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कल गुरुवार 20 फरवरी को है कालाष्टमी 2025 : भगवान शिव के रौद्र रूप काल भैरव की पूजा ही कालाष्टमी

कल गुरुवार 20 फरवरी को है कालाष्टमी 2025 : भगवान शिव के रौद्र रूप काल भैरव की पूजा ही कालाष्टमी
सीएन, हरिद्वार।
हर महीने कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि पर मासिक कालाष्टमी का व्रत रखा जाता है, जिस दिन भगवान शिव के रौद्र रूप काल भैरव की पूजा की जाती है। सनातन धर्म के लोगों के लिए भगवान शिव की पूजा का खास महत्व है। जहां कुछ लोग शिव जी की पूजा भोले बाबा के रूप में करते हैं, तो कुछ उनके रौद्र रूप काल भैरव देव की उपासना भी करते हैं। काल भैरव को तंत्र का देवता माना जाता है, जिनकी पूजा तंत्र.मंत्र की साधना में विशेषतौर पर की जाती है। वैदिक पंचांग के अनुसार हर महीने कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि पर कालाष्टमी का व्रत रखा जाता है, जो काल भैरव को समर्पित है। काल भैरव की पूजा करने से साधक को शत्रुओं और संकट से मुक्ति मिलती है। इसी के साथ जीवन में खुशियों का आगमन होता है। चलिए जानते हैं साल 2025 में फरवरी माह में किस दिन कालाष्टमी का व्रत रखा जाएगा।
वैदिक पंचांग के अनुसार, इस बार फाल्गुन माह में आने वाली कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि का आरंभ 20 फरवरी 2025 को सुबह 09 बजकर 58 मिनट से हो रहा है, जिसका समापन अगले दिन 21 फरवरी 2025 को सुबह 11 बजकर 57 मिनट पर होगा। ऐसे में उदयातिथि के आधार पर 20 फरवरी 2025 को मासिक कालाष्टमी का व्रत रखा जाएगा।
ब्रह्म मुहूर्त में उठकर स्नान आदि कार्य करने के बाद काले या नीले रंग के पवित्र वस्त्र धारण करें। घर के मंदिर में एक चौकी रखें। उसके ऊपर नीले रंग का कपड़ा बिछाएं। कपड़े के ऊपर काल भैरव जी की प्रतिमा स्थापित करें। सरसों के तेल का दीपक जलाएं। व्रत का संकल्प लें। भैरव बाबा को फल, फूल, चंदन और मिठाई आदि चीजें अर्पित करें। इस दौरान काल भैरव अष्टक का पाठ करें। कालाष्टमी व्रत की कथा पढ़ें या सुनें। अंत में आरती करके पूजा का समापन करें।
कालाष्टमी व्रत की कथा
शिव पुराण की कथा के अनुसार, एक बार ब्रह्मा जी सुमेरु पर्वत पर बैठकर ध्यान मग्न थे। तभी देवता उनके पास आए और हाथ जोड़कर नमस्कार किया। उसके बाद पूछने लगे कि इस संसार में अविनाशी तत्व क्या है। जिसपर ब्रह्मा जी बोले कि मुझसे बढ़कर कोई भी नहीं है मुझसे ही संसार उत्पन्न हुआ है। मेरे ही कारण संसार प्रवृत और निवृत होता है। ब्रह्मा जी की ऐसी बातें सुनकर वहां बैठे विष्णु जी को बहुत बुरा लगा। तब वह ब्रह्मा जी को समझाते हुए बोले कि आप इस प्रकार अपनी प्रशंसा न करें। क्योंकि मेरी ही आज्ञा से आप सृष्टी के रचयिता हो। उसके बाद दोनों ही आपसे में खुद को उच्च सिद्ध करने के लिए वेदों का स्मरण किया। जिसके बाद उन्होंने चारों वेदों से अपनी श्रेष्ठता के संबंध में पूछा तब ऋग्वेद ने भगवान शिव का स्मरण करते हुए बोले हे ब्रह्मन! हे श्रीहरि! जिसके अंदर पूरा भू निहते हैं, वह एक भगवान शिव ही हैं। तब यजुर्वेद बोले कि उन परमेश्वर भगवान शिव की कृपा से ही वेदों की प्रामाणिकता भी सिद्ध होती है। उसके बाद सामवेद बोले कि जो समस्त संसार के लोगों को भरमाता है और जिनकी कांति से सारा विश्व प्रकाश मान होता है। वह त्र्यंबक महादेव जी है। वेदों की बात सुनकर ब्रह्मा और बोले हे वेदों तुम्हारे वचनों से सिर्फ तुम्हारी अज्ञानता ही झलकती है। भगवान शिव तो सदा अपने शरीर पर भस्म धारण करते हैं। उनके सिर पर जटा जूट व गले में रुद्राक्ष है। वे सांपों को भी धारण करते हैं। भला शिव को परम तत्व कैसे कहा जा सकता है, उन्हें परम ब्रह्म किस प्रकार माना जा सकता है, ब्रह्माजी और श्री हरि विष्णु के इन वचनों को सुनकर हर जगह मूर्त और अमूर्त रूप में विद्यमान रहने वाले ओंकार बोले कि भगवान शिव शक्ति धारी हैं। वहीं परमेश्वर हैं। तथा सबका कल्याण करने वाले हैं। वे महान लीलाधारी है और इस संसार में सब कुछ उनकी आज्ञा से ही होता है। लेकिन इसके बाद भी उनका विवाद खत्म नहीं हुआ और झगड़ा बढ़ता गया। ब्रह्मा और विष्णु का विवाद खत्म ही नहीं हो रहा था। तभी उन दोनों के बीच से एक विशाल ज्योति प्रकट हुई। जिसका न तो कोई आरंभ था ना ही कोई अंत, उस अग्नि से ब्रह्मा जी का पांचवा मुख जलने लगा, तभी भगवान शिव वहां प्रकट हुए, जिसके बाद ब्रह्मा जी ने शिवजी से कहा कि तुम मेरी शरण में आओ। मैं तुम्हारी रक्षा करुंगा। तुम मेरे सिर से ही प्रकट हुए थे और तुमने रोना आरंभ कर दिया था। जिससे मैरे तुम्हारा नाम रुद्र रखा था। ब्रह्मा जी की बाते सुनकर शिवजी को क्रोध आ गया और उनसे ही उनके रौद्र स्वरूप काल भैरव की उत्पत्ति हुई। काल भैरव ने घमंड में चूर ब्रह्म देव के जलते हुए सिर को काट दिया। इससे उन पर ब्रह्म हत्या का दोष लग गया। तब भगवान शिव ने उनको सभी तीर्थों का भ्रमण करने का सुझाव दिया। फिर वे वहां से तीर्थ यात्रा पर निकल गए। पृथ्वी पर सभी तीर्थों का भ्रमण करने के बाद काल भैरव शिव की नगरी काशी में पहुंचे। वहां पर वे ब्रह्म हत्या के दोष से मुक्त हो गए।

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