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धर्मक्षेत्र

आयो नवल बसंत सखी ऋतुराज कहायो, पुष्प कली सब फूलन लागी, फूल ही फूल सुहायो

-300 सौ साल पहले रामपुर के उस्ताद अमानत हुसैन ने कुमाऊँ में होली गीतों की  की थी शुरूआत
हरीश चन्द्र अण्डोला, नैनीताल।
कुमाऊँ में होली का इतिहास सदियों पुराना रहा है। करीब 300 सौ साल पहले रामपुर के उस्ताद अमानत हुसैन ने कुमाऊँ में होली गीतों की शुरूआत की थी और तब से लेकर आज तक कुमाऊँ में बैठकी और खड़ी होली इसी अंदाज में मनाई जाती है। जिसमें राग रागिनीयों का प्रयोग किया जाता है । पौष माह के पहले रविवार से चीड़ बंधन तक तकरीबन ढाई माह तक चलने वाली यह होली युवा पीढ़ी को बहुत भाती है, इसलिए कुमाऊँ के युवा बड़ी ही शिद्दत से अपनी संस्कृति और परंपरा को पिरोने के कार्य में जुटी है ताकि आने वाली पीढ़ी भी कुमाऊँनी होली के स्वरूप को जाने और अपनाएं। जब फागुन का रंग चढ़ता है तो सारे भेद खत्म हो जाते हैंए सिर्फ प्रेम का रंग ही शेष रह जाता है और सब उसी रंग में सराबोर रहते हैं जी हां हम बात कर रहे हैं होली की और कुमाऊं में इन दिनों होली मस्ती छायी है। कुमाऊं में जहां उत्तराखंड के विभिन्न सांस्कृतिक क्षेत्रों से लोग आकर बसे हैं, यहां रंगारंग होली की शुरुआत बसंत पंचमी से ही हो जाती है। कुमाऊं एकमात्र ऐसा क्षेत्र है जहां करीब ढाई महीने पहले ही गायन की शुरुआत हो जाती है। बैठकी होली की यह अनोखी परंपरा कुमाऊं में सदियों से चली आ रही है। पौष माह के पहले रविवार के साथ ही कुमाऊं की धरती में होली शुरू होती है। इस अनूठी परंपरा में होली तीन चरणों में मनाई जाती है। बैठकी होली के माध्यम से पहले चरण में विरह की होली गाई जाती है और बसंत पंचमी से होली गायन में श्रृंगार रस घुल जाता है। इसके बाद महाशिवरात्रि से होली के टीके तक राधा.कृष्ण और छेड़खानी.ठिठोली युक्त होली गायन चलता है। अंत में होली अपने पूरे रंग में पहुंच जाती है और रंगों के साथ खुलकर मनाई जाती है। बैठकी होली पारम्परिक रूप से कुमाऊं के बड़े धूमधाम के साथ हारमोनियम, तबले पर गाये जाते हैं। आयो नवल बसंत सखी ऋतुराज कहायो, पुष्प कली सब फूलन लागी, फूल ही फूल सुहायो, राधे नन्द कुंवर समझाय रही, होरी खेलो फागुन ऋतु आइ रही…आहो मोहन क्षृंगार करूं में तेरा, मोतियन मांग भरूं… अजरा पकड़ लीन्हो नन्द के छैयलवा अबके होरिन में गीतों को गाया जाता है। बैठकी होली गायन में सभी रस और राग घुलकर इसे अपने आप मे कुमाऊं की सदियों से चली आ रही परंपरा को जीवित रखे हुए हैं। शिवरात्रि से मंदिरों में शंकर भगवान पर आधारित शिव तेरे मन मानी रहो काशी, होरी खेल सदा शिव मतवालाष् से गायन शुरू हो जाता है। इसके बाद एकादशी पर्व शुरू होते ही चम्पा के दश फूल मालिन हार गुथों, दूसरे दिन कृष्ण की बाल लीलाओं पर आधारित नित यमुना के तीर का गायन किया जाता है। तीसरे दिन से बारह महीनों में आने वाली ऋतु पर आधारित प्रेम प्रसंग की खेलत गोपी ग्वाल बाल मथुरा से होली आईद्व चौथे दिन श्रृंगार रस में प्रवेश कर यौवन संबंधी ष्जन बोले बलम में बिखर जाऊंगी, छोटी मत जाने मो बलमा उसके बाद आखिर के दो दिनों में वेदांतिक होलियां तुम तप कर पार्वती तुम तप कर हो, दध लूटो नंद के लाल, ओ टलने की नहीं जो विधि बह्मा ने लिख दी आदि होलियों का गायन