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स्वास्थ्य

कुमाऊं गढ़वाल की दुर्लभ उच्च हिमालयी की जीवाणुरोधी लाल जड़ी

कुमाऊं गढ़वाल की दुर्लभ उच्च हिमालयी की जीवाणुरोधी लाल जड़ी
विनोद उप्रेती, पिथौरागढ़।
अगर आपने अपना बचपन पहाड़ के किसी गाँव में बिताया है, अगर आपके बचपन तक आर्थिक सुधारों का असर देर से पंहुचा हो। अगर आपका बचपन टीवी और बिजली से अजनबी रहा हो। अगर सड़क आप साल में एक दो बार ही देख पाते हों तो आपको शायद याद आये कि सर्दी आते आते भेड़ों के रेवड़ हांकते अण्वाल पालसी चरवाहे बुग्यालों से माल. भाभर की ओर उतर रहे हैं। सैकड़ों भेड़ों के झुंडों को हांकते यह अण्वाल अक्सर शौका समुदाय के लोग हुआ करते थे। अपने इस सफर में इनके साथ बड़े विकराल तिब्बती कुत्ते होते थे, जो भेड़ों को चोरों, राहजनों, सियारों और गुलदारों से बचाते। अण्वालों के ये झुण्ड जब बांज के जंगल की ढलान में उतरते तो लगता जंगल के बीचोबीच बर्फ की नदी बही चली आ रही। अजीब सी गर्म गंध हवाओं में बिखर जाती। आ…हुर्र…आ…आ.. की आवाज, तेज सीटी का संकेत और भेड़ों की भें.. भें.. की आवाजें माहौल को अजीब सी गुनगुनाहट से भर देते। मेरे बचपन की यादों की सबसे रोमांचक कल्पना यही होती कि काश मैं भी अण्वाल होता। गर्मी में हिमालय के पहाड़ों में जाता, सर्दी में भाभर घूमता। हालाँकि तब इस काम की कठिनाइयाँ समझ नहीं आती थी। अक्सर भेड़ों के रेवड़ के साथ आने वाले शौका अपने साथ दन, थुलमे और पंखियाँ बुनकर लाते जिनको गाँव. गाँव में बेचते चलते। दन को गोल लपेट कर अपनी पीठ में तिरछा बाँध लेते और एक फौजी पिठुवे में बुग्यालों से लायी अनेक जड़ी बूटियाँ, मसाले आदि भी छोटी छोटी पोटलियों में रखे रहते। हम इनको देख कर एक खेल सीखते जिसमें एक छोटे बच्चे को अपनी पीठ पर तिरछा पकड़ते और जोर से गाते. सेक्व लिंछा गंधरैण…हग्गु…हग्गु…हग्गु…मुझे बहुत धुंधली सी यादें हैं कि कई बार अण्वाल लोग माल से नमक लाते और गाँव में अनाज, भट, मक्का, खजिया आदि के बदले नमक दे जाते। इन अण्वालों की जादुई सी पोटली में अनेक जड़ी बूटियाँ होती जिनपर अलग. अलग बहुत कुछ लिखा जा सकता है। कई बार हमसे बड़ी दीदियाँ और बुवायें अण्वालों से एक जड़ी मांगती जिसको वह बालछड़ी बोला करती। उनका मानना था कि इसको तेल में मिलाकर लगाने से उनके बाल लम्बे घने और काले हो जायेंगे। यह दौर था जब बालों में धबेली और फुने बाँधने का फैशन था। बालों को तीन हिस्सों में बाँट उनको सलीके से ख़ास तरीके से गूंथ कर लट बनायी जाती और आधी लट के बाद सूत के काले पतले रेशों से बनी डोर या धबेली बालों के साथ गुंथी जाती। डोर के अंतिम छोर में तीन रंगीन फूल होते जिनको फुन कहा जाता। बाद के दिनों में सूत के तागे की जगह बालों जैसे दिखने वाले रेशे की लट आने लगी थी। यह नकली बालों जैसी कोई चीज थी जिसे वह लड़कियां लगाती थीं जिनको अपने बाल छोटे होने की हीन भावना थी। बालों को लम्बा करने की ख्वाहिश में अण्वालों से बालछड़ नाम की जड़ी खरीदी जाती थी। इस बूटी को तेल में मिलाने से तेल का रंग गहरा लाल हो जाता। अपने कॉलेज के दिनों मुझे अण्वाल जीवन जीने का भरपूर मौका मिला और मैं अण्वालों के साथ जोहार, दारमा और ब्यांस घाटियों के बुग्यालों में भटकने लगा। इन यात्राओं के दौरान मुझे तेल को लाल करने वाली इस जड़ी से मिलने का मौका मिला। मुझे पता चला कि इसको  बाल छड़ के अलावा लाल जड़ी भी कहा जाता है और इसका इस्तेमाल केवल बालों के लिए नहीं बल्कि बच्चों की मालिश के लिए भी किया जाता है। माना जाता है कि यह बच्चों की हड्डियों को मजबूत करता है और मांस पेशियों को ताकत देता है। इसका पौधा बड़ा खुरदरा नजर आता है और जटाओं के बीच से इसके लाल फूल झांकते नजर आ सकते हैं। पत्तियां लम्बी होती हैं और एक लम्बे वितान में रेशेदार पुष्प समूह लगता है। किसी बुग्याल में पथरीले छोर में यह पौधा यदा कदा दिख सकता है। जोहार में लास्पा मेंए रालम में मरझाली में यह मुझे मिला। इस पौधे का वैज्ञानिक नाम अरनिबिया बिंटामीई है। यह ब्रोरागिनसिया कुल का पौधा है। अपने जीवाणुरोधी, फंफूंद नाशक, सूजन घटाने और घाव भरने वाले गुणों के कारण यह बहुत सी औषधियों का मुख्य घटक भी है। स्थानीय नाम लाल जड़ी/बाल छड़ी दोनों सुने हैं। भरा पूरा पौधा दो फीट तक ऊंचा होता है। बहुत से लोग इसे मसाले की तरह भी इस्तेमाल करते हैं और मांस के व्यंजनों को लाल रंगत देने के काम में लायी जाती है।

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