवन राम ने एक तिनके में अस्त्र की शक्ति प्रवाहित करके एकौ  की आँख फोड़ दी। जयंत को जब अपनी गलती का अहसास हुवा तो उसने भगवान् राम से क्षमा याचना की। तब प्रभु श्रीराम ने उसे आशीर्वाद दिया कि पितृ पक्ष में लोग बड़ी श्रद्धा भाव से कौओ को भोजन कराएँगे और यह भोजन उनके पितरों को पितृ लोक में प्राप्त होगा। जिस प्रकार हिन्दुओं के तीर्थ काशी हरिद्वार और ऋषिकेश हैं। और इंसानों के अन्य धर्मो का तीर्थ और कई स्थान है। ठीक उसी प्रकार ऐसी मान्यता है कि इस धरती पर कौवों का भी तीर्थ स्थल है। कौओं के तीर्थो हैं क़व्वालेख और काकभुशंडि ताल। तीर्थ हिमालयी क्षेत्र के उत्तराखंड राज्य में कुमाऊं मंडल के बागेश्वर जिले के दानपुर परगने के खातीगावं के ऊपर नंदा देवी के पश्चिम की तरफ स्थित है। क़व्वालेख नामक पर्वत कौओं का पवित्र तीर्थ स्थल माना जाता है। यह मनुष्यों की पावनधाम काशी की तरह कौओं का पावन धाम माना जाता है। इस क्षेत्र के बारे में ऐसी मान्यता है कि एजो कौवा यहाँ मरता है उसे सद्गति प्राप्त होती है। उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। कहते हैं जब  भी कोई कौआ मृत्यु के नजदीक होता है तो वह अपने प्राण त्यागने के लिए इस क्षेत्र में आ जाता है। यदि कोई कौआ कोई दूसरी जगह मरता है तो उसके पंख को यहाँ लाकर डाल देते हैं। कहा जाता है कि यहाँ कौओं के हजारों पखं बिखरे हुवे हैं। हिमालय क्षेत्र का यह पौराणिक ताल चमोली जिले में जोशीमठ से लगभग 40 किलोमीटर आगे एक हिमालयी ग्लेशियर के पास स्थित है। यहाँ जाने का मार्ग काफी जोखिम भरा है। जोशीमठ से गोविंदघाट 20 किमी उसके बाद गोविंदघाट से भ्यूंडार 8 किमी का ट्रैक तो ठीक ठाक है लेकिन आगे रिखकोट, करगिल, बांकबारा, राजखरक का रास्ता थोड़ा जोखिम भरा है। काकभुशंडि ताल 2 किमी के अंतर्गत बसा हुआ एक सुन्दर अर्धचद्राकार आकृति का ताल है। इस सुन्दर ताल के किनारे जड़ीबूटियां और ब्रह्मकमल खिले रहते हैं। यह ताल समुंद्रतल से 45000 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। पौराणिक कथाओं के अनुसार इस ताल का नाम रामायण के पात्र काकभुशंडि के नाम पर रखा गया है। कहा जाता है काकभुशंडि ने  कौए के रूप में सर्वप्रथम गरुड़राज को भगवान राम की दिव्य कथा इसी स्थान पर सुनाई थी। इस ताल के पास दो बड़े चट्टानें हैं, लोकमान्यताओं के अनुसार ये काकभुशंडि और गरुड़राज हैं जो रामकथा पर चर्चा कर रहें हैं। किंदवंतियों के अनुसार इस ताल में कौए आकर, अपना जीवन समाप्त करते हैं, अर्थात कहा जाता है कि कौए मुक्ति के लिए यहाँ आते हैं। इसलिए इसे मानवो के पवित्र स्थल के साथ कौओं का तीर्थ भी माना जाता है। जैसा की उपरोक्त बताया, माना जाता है कि अमृत चखने की वजह से इनकी अप्राकृतिक मृत्यु होती है।

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