स्वास्थ्य
पहाड़ी सिसूण अर्थात बिच्छू घास की कथा : स्वास्थ्य के लिए बिच्छू घास बहुत ही उपयोगी
.सिसूण अर्थात बिच्छू घास की कथा: स्वास्थ्य के लिए बिच्छू घास बहुत ही उपयोगी पाई गई
उमेश चन्द्र शाह, नैनीताल। मध्य हिमालय के उत्तराखंड में बसा पौराणिक मानसखंड कुमाऊं मंडल तथा केदारखंड गढ़वाल मंडल जो अब उत्तराखंड के नाम से जाना जाता है अपनी प्राकृतिक वन सम्पदा के लिये देश-विदेश में सदियों से प्रसिद्ध रहा है। यहां कि समस्त वनस्पति जड़ी-बूटियां प्राचीन काल से ही मानव तथा जीव.जंतुओं की सेवा करती आ रही है। इनमें से बिच्छू घास बहुत ही उपयोगी पाई गई है। सिसुणा बिच्छू घास को संस्कृत में वृश्चिक, हिन्दी में बिच्छू घास, बिच्छू पान एवं बिच्छू बूटी कहते हैं। सिसुणा को गढ़वाल में कनाली-झिरकाडाली, अंग्रेजी में नीटिल प्लांट तथा लेटिन में अर्टिका कहते हैं। नेपाली में डाली, मराठी में मांसी खजानी व पंजाबी में अजल-धवल कहते हैं। इसके पत्ते सिर दर्द में और इसका क्वाथ बुखार में दिया जाता है। उत्तराखंड में जब बच्चे अपनी शैतानी से बाज नहीं आते हैं तो उनकी मां गुस्से में कहती है-तेर मनसा सिसूंण खांड़क ऐ रे, अपनी मां का यह वाक्य सुन बच्चे बिच्छू के डंक की तीव्र वेदन का भय से अपनी शैतानी तुरंत बंद कर शरीफ बच्चे बन जाते हैं। कनाली.सिसुणा में फार्मिक एसिड, लैसोविन, अमोनिया, कार्बोनिक ऐसिड और जंलास होता ह। संग्राहक-शामक.संकाचक-रक्त विकार नाशक-मूत्रल तथा रक्त पित्त हर है। इसकी सूखी पत्ती का चूर्ण चार रत्ती मात्रा आग में डाल धुंए को सूंघने तथा नासिका द्वारा अंदर खींचने से श्वास एवं फुफ्मफस रोगों में लाभ होता है। प्रसव के बाद यदि दूध की मात्रा कम हो तो सिसूंण के पंचाग बना कर दो ओंस तक पीने से दूध की मात्रा बढ़ जाती है। फुंसी-मसूरिका-फफोला आदि रोगों में किया जाता है। फीवर में इसके उपयोग से लाभ होता है। मोच या चोट के कारण आयी सूजन व हड्डी के हटने तथा उसमें दरार आने पर इसको प्लास्टर के रूप में उपयोग करते हैं। वात रोग में भी इससे लाभ होता है। दूर.दराज के क्षेत्रों में स्थानीय लोग इसके रेसे से रस्सी, थैले, कुथले तथा पहनने हेतु वस्त्र बनाते हैं। इसके बीजों से ये लोग अपना खाना बनाने हेतु तेल प्राप्त करते हैं। बिच्छू घास का उपयोग आयुर्वेदिक, यूनानी, एलोपैथी तथा होम्योपैथी की बहुमूल्य औषधि बनाने में काम आता है। विदेशों में इसके कोमल पत्तों से हर्बल टी बनायी जाती है। होम्योपैथी में यूरोपीय जाति अर्टिगा वुरैन्स से मदर टिंचर तैयार किया जाता है। इसका उपयोग जरायु से रक्तस्राव होना, स्वेत प्रदर में खुजलाहट डसने का सा दर्द, स्तन से दूध निकलते रहना, स्तनों में कड़ापन अथवा सूजन आ जाने एवं वात रोगों में होम्योपैथी की दवा 30 से 200 की शक्ती में देने से लाभ होता है। इस बूटी से तैयार हेयर.