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धर्मक्षेत्र

ग्रामीणों ने कैलु पाऊ जंगल अब कोकिला मैय्या को समर्पित किया

पाताल भुवनेश्वर (पिथौरागढ़)। जंगल को बचानें व पर्यावरण की रक्षा के लिए पाताल भुवनेश्वर वन पंचायत ने भगवान भुवनेश्वर की परिधि में आनें वाला जंगल माता कोकिला देवी को पाँच वर्ष के लिए समर्पित कर दिया है पूर्ण विधि विधान के साथ देवी को अर्पित वन में माता की मंगल पट्टिका चुनरी बांधकर देवी के जयकारे के साथ ग्रामीणों ने समर्पण का भाव प्रकट किया। सरपंच राम सिंह ने जानकारी देते हुए बताया कि कैलु पाऊ टाइगर हिल जंगल अब कोकिला मैय्या अर्थात् कोटगाड़ी देवी को समर्पित किया। उन्होनें कहा कि जंगल की रक्षा व हरियाली पानी के स्रोतों को पुर्नजीवित करनें के उद्देश्य से यह कार्य किया गया है। देवी को वन अर्पित करनें के भव्य आध्यात्मिक कार्यक्रम में पाताल भुवनेश्वर मंदिर कमेटी के अध्यक्ष नीलम भण्डारी, जगत सिंह रावल, मनोहर सिंह सहित तमाम ग्रामीण जन मौजूद रहे। इस अवसर पर वक्ताओं ने कहा हमारे धर्म शास्त्रों वृक्षों की महिमा व वृक्षारोपण के महत्व को बेहद सुंदर तरीके से समझाया है। गीता में भगवान श्री कृष्ण ने वृक्षों के महत्व को समझाते हुए कहा कि मैं वृक्षों में पीपल हूं। मत्स्य पुराण में भी वृक्षों की विराट महिमा कही गई है। किस वृक्ष को लगाने से कौन सा फल प्राप्त होता है इस विषय में भी पुराणों ने विस्तार के साथ चर्चा की है। वृक्षों की महिमा का अद्भुत बखान करते हुए कहा गया है कि दस कुओं के बराबर एक बावड़ी, दस बावड़ियों के बराबर एक तालाब, दस तालाबों के बराबर एक पुत्र, और दस पुत्रों के बराबर एक वृक्ष होता है। कहीं-कहीं तो एक वृक्ष सौ पुत्रों के समान कहा गया है। उल्लेखनीय है कि जीवन का सारा खेल ही जंगलों (वनों) को लेकर है। जिस प्रकार एक-एक सांस को मोहताज मरीज के प्राण जैसे आक्सीजन सिलैन्डर पर टिके रहते हैं उसी तरह यह जीवन जंगल पर टिका है। लेकिन हमारी तेज होती व्यवसायिक सोच और मुनाफे की प्रवृत्ति ने हमें मानव से दानव बना डाला है। हवा-पानी में बदलाव के अलावा विलुप्त होती अनमोल वन सम्पदाएं और मौसम के बदलते तेवर हमारे शरीर की घटती कूवत बढ़ती बीमारियां, दम तोड़ती संवेदनाएं तथा संस्कृति व संस्कारों में आ रहा बदलाव इसी की परिणति है। यह हमारी खुशनसीबी है कि तमाम तरह के बदलावों के बावजूद प्रकृति से रिश्ता बनाये रखने वाले हमारे पारम्परिक रीत-रिवाजों के चलते ही प्रदेश में अब तक वनों का वजूद कायम है। खासतौर पर अपने उत्तराखण्ड जैसा प्रकृति की सहजता वाला समाज जहां आजीविका का बड़ा हिस्सा आज भी पानी, ईधन, चाय आदि वन उत्पादों के रूप में जुटता है, में प्राकृतिक संसाधनों के इस्तेमाल और रखरखाव की अनेक परम्परागत विधियां अस्तित्व में हैं। इन्हीं में से एक अनूठी प्रथा वन क्षेत्र देवताओं को अर्पित कर देने की है। वनों के आस-पास बसे देश के विभिन्न भागों और यूरोप के पुराने चरवाहे समाजों में प्रचलित ‘सेक्रेट ग्रूब्स’ (पवित्र कुंज) से मिलती जुलती यह परम्परा विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग नामों से विख्यात है। देव