पिथौरागढ़
जनपद पिथौरागढ़ यानि सोर घाटी में कभी.कभी क्यों दिखाई देते हैं कछुए
जनपद पिथौरागढ़ यानि सोर घाटी में कभी.कभी क्यों दिखाई देते हैं कछुए
मनु डफाली, पिथौरागढ़। सोर घाटी के जाखनी गांव में कुछ दिन पहले एक कछुआ मिला है. जाखनी में मिला यह कछुआ Indian flapshell turtle (Lissemys punctate) प्रजाति का है. यह प्रजाति अमूमन गर्म और निचले तराई के इलाकों में पाई जाती है. फिर सवाल है यह कछुआ सोर घाटी के जाखनी गांव में क्या कर रहा है? चलिए जानने और समझने की कोशिश करते हैं. कुछ 30 साल पहले भी जाखनी, जहां मेरा पूरा बचपन बीता है, में एक और कछुआ मिला था. कौन सी प्रजाति का और किस वर्ष में, यह सही से तो बता पाना मेरे लिए संभव नहीं पर कछुआ मिला जरूर था. फिर ऐसे ही थल-मुवानी में भी किसी को एक खेत में कछुआ मिला था और ये जानकारी मुझे एक स्थानीय अखबार से मिली थी. आम तौर पर हिमालय की गरम घाटियों को छोड़ दें तो यहाँ कछुए नहीं पाए जाते हैं. तो फिर ये कछुआ देखे जाने की घटनायें कैसे संभव होती हैं? दरअसल यह लोगों द्वारा छोड़े गए वह जीव होते हैं जिनको लोग तराई के किसी इलाके से पकड़ कर ले आये होते हैं या लोगों ने इन जीवों को किसी से अवैध रूप से खरीदा होता है. जब लोग इन्हें पाल नहीं पाते या कोई इनको बताता है कि इनको पालना अवैध है तो लोग इनको ऐसे ही छोड़ देते हैं और फिर ये अचानक से इधर-उधर दिखने लगते हैं. पालने से याद आया एक बार हमारी हरेला सोसाइटी में भी कोई टनकपुर से रोड साइड में चल रहे एक Tricarinate Hill Turtle (Melanochelys tricarinata) को उठा लाया था. हमने उसे तुरंत ही वन विभाग को सौंप दिया था और वापस टनकपुर छुड़वाने के लिए कहा. हालांकि मुझे बाद में पता चला कि फारेस्ट वालों ने तेल बचाने के चक्कर ने उसे घाट क्षेत्र से लगे साल के जंगल में ही छोड़ दिया. जो वैसे तो बुरा फैसला नहीं था क्यूँकि ये कछुआ कुछ अन्य प्रजातियों की तरह, साल के जंगलों में भी रहता है. जी हाँ, कछुवों की कुछ प्रजातियाँ, जंगलों, यहाँ तक कि रेगिस्तान में भी पायी जाती हैं. यह इनका नेचुरल हैबिटैट हुआ. और ये हमेशा ही सबसे बेहतर होता है कि जो जहाँ से आया है उसको वहीं वापस छोड़ दिया जाए पूरी इज्जत के साथ. तो अब शायद आप समझ गए होंगे कि ये कछुए कैसे और क्यूँ पहाड़ों में दिखाई पड़ते हैं. अब अगर कभी अचानक से घाट के पास कोई कछुआ दिखे तो चौंकिए नहीं और न ही उसे परेशान करें. वैसे अवैध तस्करी भी इस प्रकार की घटना का एक कोण है, लेकिन उसको लेकर मेरे पास कोई आंकड़ा या घटना अभी नहीं है. क्या यह बढ़ते तापमान और ग्लोबल क्लाइमेट चेंज के असर के चलते यहां दिखने लगे हैं, इसको लेकर भी मेरे पास कोई आंकड़ा या ऑब्जरवेशन नहीं है. लेकिन हाँ, तापमान जरूर ही सरीसृपों के जीवन में एक अहम् भूमिका निभाता है और अगर इस सब के पीछे पर्यावरण में होने वाले बदलाव शामिल हैं तो फिर यह गहन शोध का विषय है.यहां यह ध्यान देने की बात है कि भारत में पाए जाने वाली किसी भी देसी कछुए की प्रजाति को पालना कानून अपराध है. आपको सजा और जुर्माना दोनों हो सकते है. कुछ एक्वेरियम शॉप वाले कछुओं की कुछ विदेशी/बाहरी प्रजातियां जरूर बेचते हैं जैसे कि Red Eared Slider (Trachemys scripta elegans) जो कि वास्तव में अमेरिका और मेक्सिको का रहने वाला है. ऐसे में मेरी व्यक्तिगत सलाह होगी कि पहले तो आप उन्हें खरीदें नहीं और अगर किसी कारण से ले ही आये हैं तो उस प्रजाति से संबंधित पूरी जानकारी रखें और उसकी पूरी जिम्मेदारी ले. यही आपके किसी जानने वाले के पास ऐसा कोई कछुआ हो तो उसे भी यह जानकारी साझा करें क्यूंकि अक्सर देखने मे आता है कि जब लोग ऐसी विदेशी/बाहरी प्रजातियों को पाल नहीं पाते तो वह इन्हें नजदीकी तालाब या नदी में यह सोच कर छोड़ देते हैं की चलो हमने इसे वापिस इसके घर में छोड़ दिया, यह यहाँ खुश रहेगा. लेकिन ऐसा सोचना और करना पूरी तरह गलत है.सबसे पहले तो यह कि वह बड़ी आसानी से किसी अन्य जानवर का शिकार बन सकता है या फिर इन्फेक्शन और तापमान में आये बदलावों के कारण आसानी से मर सकता है. लेकिन कुछ प्रजातियां ऐसी भी होती हैं जो खुद में ही सबसे बड़ा खतरा होती हैं ये जीव स्थानीय प्रजातियों से संघर्ष कर, इन पर हावी होने लगते हैं, जिससे स्थानीय प्रजातियों की संख्या उनके अस्तित्व और उस पूरे पारिस्थितिकी तंत्र पर खतरा आ जाता है.ठीक ऐसा ही तब भी होता है जब हम किसी मछली को बिना सोचे समझे जल धाराओं में छोड़ देते हैं. और यही तब भी होता है जब हम कोई बाहरी पौधा या उसके बीजों को अज्ञानता के चलते यहां-वहां फेंक देते हैं. पिथौरागढ़ में ऐसे कई पौधे अभी हमारे घरों में फलफूल रहे हैं. काफल ट्री से साभार