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नैनीताल

गिर्दा सलाम : ततुक नी लगा उदेख, घुनन मुनई नि टेक, जैंता एक दिन तो आलो उ दिन यो दुनी में….

गिर्दा सलाम  : ततुक नी लगा उदेख, घुनन मुनई नि टेक, जैंता एक दिन तो आलो उ दिन यो दुनी में
चन्द्रेक बिष्ट, नैनीताल।
गिरीश तिवारी ‘गिर्दा’ उत्तराखंड राज्य आंदोलन के दौर के ऐसे जनकवि रहे कि जिनके जनगीतों ने आंदोलन में जान फूंक दी थी। उत्तराखंड के इस जनकवि गिरीश चंद्र तिवारी “गिर्दा” का 22 अगस्त 2010 में बीमारी का चलते देहांत हो गया। जिस तरह से उन्होंने अपने गीतों, नाटकों,साहित्य और विचारों के माधयम से लोगो का मार्गदर्शन किया वाकई में उनका व्यक्तितीव बहुआयामी व विराट था। गिर्दा सिर्फ जनकवि नहीं थे बल्कि एक शानदार वक्ता भी थे। लयबद्ध तरीके से गाए गए उनके जनगीत बरबस ही सबको अपनी ओर खींच ले जाते थे. चिपको आंदोलन, नशामुक्ति आंदोलन, उत्तराखंड राज्य आंदोलन, नदी बचाओ आंदोलन आदि में गिर्दा सक्रिय रूप से भागीदार रहे। मूल रूप से अल्मोड़ा के ज्योली ग्राम के रहने वाले गिरीश तिवारी एक ऐसे गीतकार रचनाकार और प्रतिभा के धनी जनकवि थे जिन्होंने हमेशा से ही पहाड़ी लोगों के शोषण के विरुद्ध आवाज उठाई। इनका जन्म 10 सितंबर 1945 को अल्मोड़ा के  हवालबाग ब्लाक के ग्राम ज्योली में हुआ था। इनकी माता का नाम जीवंती तिवारी एवं पिता का नाम हंसा दत्त तिवारी था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा अल्मोड़ा एवं बाद की शिक्षा नैनीताल में हुई है। गिरीश तिवारी को सभी लोग गिर्दा कहकर बुलाते थे। उनमें जनता के प्रति कुछ करने की भावना और ललक बचपन से ही थी। वह एक सच्चे जन सेवक थे जो समय-समय पर पहाड़ी क्षेत्र में हो रहे शोषण के विरुद्ध सरकारी तंत्र से भिड़ने को लेकर हमेशा ही तैयार रहते थे। वह हर कार्य ईमानदारी से करते थे एवं जनता के लिए मर मिटने को भी तैयार रहते थे।शुरुआती काल में कई सरकारी विभागों में काम करने के बाद वह अपने उत्तराखंड और समाज की संस्कृति के लिए कार्य करने लगे और धीरे-धीरे वह कविताएं लिखने लगे। अपनी कविताओं के जरिए उन्होंने लोगों की पीड़ा को समाज के सामने व्यक्त किया और इन्हीं गीतों के जरिए उत्तराखंड में जगह जगह पर होने वाले आंदोलन में क्रांति की जान भी झोंकी। इनके कविताओं में न केवल जनमानस की पीड़ा बल्कि बार-बार किए गए सामाजिक संस्कृतिक परिवर्तन के लिए आंदोलनों जैसे कि चिपको आंदोलन, उत्तराखंड आंदोलन आदि आंदोलनों के लिए पीड़ा भी झलकती है ।इन्होंने अपने गीतों और गायकी के द्वारा इन जन आंदोलनों में लोगों का ध्यान आकर्षित किया जिससे लोगों के अंदर इन आंदोलनों के प्रति ज्वलंत जवालाये उठी थी। गिर्दा का शुरुआती जीवन बड़ा कठिन रहा है। जीविकोपार्जन के लिए उन्होंने अलीगढ़ में रिक्शा तक चलाया। वह शुरुआत में पीडब्ल्यूडी विभाग में कार्यरत थे जिसके लिए वह उत्तर प्रदेश के कुछ जिलों जैसे लखीमपुर खीरी, पीलीभीत इत्यादि जगहों भी रहे उस समय वह मात्र 22 वर्ष के थे। इसी समय इनकी मुलाकात कुछ ऐसे आंदोलनकारियों से हुई जिनके साथ रह कर वह जन आंदोलनों के प्रति इतने प्रभावित हुए कि 22 वर्ष की उम्र में उन्होंने अपना जीवन समाज के लिए समर्पित करने की ठान ली थी और वह रंगमंच कलाकार के साथ ही सामाजिक कार्यकर्ता और आंदोलनकारी बन गए। जिसके बाद उन्होंने लोगों के विरुद्ध होने वाले शोषण के खिलाफ अपने गानों के माध्यम से आवाज उठानी शुरू कर दी। कुछ समय तक जीविका के लिए काम करने के बाद 1967 में इन्होंने सरकार की गीत और नाटक प्रभाग में स्थाई नौकरी की शुरुआत की और लखनऊ में रहने के दौरान सुमित्रानंदन पंत ,निराला, ग़ालिब जैसे लेखकों और कवियों के गायकी और रचनाओं के अध्ययन करने के बाद 1968 में कुमाऊं की गलियों में अपना पहला संग्रह “शिखरों के स्वर” प्रकाशित किया। बाद में उन्होंने अंधेरी नगरी चौपट राजा, अंधा युग, धनुष यज्ञ जैसे कई नाटक भी लिखें। जनकवि और आंदोलनकारी गिर्दा बचपन से ही अपने माटी के प्रति संवेदनशील और कुमाऊं क्षेत्र के पर्वतीय आंचल के समस्याओं से रूबरू थे। जब उत्तराखंड में 80 के दशक में जगह-जगह आंदोलन होने लगे तो गिर्दा के हृदय से इन आंदोलनों के लिए संवेदनशील रचनाएं फूटने लगी। चिपको आंदोलन हो या वनों के नीलामी के विषय में आंदोलन हो या नशा मुक्ति आंदोलन हो सब में इन्होंने अपनी संवेदनशील रचनाओं से लोगों के अंदर ज्वाला और उग्र कर दी। इन्हीं आंदोलनों के बाद गिर्दा एक जनकवि के रूप में उभरने लगे। चिपको आंदोलन के दौरान जब पहाड़ों में जंगलों को काटने और लकड़ियों की नीलामी की बात आई तो गिर्दा ने आह्वान किया:
आज हिमाल तुमन के धत्यूंछौ
जागौ-जागौ हो म्यरा लाल
नी करण दियौ हमरी निलामी
नी करण दियौ हमरो हलाल

