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पर्यावरण

जान स्टेट : स्मेटाचेक परिवार की कहानी केवल एक परिवार के संघर्ष, साहस व प्रकृति-प्रेम की कहानी नहीं बल्कि जंगलों को समझने की कहानी

सीएन, नैनीताल। जनपद नैनीताल के भीमताल और सातताल के बीच बसे एक इलाके -जॉन स्टेट में। यह कोई औपनिवेशिक अंग्रेजी बंगला या सैन्य छावनी नहीं, बल्कि यह उस व्यक्ति की कहानी है जिसने एक समय हिटलर को मारने की योजना बनाई थी, पर आज वह वन संरक्षण और तितलियों के अध्ययन के लिए जाना जाता है। यह कहानी है फ्रेडरिक स्मेटाचेक और उनके पुत्र पीटर स्मेटाचेक की, जो चेकोस्लोवाकिया (अब चेक गणराज्य) से संबंध रखते हैं। फ्रेडरिक वन अधिकारी बनना नहीं चाहते थे, उन्होंने समुद्री जीवन को चुना और जीवन उन्हें चिली से होते हुए यूरोप वापस ले आया — एक आखिरी शिकार के निमंत्रण पर। लेकिन जब वे अपने पिता से मिलने अपने देश लौटे, तो पाया कि हिटलर की नाजी सेना ने उनका क्षेत्र— सुडेटनलैंड घेर लिया है। हिटलर के अधीन हो चुके उस क्षेत्र में फ्रेडरिक ने अपने कुछ साथियों के साथ तानाशाही का विरोध किया और हिटलर की ट्रेन को उड़ाने की साजिश रची। योजना विफल हुई, उनके साथी पकड़े गए और अंततः हिटलर के सैनिकों द्वारा मार डाले गए, लेकिन वे किसी तरह भाग निकले। जर्मन गुप्तचर समझ रहे थे कि वह रूस भागेंगे, लेकिन फ्रेडरिक उलटे जर्मनी के भीतर हैमबर्ग पहुंच गए। वहीं से एक जहाज में चुपके से चढ़कर भारत के कोलकाता (तब कलकत्ता) पहुंचे। उनके पास सिर्फ चार रुपये थे, भाषा का ज्ञान नहीं था, और कोई पहचान नहीं। लेकिन सौभाग्य से बाटा शू कंपनी, जो चेक मूल की थी, कोलकाता में हाल ही में शुरू हुई थी। वहीं उन्हें सहारा मिला। धीरे-धीरे अंग्रेज़ी और बंगाली सीखी और अपना अस्तित्व खड़ा किया। भारत विभाजन और द्वितीय विश्व युद्ध के बाद फ्रेडरिक ने तय किया कि वह अपने बच्चों को प्राकृतिक परिवेश में पालेंगे — जैसे उनका बचपन बीता। 1951 में उन्होंने नेपाल के राणा परिवार और बलरामपुर की महारानी के साथ मिलकर जॉन स्टेट नामक पहाड़ी क्षेत्र में एक बड़ा भूखंड खरीदा, जिसमें पुराना चाय बागान और सघन जंगल थे। यहीं उन्होंने जंगल को दोबारा संवारने का प्रयास शुरू किया। उन्होंने एक नियम बनाया जिसके तहत बांज के पेड़ की पत्तियां काटना वर्जित था। यही नियम आगे चलकर उत्तराखंड के वनों की सुरक्षा नीति का हिस्सा बन गया। उन्होंने यह भी तय किया कि उनके मकान और गांव के बीच की भूमि में कोई पशु न चराए और न कोई मानवीय हस्तक्षेप हो। परिणामस्वरूप, वहां अपने आप जंगल उग आया — जो आज घना वन क्षेत्र बन चुका है। साल 1984 में लगी भीषण जंगल की आग ने फ्रेडरिक को यह समझने पर विवश किया कि बांज का जंगल न केवल छाया देता है, बल्कि पहाड़ों के प्राकृतिक जल स्रोतों को भी पोषण देता है। आग लगने के बाद एक धारा मौसमी बन गई, जबकि पहले वह बारहमासी थी। तब फ्रेडरिक और उनके पुत्र पीटर को समझ आया कि कैनोपी यानी पेड़ों की छांव ही जल संरक्षण की जड़ है। पीटर स्मेटाचेक, जो आज देश के सबसे बड़े निजी तितली संग्रहकर्ता हैं, बचपन से ही तितलियों की दुनिया में रम गए। उन्होंने हजारों तितलियां न सिर्फ इकट्ठा कीं, बल्कि उनके व्यवहार, उनकी मौसम और वन पर निर्भरता को भी गहराई से समझा। वह केवल सुंदर प्राणी नहीं हैं, वे जंगल के स्वास्थ्य की संकेतक (बायो-इंडिकेटर) हैं। उदाहरण के लिए, एक खास तितली जो सूखे पत्ते जैसी दिखती है, केवल वहीं पाई जाती है जहां बांज जैसे पेड़ों की छाया में नुकीले पत्तों वाले वृक्ष हों। यदि वह तितली किसी जंगल में नहीं मिलती, तो यह समझा जा सकता है कि वहां अब वह प्राकृतिक घनत्व नहीं बचा जो होना चाहिए। पीटर स्मेटाचेक जंगल को एक शहर की तरह समझते हैं। जैसे एक शहर में अलग-अलग इलाके होते हैं — बाजार, आवासीय क्षेत्र, कारखाने — वैसे ही जंगल के भीतर भी विभिन्न जीवन-तंत्र होते हैं। और तितलियां इस जीवन-तंत्र की भाषा हैं, जिन्हें समझकर हम पूरे जंगल की सेहत को आंक सकते हैं। गंगा की पौराणिक कथा में भगवान शिव की जटाओं का ज़िक्र है, जिन्होंने गंगा के वेग को रोका। पीटर के अनुसार यह जटाएं प्रतीक हैं हिमालय के सघन जंगलों की। अगर ये घने जंगल — जटाएं — न हों तो गंगा जैसा वेगवती जल जीवन को तबाह कर दे। यही कारण है कि बांज जैसे पेड़, जिनकी छाया घनी होती है, जल संरक्षण में केंद्रीय भूमिका निभाते हैं। जॉन स्टेट, फ्रेडरिक स्मेटाचेक और पीटर स्मेटाचेक की यह कहानी केवल एक परिवार के संघर्ष, साहस और प्रकृति-प्रेम की कहानी नहीं है, बल्कि यह उत्तराखंड और पूरे भारत के लिए एक चेतावनी और समाधान दोनों प्रस्तुत करती है — कि अगर जंगल बचाना है, नदियां बचानी हैं, गांवों के जल स्रोतों को पुनर्जीवित करना है, तो हमें जंगलों को “समझना” पड़ेगा, महज उगाना नहीं। और इस समझ की चाबी हमारे पैरों के नीचे उड़ती तितलियों के पंखों में छिपी है।

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