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आज 7 जून को है ईद उल जुहा का त्योहार : हजरत इस्माइल को जीवनदान देने की याद में मनाया जाता पर्व

आज 7 जून को है ईद उल जुहा का त्योहार : हजरत इस्माइल को जीवनदान देने की याद में मनाया जाता पर्व
सीएन, नैनीताल।
बकरीद मुस्लिमों का एक प्रमुख त्योहार हैं। यह त्योहार ईद उल जुहा, कुर्बानी अथवा ईद-उल-अजहा के नाम से जाना जाता हैं। इस्लामी कैलेण्डर यानी हिजरी के आखिरी महीने अर्थात जिलहिज्ज की 10 तारीख को बकरीद मनाई जाती है। इस्लामिक मान्यता के अनुसार हजरत इब्राहिम अपने पुत्र हजरत इस्माइल को इसी दिन खुदा के हुक्म पर खुदा की राह में कुर्बान करने जा रहे थे, तो अल्लाह ने उसके पुत्र को जीवनदान दे दिया जिसकी याद में यह पर्व मनाया जाता है। इस्लाम धर्म का यह दूसरा प्रमुख त्यौहार है। रमजान के पवित्र महीने की समाप्ति पर इसे मनाया जाता है। एक जश्न की तरह इस त्यौहार को मनाने की रीत हैं। इस दिन मुस्लिम बहुल क्षेत्र के बाजारों की रौनक बढ़ जाती है। बकरीद पर खरीदारी बकरे, नए कपड़े, खजूर और सेवईयाँ खरीदते हैं। बकरीद पर कुर्बानी देना शबाब का काम माना जाता है। बकरीद पर नमाज अदा की जाती है, खास पकवान बनाए जाते हैं और कुर्बानी के जरिए समाज में जरूरतमंदों की मदद की जाती है। यह त्योहार हर इंसान को यह याद दिलाता है कि सच्चा धर्म वही है, जिसमें दूसरों की भलाई और परोपकार शामिल हो। इसलिए बकरीद सिर्फ एक त्योहार नहीं, बल्कि एक सोच और जीवनशैली है जो इंसान को बेहतर बनाती है। हज की समाप्ति पर इसे मनाया जाता है। इस्लाम के पाँच फर्ज माने गए हैं, हज उनमें से आखिरी फर्ज माना जाता है। मुसलमानों के लिए जिंदगी में एक बार हज करना जरूरी है। हज होने की खुशी में ईद-उल-जुहा का त्योहार मनाया जाता है। यह बलिदान का त्योहार भी है। इस्लाम में बलिदान का बहुत अधिक महत्व है। कहा गया है कि अपनी सबसे प्यारी चीज रब की राह में खर्च करो। रब की राह में खर्च करने का अर्थ नेकी और भलाई के कामों में। हज़रत इब्राहीम एक पैगम्बर थे। एक दिन अल्लाह ने हज़रत इब्राहिम से सपने में उनकी सबसे प्रिय चीज की कुरबानी मांगी। हज़रत इब्राहिम को सबसे प्रिय अपना बेटा लगता था। इब्राहीम ने अपने बेटे इस्माईल को इस बारे में बताया तो उन्होंने भी ख़ुदा की बन्दग़ी के सामने सर झुकाते हुए पिता इब्राहीम को इस पर सहमति दे दी। हज़रत इब्राहीम इस्माइल को मीना के मैदान में ले गये। बेटे को जमीन पर लिटाया, अपनी आँखों पर पट्टी बाँधी ताकि प्रिय बेटे के क़ुर्बान होने का मंज़र न देख सके और बेटे की गर्दन पर छुरी फेर दी। इस बात का उल्लेख क़ुरआन ने इन शब्दों में किया है कि इब्राहीम ने इस्माइल के होशियार होने के बाद उन्हें राहे ख़ुदा में क़ुर्बान करने के लिए उनके गले पर छुरी फेर दी। लेकिन अल्लाह को इब्राहीम के बंदग़ी की यह अदा इतनी पसंद आई कि इस्माइल को उस जगह से हटाकर स्वर्ग से एक दुम्बा यानी भेड़ को उसके स्थान पर भेज दिया गया और इस्माइल को बचा लिया गया। केवल यही नहीं इब्राहीम की इस कुर्बानी को महत्व दिया गया कि हर साल इस दिन किसी जानवर की कुर्बानी को तमाम लोगों पर फ़र्ज़ ठहरा कर इसे एक इबादत का दर्जा दे दिया गया। यही नहीं बल्कि जिस जगह अर्थात् मीना के मैदान में यह कुर्बानी दी गई, उस मैदान को भी इस तरह यादगार बना दिया गया कि हर वर्ष हज के अवसर पर हाजी वहाँ पर उपस्थित होकर कुर्बानी व हज़रत इब्राहीम के द्वारा कुर्बानी के दौरान अपनाये गये कुछ अमल को अदा करते हैं। एक अलहदा वाकया के मुताबिक हजरत इब्राहीम जब बेटे लेकर कुर्बानी देने जा रहे थे तो रास्ते में उनकी मुलाकात शैतान से हो गई। उसने जानना चाहा कि वह अपने बेटे को लेकर कहां जा रहे हैं। जब हज़रत इब्राहीम ने उन्हें यह बताया कि वह उसे अल्लाह की राह में कुर्बान करने के लिए जा रहे हैं तो उसने उन्हें यह समझाने की कोशिश की क्या कोई बाप अपने बेटे की कुर्बानी भी देता है, अगर उन्होंने अपने बेटे को कुर्बानी दे दी तो फिर उन्होंने देखभाल करने वाला कहां से आएगा, जरूरी नहीं कि बेटे की कुर्बानी दी जाए, बहुत सारी दूसरी चीज हैं, उन्हें ही अपनी सबसे प्रिय बताकर कुर्बानी क्यों नहीं देते, एक बार तो हज़रत इब्राहीम को लगा कि यह शैतान जो कह रहा है, वह सही ही कह रहा है। उनका मन भी डोल गया लेकिन फिर उन्हें लगा कि यह गलत होगा। यह अल्लाह से झूठ बोलना हुआ। यह उनके हुक्म की नाफरमानी होगी। कुर्बानी का महत्त्व यह है कि इंसान ईश्वर या अल्लाह से असीम लगाव व प्रेम का इज़हार करे और उसके प्रेम को दुनिया की वस्तु या इन्सान से ऊपर रखे। इसके लिए वह अपनी प्रिय से प्रिय वस्तु को कुर्बान करने की भावना रखे। कुर्बानी के समय मन में यह भावना होनी चाहिए कि हम पूरी विनम्रता और आज्ञाकारिता से इस बात को स्वीकार करते हैं कि अल्लाह के लिए ही सब कुछ है।

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