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आज 31 अगस्त को है देवीधुरा की बग्वाल : दस दसैं बीस बग्वाल, कालिकुमु फूलि भंडाव

आज 31 अगस्त को है देवीधुरा की बग्वाल: दस दसैं बीस बग्वाल, कालिकुमु फूलि भंडाव
सीएन, चम्पावत।
जनपद चम्पावत के देवीधुरा में इस बरस का बग्वाल मेला शुरू हो चुका है। काली कुमाऊं में खेली जाने वाली बीस बग्वालों में से केवल अब एक ही बग्वाल रह गई है। जिसे श्रावणी पूर्णिमा अर्थात रक्षाबंधन के दिन देवीधुरा में बाराही माता के मंदिर में खेला जाता है। इस दिन यहाँ भव्य मेला लगता है। जिसे बग्वाल मेला उत्तराखंड के नाम से जाना जाता है। बग्वाल मेले को राजकीय मेला घोषित कर दिया गया है। चार खामों के बीच खेली जाने वाली मुख्य बग्वाल इस साल 31 अगस्त के दिन खेली जानी है। पूर्णमासी को बग्वाल में भाग लेने के इच्छुक योद्धा अपने मुखियाओं के साथ निशान, ढोल, तुरही, शंख, घड़ियाल, नगाड़े लेकर देवीधुरा मंदिर प्रांगण पहुँचते हैं। हाथों में आत्मरक्षा के लिए बांस की छंतोलियाँ इन योद्धाओं को द्योका कहा जाता है। द्योका को बग्वाल से कुछ दिन पहले तक व्रत धारण कर अनेक नियमों का पालन करना होता है। परंपरा के अनुसार चारों खाम के लोग देवीधुरा के मैदान में खड़े हो जाते हैं। पूर्वी कोने पर खड़े होते हैं गहड़वाल खाम के लोग। दक्षिणी कोने पर चम्याल खाम के लोगों का हुआ। पश्चिमी कोना हुआ वालिग़ खाम का और उत्तरी कोने पर लमगड़िया खाम के योद्धा मोर्चा संभालते हैं। पत्थर युद्ध के लिए ये चारों खाम महर और फड़त्याल में बंट जाते हैं। बग्वाल के धार्मिक पक्ष के अतिरिक्त एक ऐतिहासिक पक्ष भी कहा जाता है। यह माना जाता है कि पहाड़ के राजाओं के पास इतना धन न था कि वह एक स्थायी सेना को रखें। धन के अतिरिक्त पहाड़ के शान्तिप्रिय समाज में स्थायी सेना रखने का सवाल न था। वर्षों में होने वाले किसी युद्ध में बतौर सैनिक सामान्य प्रजा ही लड़ा करती थी। यह कहा जाता है कि बग्वाल एक किस्म का वार्षिक युद्ध अभ्यास ही था। इस युद्ध अभ्यास में प्रजा दो धड़ों में विभाजित हो जाती थी और युद्ध का अभ्यास करती। एक समय ऐसा भी था जब कुमाऊं के अनेक स्थानों पर बग्वाल खेली थी। वर्तमान में देवीधुरा की बग्वाल सबसे लोकप्रिय है।
बग्वाल का अर्थ  
बग्वाल का अर्थ होता है, पत्थरों की बारिश या पत्थर युद्ध का अभ्यास। पत्थर युद्ध पहाड़ी योद्धाओं की एक विशिष्ट सामरिक प्रक्रिया रही है। महाभारत में इन्हे पाषाण योधि, अशम युद्ध विराशद कहा गया है। जिस प्रकार वर्षाकाल की समाप्ति पर पर्वतों के राजपूत राजाओं द्वारा युद्धाभ्यास किया जाता था। ठीक उसी प्रकार छोटे .