नैनीताल
राज्य आन्दोलनकारी क्रान्तिकारी मोर्चा ने खटीमा के शहीदों को दी श्रद्धांजलि
राज्य आन्दोलनकारी क्रान्तिकारी मोर्चा ने खटीमा के शहीदों को दी श्रद्धांजलि
सीएन, नैनीताल। शुक्रवार को उत्तराखंड राज्य के लिए एक सितंबर 1994 को शहीद हुए आंदोलनकारियों की याद में 28 वां शहीद दिवस मनाया गया। उत्तराखंड राज्य निर्माण की मांग को लेकर खटीमा में आंदोलनकारियों पर गोलीकांड हुआ था जिसकी 28 वीं बरसी के पर के अवसर पर तल्लीताल गांधी प्रतिमा पार्क में शहीदों की याद में एक कार्यक्रम का आयोजन किया इस मौके पर उत्तराखंड आन्दोलनकारी नैनीताल पहुंचे और उन्होंने शहीदों को श्रद्धा सुमन अर्पित किए। इस अवसर पर वक्ताओं ने कहा कि अलग राज्य का सपना आंदोलनकारियों की शहादत से पूरा तो हुआ लेकिन राज्य गठन से पूर्व देखे गए सपने धरे के धरे रह गए। राज्य में अराजकता, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, महंगाई, बेरोजगारी, पलायन, अफसरशाही, राजशाही, भूमि विवाद, प्राधिकरण जैसे मुद्दे आज भी पहले की ही तरह हावी है। जहाँ पलायन आज भी एक बड़ी समस्या बना हुआ है तो वहीँ राज्य आज भी अपनी मूलभूत सुविधाओं के लिए भटक रहा है। इस दौरान पूर्व विधायक नारायण सिंह जंन्तवाल, पान सिंह नेगी, मोहन पाठक, हरगोविंद रावत, तारा सिंह बिष्ट, हेमलता तिवारी, लीला बोरा, गणेश बिष्ट, कंचन चंदौला, हरेन्द्र सिंह बिष्ट, रईस भाई, महेश कनवाल, भुवन सिंह, महेश जोशी, इन्दर नेगी मौजूद थे। उन्होंने शहीदों को श्रद्धांजलि की और उन्हें याद किया। इधर चिन्हित राज्य आंदोलनकारी संयुक्त समिति के केंद्रीय संयोजक व पूर्व राज्य मंत्री मनीष कुमार ने कहा कि आज उत्तराखंड के इतिहास का सबसे बड़ा काला दिन है। 1 सितंबर 1994 को खटीमा गोलीकांड हुआ था और निहत्थे राज्य आंदोलनकारी शहीद हुए थे और इन्हीं शहीदों की शहादत को आज कचहरी स्थित शहीद स्थल में जाकर राज्य आंदोलनकारियों ने अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि व श्रद्धा सुमन अर्पित किए। खटीमा में एक सितंबर को जिस प्रकार से बर्बरता पूर्वक आंदोलन को कुचलने का प्रयास किया गया उसकी जितनी भी निंदा की जाए कम है। मालूम हो कि वर्ष 1994 के सितंबर महीने की पहली तारीख को जब उत्तराखंड राज्य की मांग को लेकर सुबह से हजारों की संख्या में लोग खटीमा की सड़कों पर आ गए थे। इस दौरान ऐतिहासिक रामलीला मैदान में जनसभा हुई, जिसमें बच्चे, बुजुर्ग, महिलाएं और बड़ी संख्या में पूर्व सैनिक शामिल थे। उनकी शांतिपूर्ण आवाज दबाने के लिए पुलिस ने बर्बरता की सारी हदें पार करते हुए निहत्थे उत्तराखंडियों पर गोली चलाई थी, परिणामस्वरूप प्रताप सिंह मनोला, धर्मानंद भट्ट, भगवान सिंह सिरौला, गोपी चंद, रामपाल, परमजीत और सलीम शहीद हो गए और सैकड़ों लोग घायल हुए थे। जिसके बाद ही उत्तराखंड आंदोलन ने रफ़्तार पकड़ी और इसी के परिणाम स्वरुप अगले दिन यानी दो सितम्बर को मसूरी गोली काण्ड की पुनरावृति हुई और यह आंदोलन तब एक बड़े जन आंदोलन के रूप में बदल गया।
