जन मुद्दे
किस रास्ते जा रहा प्रदेश सरकार का आयुर्वेद विवि
सीएन, देहरादून। वर्ष 2009 में उत्तराखंड सरकार के आयुर्वेद विश्वविद्यालय की स्थापन की गई। पिछले कई सालों में यहाँ के काम-काज के बारे में जो सामान्य जानकारी बाहर आई है, उसे देखकर कहा जा सकता है कि विवि अपने स्थापना के मूल उद्देश्यों से भटक रहा है। जबसे विश्वविद्यालय का हर्रावाला देहरादून का मुख्य परिसर अस्तित्व में आया, तब से तो जैसे यहाँ पर कब्जा जमाने की राजनीति का दौर ही शुरू हो गया है। रोज-रोज विवि के भीतर अधिकारियों की आपसी खींचतान के सच्चे-झूठे किस्से बाहर आते रहते हैं। इनका विवि में पढऩे वाले छात्रों, गंभीरता से अपने काम में लगे कार्यबल और विश्वविद्यालय से आयुर्वेद में कुछ उल्लेखनीय नया कर दिखाने की अपेक्षा रखने वाले प्रदेश के लाखों लोगों की सोच पर किस कदर प्रभाव पड़ता होगा, शायद इसके बारे में विवि के जिम्मेदार अधिकारी कभी सोचते नहीं हैंं।विवि के पास हर्रावाला के मुख्य कैम्पस के साथ हरिद्वार के ऋषिकुल और गुरुकुल दो और परिसर भी हैं, जो वर्षों से प्रदेश और देश के अभ्यर्थियों को आयुर्वेद की शिक्षा प्रदान कर रहे हैं, परन्तु विश्वविद्यालय के अधीन आने से उनके कार्य की दशा और दिशा में नया मोड़ आने के बाद दोनों महाविद्यालयों के प्रशासन में आई तब्दीली को उनके कर्ता-धर्ता पचा नहीं पा रहे हैं। विवि की स्थापना के साथ ये मिशन संबद्ध है कि विवि आयुर्वेद के साथ आयुष के अन्य क्षेत्रों यथा योग व प्राकृतिक चिकित्सा, यूनानी, सिद्ध चिकित्सा एवं होम्योपैथी के शिक्षण और अनुसंधान पर केन्द्रित होकर कार्य करेगा।
सबसे अहम बात ये है कि आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति की जननी भारत की भूमि है और अथर्ववेद के चिकित्सा के सिद्धान्तों में आयुर्वेद के बीज मौजूद होना बताया जाता है। पिछड़ी हालत में इस विधा को संजोने में वैद्यों का बड़ा योगदान रहा है। उसके बाद विश्वभर में पदार्थ और जीवधारियों के बारे में फूटे ज्ञान के स्रोतों, तकनीकी दक्षता के मीठे फलों के स्वाद को भी आयुर्वेद की शिक्षा और अनुसंधान से लंबे अंतराल के बाद भी नहीं जोड़ा जा सका है। अभी बहुत लंबी दूरी आयुर्वेद को तय करनी है, जब वह अधिकांश लोगों की क्रिटीकल रोगों से मुक्ति दिलाने की जरूरत को पूरा करता हुआ दिखाई देगा। इसके लिए पुरातन ज्ञान पर ही निर्भर नहीं रहा जा सकता है। इस कमी को दूर करने के लिए ही आयुर्वेद के शिक्षण और अनुसंधान की अत्यधिक आवश्यकता है। उत्तराखंड आयुर्वेद विश्वविद्यालय से भी इस काम में योगदान की अपेक्षा की गई है। अब प्रसंग दूसरे अहम पक्ष पर आना जरूरी है। विश्वविद्यालय अपना काम-काज कर पाए, इसके लिए योग्य अधिकारियों, अध्येतावृत्ति के अध्यापकों और ढाँचागत अन्य साधनों की उपलब्धता सुनिश्चित करने की चुनौती है। ये कार्य सरकार की दूरदर्शिता और बजट की आवश्यकताओं को समय पर पूरा करने के उत्तरदायित्व से ही किए जा सकते हैं, परन्तु सरकार में बैठे लोग और शासन में बैठे अधिकारी अगर विश्वविद्यालय के कामों में हस्तक्षेप के लिए कुछ न कुछ बहाना ढूंढते रहेंगे तो सभी कुछ उपलब्ध होने के बावजूद भी विवि में वातावरण अध्ययन और अनुसंधान के लिए उपयुक्त नहीं बन सकता है। उत्तराखंड आयुर्वेद विवि की आज की दशा इसका उदाहरण है। जरा सोचिए कि आज की नौबत कैसी है? मौजूदा कुलपति की इस पद पर नियुक्ति के लिए उनकी पात्रता पर संदेह किया जा रहा है। पूर्व कुलपति को उनकी जन्मतिथि के विवाद के बाद विवि से रुखसत किया गया था। विवि में कुलसचिव के पद पर पहुंँचने के लिए होड़ मची है। जो शासन में अपना टाँका भिड़ाने में कामयाब हो जाए, उसी को कुलसचिव या प्रभारी कुलसचिव बनाया जाता है। एक बदनाम अधिकारी को कुलसचिव बनाए जाने के बाद उनसे पीछा छुड़ाने के लिए विवि आज भी अदालती कार्यवाहियों में उलझा हुआ है। इन महाशय ने कुलपतियों के नाकों चने चबवा दिए। कई आरोपों के बाद भी वे हर बार साफ बचकर विवि के कुलसचिव पद को ग्रहण करने पहुँच गए और एक बार तो कुलपति के नहीं मिलने पर खुद ही कुलसचिव का कार्यभार ग्रहण कर लिया। यह सोचने वाली बात है कि क्या बिना सरकार या शासन में बैठे लोगों की शह के इस तरह की मनमानी कोई अधिकारी कर सकता है? नियुक्तियों पर इस तरह के दावपेंचों ने कुलपति और शासन में शीत युद्ध बढ़ाने में बड़ी भूमिका निभाई है। आज की स्थिति कितनी विचित्र है कि विवि तमाम आरोपों की जाँच का सामना कर रहा है। इन आरोपों की फेहरिश्त देखकर कुछ कहने को भी नहीं बचता है। पिछले दिनों विवि की ऑडिट रिपोर्ट में सामने आया कि विवि में नियुक्तियों से लेकर फर्नीचर खरीद में गड़बड़ी की गई, वित्तीय अनियमितता के दर्शन भी हुए हैं। इसके बाद मुख्यमंत्री ने विवि पर लग रहे आरोपों को लेकर विजिलेंस से खुली जाँच कराने का निर्णय लिया है और आजकल जाँच गतिमान है। आरोपों की सूची देखने पर पता चलता है कि विवि में भर्ती नियमों को तोडऩे, बिना शासन की अनुमति के ही भर्ती के विज्ञापन जारी करने और फिर रोक लगाने, पद न होते हुए भी संस्कृत शिक्षकों को पदोन्नति देने, माइक्रो बायोलोजिस्ट के पदों पर भर्ती के नियमों का अनुपालन न करने, विवि प्रबंधन पर सामान खरीद में गड़बड़ी व वित्तीय अनियमितिता के आरोप शामिल हैं। स्थिति ऐसी हो गई है कि विवि को सीधा खड़ा करने के लिए सरकार के साथ, विवि के महत्वपूर्ण पदों पर बैठे ईमानदार अधिकारी और आयुर्वेद के क्षेत्र में उत्तराखंड की एक अच्छी हैसियत की चाह रखने वाले लोगों को समन्वय कर कुछ नया सोचना होगा।