छोटे ठाकुरी शाशकों या मांडलिकों द्वारा भी वर्षाकाल की समाप्ति पर पत्थर युद्ध का अभ्यास किया जाता था जिसे बग्वाल कहा जाता था। कहा जाता है कि चंद राजाओं के काल में पाषाण युद्ध की परम्परा जीवित थी। उनके सेना में कुछ सैनिकों की ऐसी टुकड़ी भी होती थी, जो दूर दूर तक मार करने में सिद्ध हस्त थी। बग्वाली पर्व के दिन इसका प्रदर्शन भी किया जाता था। कुमाऊं में पहले दीपावली के तीसरे दिन भाई दूज को बग्वाल खेली जाती थी इसलिए इस पर्व को बग्वाली पर्व भी कहा जाता है। पत्थर युद्ध पर्वतीय क्षेत्रों की सुरक्षा का महत्वपूर्ण अंग हुवा करता था। इसका सशक्त उदाहरण कुमाऊं की बूढी देवी परम्परा है।
लोक कथा व इतिहास
लोक कथाओं के आधार पर माँ वाराही देवी के गणो को तृप्त करने के यहाँ के चारों क्षत्रिय धड़ों में से बारी .बारी से नरबलि देने का प्रावधान तांत्रिकों ने बनवाया था। कहते हैं एक बार चम्याल खाम की वृद्धा की एकलौते पौत्र की बलि देने की  बारी आई तो, वृद्धा अपने वंश के नाश का आभास से दुखी हो गई। उसने माँ वाराही देवी की पिंडी के पास घोर तपस्या करके माँ को खुश कर दिया। माँ ने प्रसन्न होकर बोला, यदि में गणो के लिए एक आदमी के बराबर रक्त की व्यवस्था हो जाय तो वो नरबलि के लिए नहीं बोलेंगी। तब सभी धड़े इस बात पर राजी हो गए कि नरबलि के लिए किसी को नहीं भेजा जायेगा, बल्कि सब मिलकर एक मनुष्य के बराबर खून अर्पण करेंगे। कहते हैं, तब से ये परम्परा चली आ रही है।
नरबलि से सम्बंधित बग्वाल की यह लोक कथा या जनश्रुति कितनी वास्तविक और तथ्यपरक है, इसके सम्बन्ध में कोई ऐतिहासिक साक्ष्य न मिलने के कारण इसके बारे में निश्चित रूप से कहना मुश्किल है। किन्तु प्राचीन और मध्यकालीन ऐतिहासिक तथ्य इस बात के प्रमाण अवश्य हैं कि पत्थर युद्ध हिमालयी क्षेत्रों के क्षत्रियों की परम्परागत सामरिक पद्धति का अभिन्न अंग होता था। इस सामरिक अभ्यास को वर्षाकाल के समापन के बाद एक उत्सव के रूप में मनाया जाता था। कालांतर में प्रशासनिक परिवर्तन आ जाने के कारण इनको अलग अलग रूपों में जोड़ दिया गया है। भाई दूज पर कुमाऊं में मनाई जाने वाली बग्वाली त्यौहार इसका सटीक उदाहरण है। दीपावली पर खेली जाने वाली बग्वाल का रूप बदल के अब केवल एक त्यौहार के रूप में रह गया है।  इसी प्रकार कई अन्य उत्सव भी हैं  जो बग्वाल पत्थर युद्ध का अभ्यास के रूप में मनाये जाते थे। लेकिन अब उनका स्वरूप बदल चूका है। काली कुमाऊं में प्रचलित एक कहावत दस दसैं बीस बग्वाल कालिकुमु फूलि भंडाव के आधार पर देखे तो पता चलता है कि केवल कुमाऊं मंडल में ही बीस बग्वाल खेली जाती थी। अर्थात बीस स्थानों पर उत्सव रूप में पत्थर युद्ध का अभ्यास होता था। लेकिन अब केवल एक ही बग्वाल रह गई है, जो श्रावणी पूर्णिमा के दिन देवीधुरा माँ वाराही के प्रांगण में मनाई जाती है।    

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