टॉनिक बालों को गिरने से रोकता है और उनको चमकीला एवं मुलायम बनाता है। जब उत्तराखंड में ग्रीष्म काल में चारे की कमी होती है तो उत्तराखंड की कर्मठ महिला अपने दुधारू पशुओं को बिच्छू घास खिलाती हैं इससे दुधारू पशु ज्यादा दूध देते हैं। उत्तराखंड तथा पड़ोसी देश नेपाल एवं तिब्बत के ग्रामीण निवासी इसके स्वादिष्ट सब्जी को मंडवे की रोटी के साथ बड़े चाव से खाते हैं और इस तरह उन्हें इसके औषधीय गुणों का लाभ भी स्वतः मिल जाता है जाड़े के मौसम में उत्तराखंड वासी सिंसूण के साग तथा मड़वे की रोटी को बड़ा महत्व देते हैं। इसकी भाजी बनाने की विधि इस प्रकार है. इसके कोमल कोपलों को तोड़ कर स्वच्छ जल में उबालते हैं। तत्पश्चात जब जल ठंडा हो जाता है तब इन उबली हुई कोपलों को हाथ से मसल व निचोड़ कर सिल पर पीस लेते हैं। इसके साथ उड़द, कुल्थी, रैस, लोबिया आदि की पिट्ठी मिला कर कढ़ाई में घी के साथ हींग का छौंक देकर इसकी स्वादिष्ट रसदार तरकारी बना लेते हैं। यह साग उदर विकार जलोदर तथा श्वास कांस के रोगियों के लिये बड़ा लाभकारी हैण् ध्यान रहे इस साग का उपयोग प्रमेह, प्रदर, अतिसार, पित्त तथा प्रसूति रोगियों को नहीं करना चाहिये। कनाली के सूखे पत्तों को फांट बना कर चाय की तरह पीने से कफ जन्य ज्वर दूर होता है। वात.व्याधि तथा श्वास रोगों में इसके चार से छः पत्ते को कुल्थी के साथ दल में मिला हींग जीरे का छौंक देकर सेवन करने से लाभ होता है। सिसूण का प्रयोग उत्तराखंड में प्रेत आत्माओं एवं छल छिद्र भगाने में ओझा लोग करते हैं। उत्तराखंड के बागवान अपने उद्यानों में जंगली जानवरों तथा मनुष्यों से रक्षा करने हेतु अपने बगीचे के चारों ओर सिसूण के पौधों का रोपण करते हैं। इससे इनको दोहरा लाभ होता है। उद्यानों की रक्षा के साथ.साथ पशुओं के लिये चारा भी घर में ही मिल जाता है। गणेश जी के वाहन चूहे को जब उत्तराखंड में जाड़ों में भोजन नहीं मिलता तो ये बिच्छू घास की जड़ों को खाकर अपनी भूख मिटाते हैं। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण पाठकों को सिंसूणे के झुरमुटों में इनके बिलों से मिल जायेगा। इसकी जड़ों में ऐसे कौन से तत्व होते हैं इसको शोधकर्ता ही बता सकते हैं इसकी खेती बीजों कटिंगों तथा इनकी जड़ों का फाड रोपण करने से आसानी से की जा सकती है। उत्तराखंड में सिंसूणे-कनाली से अनेक कुटीर उद्योग जगह.जगह पनपाये जा सकते हैं। इस ओर योजनाकार को क्षेत्र में युवकों के पलायन एवं बेरोजगारी भगाने हेतु पहल करनी चाहिये। उद्योग जो पनपाये जा सकते हैं आयुर्वेद, यूनानी, एलोपैथी तथा होम्योपैथी दवा बनाने के छोटे-छोटे कारखाने आसानी से खोले जा सकते हैं। कनाली से रस्सी, थैले, पिट्ठू तथा मोटे वस्त्र के गृह उद्योग भी चलाये जा सकते हैं। विदेशों में इसके रेशम से कई किस्म के कागज बनाये जाते हैं। कागज उद्योग से जुड़ी संस्थाओं को इस ओर पहल करनी होगी।