उत्तराखंड राज्य आंदोलन तेज हुआ तो गिर्दा के गीत भी उसी तेजी से आंदोलन की आवाज बने। जहाँ भी प्रदर्शन या आंदोलन होते वहाँ गिर्दा के गीतों की गूंज सुनाई पड़ती। राज्य की परिकल्पना को लेकर गिर्दा ने गीत लिखा और गाया:
ततुक नी लगा उदेख
घुनन मुनई नि टेक
जैंता एक दिन तो आलो उ दिन यो दुनी में
जैं दिन कठुलि रात ब्यालि
पौ फाटला, कौ कड़ालौ
जैंता एक दिन तो आलो उ दिन यो दुनी में
जै दिन चोर नी फलाल
कै कै जोर नी चलौल
जैंता एक दिन तो आलो उ दिन यो दुनी में

गिर्दा की कविताओं में सिर्फ तात्कालिक मुद्दे नहीं थे बल्कि भविष्य के गर्त में छिपी तमाम दुश्वारियाँ भी शुमार थी। गिर्दा शायद भाँप गए थे कि अलग राज्य बन जाने के बाद राज्य में लूट-खसोट मचेगी और राजधानी के नाम पर गैरसैंण को लटकाया जाता रहेगा। राज्य बनने से कुछ ही समय पहले इस बात को जनकविता का मुद्दा बनाकर उन्होंने लिखा:
कस होलो उत्तराखण्ड?
कां होली राजधानी?
राग-बागी यों आजि करला आपुणि मनमानी
यो बतौक खुली-खुलास गैरसैंण करुंलो
हम लड़ते रयां भुली, हम लड़ते रुंल

22 अगस्त 2010  को गिर्दा हम सब को छोड़ कर सदा के लिए दुनिया से विदा हो गए। राज्य की युवा पीढ़ी से अगर कोई पूछ ले कि गिरीश तिवारी गिर्दा को जानते हो तो शर्त के साथ कह सकता हूँ कुछ विरले ही होंगे जो गिर्दा और उनके जनगीतों से वाकिफ होंगे। भू-कानून को लेकर जिस तरह कुछ युवा सामने आए हैं उससे एक उम्मीद जरूर बंधती है लेकिन अपने राज्य व राज्य आंदोलनकारियों के सपने के उलट चल रहे उत्तराखंड को वास्तव में अगर पहाड़ोन्मुख, जनसरोकारी, पलायनविहीन, रोजगारयुक्त, शिक्षा-स्वास्थ्य युक्त बनाना है तो हमें गिर्दा जैसे आंदोलनकारियों को हर दिन पढ़ना व समझना होगा और उसी हिसाब से अपनी सरकारों से माँग करनी होगी। तब जाकर कहीं हमारे सपनों का उत्तराखंड धरातल पर नजर आएगा। यही संकल्प गिर्दा को दिल से याद करने के लिए होगा।

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