वनों की इस प्रथा में वनों के अत्यधिक दोहन से उपजे संकट के प्रति ग्रामीणों का पश्चाताप और अन्य गावों के लोगों से अपने वन क्षेत्र को बचाने की चिन्ता का भाव दृष्टिगोचर होता है, जो वन क्षेत्रों के दोहन की भरपाई होने या कभी-कभी उससे भी लम्बे समय तक जारी रहता है। वनों की इस अनूठी प्रथा में वन क्षेत्र ऐसे लोक देवता को अर्पित किया जाता है, लोकमानस मेें जिसकी छवि न्यायकारी और अन्याय करने वाले का अनिष्ट कर देने की होती है। कुमाऊं मण्डल के ज्यादातर क्षेत्रों में ऐसे वन लोकदेवी कोटगाड़ी और लोकदेव गंगानाथ तथा गोलज्यू को अर्पित किये गये हैं। इन तीनों लोक देवताओं की छवि अन्याय करने वाले को कड़ा दंड देने की है। यह बंधन इतना बाध्यकारी है कि कठोर कानून और वन विभाग का भारी लाव-लश्कर भी ग्रामीणों के मन में इतना डर पैदा नहीं कर पाता। एक बार अर्पित कर दिये जाने के बाद वन क्षेत्र में वह सभी गतिविधियां स्वतः बंद होती हैं, जिनका ग्रामीणों ने आपसी सहमति के आधार पर वन अर्पित करते समय निषेध कर दिया हो। जैसे वन क्षेत्रों में कुल्हाड़ी चलाना बंद हो जाए पर पालतू पशुओं की चराई खुली रहे या गिरी-पड़ी लकड़ी उठाने की मनाही न हो, पर वन्य जीवों का शिकार करना वर्जित हो। अनेक स्थानों पर ऐसे वन क्षेत्र में प्रवेश करने तक की मनाही होती है।
देवता को अर्पित कर दिये गये वन क्षेत्र में प्रवेश करने के रास्तों और सीमा पर लाल, हरे, पीले चटक रंगों के कपड़े के झण्डे पेड़ों पर लगा दिये जाते हैं जो इस बात का प्रतीक है कि अर्पित कर दिये गये वन की सीमा शुरू हो चुकी है। आरक्षित तथा पंचायती वनों की अपेक्षा देव वन क्षेत्र के रखरखाव में कोई खर्च नहीं होता। देव वन की सुरक्षा के लिए चौकीदार की जरूरत नहीं होती। वन क्षेत्रों में लागू किये गये नियमों का उल्लंघन करने पर देवता के प्रकोप का खौफ ही चौकीदारी का कार्य करता है। आमतौर पर ऐसा वन क्षेत्र ही लोकदेवता को अर्पित किया जाता है। जो अत्यधिक दोहन के कारण रूग्ण हालत में पहुंच चुका हो और ग्रामीणों की आवश्यकताओं का दबाव वहन करने में सक्षम न रह गया हो। जब तक वन क्षेत्र में दोहन की भरपाई नहीं हो जाती तब तक किसी भी वन उत्पाद को लेने की मनाही होती है। पुराना स्वरूप वापस लौटने के बाद वन क्षेत्र को पुनः उपयोग के लिए खोल दिया जाता है। देवता को अर्पित कर दिये गये वन क्षेत्र में मानव हस्तक्षेप समाप्त हो जाने के कारण हरियाली और जैव विविधता की भरपाई अत्यंत तेजी से होती है, लेकिन सम्बंधित वन क्षेत्र पर निर्भर ग्रामीण आजीविका के वैकल्पिक उपाय चुनने को मजबूर हो जाते हैं। पिथौरागढ़ जिले की गंगोलीहाट तहसील में चिटगल, फरसिल, चौटियार, मणकनाली, कोठेरा, जाखनी, धौलेत व कनालीछीना का देवथल, जागेश्वर में पुलाई आदि गांवों में एक के बाद एक अनेक पंचायती व स्थानीय वन पिछले आठ दस वर्षों के भीतर लोकदेवताओं को अर्पित कर दिये गये थे इससे इन क्षेत्रों में भीतर में हरियाली तो लौट आयी। अब इस बार पाताल भुवनेश्वर वासियों ने देवी कोटगाड़ी को वन अर्पित करके प्राकृतिक संरक्षण का सुन्दर संदेश दिया है।

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