पिथौरागढ़
यात्रा वृतांत : बहुत दूर दारमा घाटी के गो गाँव में फिल्म खलनायक
यात्रा वृतांत : बहुत दूर दारमा घाटी के गो गाँव में फिल्म खलनायक
विनोद उप्रेती, पिथौरागढ़। आठ दिन हो गए बारिश को. बीच में आधे दिन के लिए रुकी थी पर तीन दिन से तो एक मिनट के लिए भी आसमान ने आराम नहीं किया. सुबह तिदांग से मारछा को निकल तो गए लेकिन लसर यांगती पर बने पुल को देखकर हवा टाइट हो गयी. नीचे तूफ़ान सी गरजती यान्गती और ऊपर एक तरफ झुका लकड़ी का पुल जो बारिश से भीग कर फिसलन भरा. तय किया कि एक साथ पार नहीं करेंगे. कुछ हो भी गया तो एक तो घर वापस जायेगा. मैंने पार किया तब तक सुनील रुका रहा. कांपते पैरों से मैं पार हुआ तब उसने पार किया. सिपू से वापस आते-आते दोपहर ढल चुकी थी. तिदांग में कुछ जरुरी जानकारियां जुटाने के बाद रुकना व्यर्थ लगा तो वापसी का सफ़र धौली के दूसरी तरफ से गावों गो, फिलम और बौन से होते हुए करने की ठानी. तिदांग से सीपू और वापस तिदांग आने तक पेट में कोई दाना भी नहीं गया था. तिदांग में अभी उसकी उम्मीद भी नहीं दिख रही थी. हम अपने रकसेक बाँध निकल पड़े दारमा से वापसी के सफ़र पर. यहाँ से खड़ी चढ़ाई पार कर आईटीबीपी कैम्प में पंहुचे तो पेट की आग को शांत करने की व्यवस्था हुई. थाली भरकर भात भकोसने के बाद हम लगभग सुने पड़ चुके गाँव ढाकर में कुछ देर रुके और फिर आगे चलकर धौली को पार कर पंहुचे अपने आज के पड़ाव गो तक. गो छोटा और बेहद खूबसूरत गाँव है. इससे पहले मैं यहाँ आ चुका था. लेकिन इस बार यहाँ एक पंचायत भवन बन गया था. गाँव के सरपंच और कुछ युवा हमें पहले मिल चुके थे. यहाँ हमारा बहुत आत्मीय स्वागत हुआ और हमारे रहने की व्यवस्था पंचायत भवन में की गयी. हालाँकि हमारे पास अच्छे मैट्रस और स्लीपिंग बैग थे लेकिन इनकी यहाँ जरूरत नही पड़ी. हमारे लिए खूब बढ़िया गद्दे और रजाइयां डाल दी गयी. पंचायत भवन में एक बड़ा सा रंगीन टीवी और टाटा स्काई लगा था. गाँव के लोग मिलजुलकर इसे रिचार्ज करते और शाम को तीन चार घंटे मिलकर कोई फिल्म देखते. जेनरेटर के लिए तेल की व्यवस्था बारी-बारी हर परिवार को करनी होती. पंचायत भवन बहुत से सामान से भरा पड़ा था. पचास लोगों के लिए तो बिस्तर ही होगा. बड़े बर्तन, दरियां, लाउडस्पीकर, आदि चीजें करीने से रखी गयी थी. रोशनी के लिए सोलर लाइट अलग से. शाम होते-होते पूरे गाँव के लोग यहाँ जुटने लगे और शुरू हुआ टीवी पर सिनेमा और आज की फिल्म थी खलनायक. सामने दरी पर छोटे बच्चे और उनकी माताएं बैठी थी तो पीछे खाटों में अधिकांश पुरुष. एक दो कुर्सियां भी निकली थी जिनमें कुछ नौजवान बैठे थे. फिल्म में गुलशन ग्रोवर एक पुलिस वाला बना था और गोलगप्पे खाते हुए बार बार एक डायलॉग मारता – जिंदगी का मजा तो खट्टे में है. इतने दिनों से हम बारिश में दारमा घाटी में घूम रहे थे. न कोई बर्फीला पहाड़ दिखा अब तक न धूप में बुग्याल में पसरने का आनंद. यही सब सपने दिखाकर मैं सुनील को यहाँ लेकर आया था. लेकिन मौसम ने झंड लगा दी थी. आज बहुत दिनों बाद कपास के बिस्तर में दुबक कर हम ऐसे समय पास कर रहे थे. वरना बाकी दिन ऊबते हुए सीप ही खेला. खट्टे का जो मजा गुलशन ग्रोवर ने बताया उसका ऐसा असर हुआ कि दो दिन बाद जब हम धारचूला पंहुचे तो पहला काम किया. गाँधीजी की मूर्ति के सामने छक कर गोलगप्पे खाए.
काफल ट्री से साभार