किया जाता है। इधर कुमाउनीं होली में बैठकी व खड़ी होली के मिश्रण के रूप में तीसरा रूप धूम की होली कहा जाता है। यह ष्छलड़ीष् के आस पास गाई जाती है। इसमें कई जगह कुछ वर्जनाऐं भी टूट जाती हैं तथा स्वांग का प्रयोग भी किया जाता है। महिलाओं में स्वांग अधिक प्रचलित है। इसमें महिलाएं खासकर घर के पुरुषों तथा सास, ससुर आदि के मर्दाना कपड़े, मूंछ व चस्मा आदि पहनकर उनकी नकल उतारती हैं तथा कई बार इस बहाने सामाजिक बुराइयों पर भी चुटीले कटाक्ष करती हैं। आधुनिक दौर में जब परंपरागत संस्कृति का क्षय हो रहा है तो वहीं कुमाऊं अंचल की होली में मौजूद परंपरा और शास्त्रीय राग.रागनियों में डूबी होली को आमजन की होली बनता देख सुकून दिलाता है युवा भी इस बैठकी होली में भी अपना योगदान देते हुए दिख रहे हैं वहीं युवा होलियार का कहना है कि बैठकी होली से हमको सीखने का बहुत मौका मिल रहा है जिस तरह से युवा वेस्टर्न कल्चर की ओर भाग रहा है उसको क्लासिकल म्यूजिक पर भी धयान देना चाहिए इससे हमको ही फायदा होगा सीखने का मौका मिलेगा। खड़ी होली और बैठकी होली कुमाऊं का होली का विशेष रंगमंच है इसके अलावा होली में भगवान राम श्री कृष्ण और बन्नी भगवानों की होली भी गाई जाती है लेकिन जैसे जैसे होली का रंग अपने शबाब पर आता है तो यह होली रसिक अंदाज में भी पहुंचती है। सामाजिक एकरूपता का संदेश देने वाला यह होली त्यौहार बड़े ही हर्षोल्लास से मनाया जा रहा है। साथ ही नई पीढ़ी को उनकी उत्तराखंड की संस्कृति से जोड़ने का प्रयास किया जाता है। होलियारों महिलाओं का कहना है कि होली रंगों का त्योहार है। इस त्योहार को हर किसी को मनाना चाहिए और हर राग द्वेष को भूलकर प्रेम से होली का आनंद लेना चाहिए। होली हमें अपनी संस्कृति और परंपरा से जोड़े रखती है। आने वाले पीढ़ी को भी अपनी संस्कृति के बारे में सीखने का मौका मिलता है। यही एक कोशिश है कि पारंपरिक तरीके से होली मनाने के तरीकों को अपनाया जाए, जिससे अपनी संस्कृति को जिंदा रखा जा सके। गौर हो कि भले ही प्रवासी लोग अपने क्षेत्र से बाहर रहते हो लेकिन होली का पर्व वे अपने तौर.तरीके से ही मनाते हैं। जिसका आगाज होते ही वे मस्ती में झूमते दिखाई देते हैं। वर्षों से चली आ रही पिथौरागढ़, अल्मोड़ा और चंपावत की खड़ी और बैठकी होली  खासा आकर्षण का केन्द्र रहती हैं। रात में श्रृंगार और वीर रस से संबंधित होलियों का गायन होता है। होली के दिन लोग पुरानी कटुता को भूल कर गले मिलते हैं और फिर से दोस्त बन जाते हैं। होली के दिन घरों में खीर, पूरी और पूड़े आदि विभिन्न व्यंजन पकाए जाते हैं। इस अवसर पर अनेक मिठाइयां बनाई जाती हैं जिनमें गुझियों का स्थान अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। बेसन के सेव और दहीबड़े भी सामान्य रूप से उत्तर प्रदेश में रहने वाले हर परिवार में बनाए व खिलाए जाते हैं। कांजी, भांग और ठंडाई इस पर्व के विशेष पेय होते हैं। पर ये कुछ ही लोगों को भाते हैं। इस अवसर पर उत्तरी भारत के प्रायरू सभी राज्यों के सरकारी कार्यालयों में अवकाश रहता है।
नोट: लेखक उत्तराखण्ड सरकार के अधीन उद्यान विभाग के वैज्ञानिक के पद पर कार्य कर चुके है और वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।

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