उत्तरकाशी
पहाड़ की संस्कृति की एक बहुत ही अनूठी, अजब गजब बेमिसाल है कुठार
समूचे उत्तरकाशी और रवांई-जौनपुर में स्थानीय कला के बेजोड़ नमूने है कुठार यानी गोदाम
लोकेन्द्र सिंह बिष्ट, उत्तरकाशी। आज आपको बताते हैं कुठार यानी (गोदाम) के बारे में। जिसमें पहाड़ के लोग शदियों से अपनी उपज अनाज को रखते आये हैं। जिसमें नाज धान, गेंहू, कोदा, झंगोरा, मंडुवा, चौलाई, दालें, घी, तेल, चीनी व रोजमर्रा के जरूरत की हर बस्तु रखी जाती हैं और यहां तक अपने सोने चांदी के अमूल्य वेशकीमती गहने तगादे यानी आभूषण भी इसी में सुरक्षित रखते थे। अभी हाल में मैं अपने मामाकोट यमुनाघाटी के नगाणगांव में गया। वहां आज भी एक से बढ़कर एक कुठार सही सलामत मौजूद हैं। अमूमन पहाड़ों में एक कुठार (एक स्ट्रक्चर) में एक या दो कुठार ही होते हैं। लेकिन यहां पर एक ही कुठार में (एक ही स्ट्रक्चर में ) तीन तीन कुठारों का अदभुत निर्माण किया हुआ है जो आज भी मौजूद हैं। गजब की अदभुत अनूठी तकनीकी के साथ लकड़ियों पर नकाशीदार कलाकारी उकेरी हुई। मैं दौवे के साथ कह सकता हूँ कि आज भी दुनियाभर के उम्दा इंजीनियरिंग कॉलेजों से पढ़ाई कर निकले बड़े से बड़े इंजीनियर (आर्किटेक्ट) पहाड़ों में बने इस तरह के कुठार व पंचपुरे भवनों के निर्माण की कल्पना नहीं कर सकते जो आज से शदियों पूर्व हमारे बुजुर्गों, कारीगरों मिस्त्रियों ने बिना शिक्षा दीक्षा व बिना स्कूली ज्ञान के इस तरह के अदभुत, अकल्पनीय, दुर्लभ अविश्वसनीय पंचपुरे व कुठारों का निर्माण उस शदी में कर दिया। आपको बताते चलें कि इन कुठारों के निर्माण में पूरी तरह से सौ फीसदी लकड़ियों का ही इस्तेमाल होता है वो भी देवदार की लकड़ी का। जिसके चलते इन देवदार की लकड़ी से बने कुठार में भंडारण किये अनाज की खराब होने की संभावना न के बराबर होती है। ये कुठार कोल्डस्टोरेज का भी काम करते हैं। कुठार जो कि मुख्यतः देवदार की लकड़ी के ही बने होते हैं और ये कुठार भंडारण के साथ हमारी पहाड़ी संस्कृति और कला व कलाकारी के अभिन्न अंग भी हैं। ये दिखने में जितने अदभुत व आकर्षक होते हैं उतने ही अकल्पनीय व अविश्वसनीय भी। आज भी खेती बाड़ी से पैदा हुए अन्नपाणी जैसे धान, गेहूं, कोदा, झंगोरा, कौणी, चिणा, जौ पहाड़ी दालें जैसे कि राजमा, उड़द, तोर, गहथ आदि सभी फसलों व खाने पीने की बस्तुओं को रखने व भंडारण की एकमात्र जगह कुठार ही हुवा करते हैं। कुठार समृद्धि का भी प्रतीक होते हैं। सामान्यतः कुठार घरों के सामने ही बने होते हैं बीच मे खलियान (खल्याण) ताकि इस पर नजर बनी रहे। कुठार से लेकर आवासीय भवन मकान तक एक लोहे की जंजीर खिंची हुई होती है और जंजीर पर लटकाये रहते हैं बड़ी बड़ी घंटियां या जिन्हें पहाड़ी भाषा मे घण्डोले कहते हैं और जंजीर का एक सिरा कुठार के दरवाजे से बँधा व दूसरा मकान से। कुठार के मुख्य दरवाजे पर किसी तरह छेड़छाड़ से जंजीर के हिलने से घंटियां बज उठती औऱ मालिक चौकन्ना और चोर भाग खड़ा। ये सब व्यवस्था आज भी मौजूद हैं। भंडारण की प्रयाप्त क्षमता के साथ हर अन्न के लिए अलग अलग खाने (गाँजे) बने होते हैं।समूचे पहाड़ खासकर समूचे उत्तरकाशी और रवांई-जौनपुर में स्थानीय कला के ये बेजोड़ नमूने हैं इसके आगे के हिस्सों पर नक्काशी दार विभिन्न आकृतियां बनी हुई होती है जो कुठार की सुंदरता में चार चांद लगा देते हैं। कुठार का दरवाजा छोटा-सा होता है लेकिन इसकी सुरक्षा के उपाय भी नायाब व अदभुत होते हैं। इसके दरवाजों पर अंदर की तरफ से ताला एक विशेष तकनीकी से लगाया जाता है जिसकी चाभी भी लोहे की होती है करीब तीन फीट लंबी। ये चाभी किसी को मिल भी जाय तो अंदर की तरफ से लगे ताले को खोलना सबके बूते की बात नहीं।बाहर से तो ताला लगा ही होता है। जंजीर अलग से बंधी होती है। यानी सुरक्षा के तीन तीन घेरे होते हैं कुठार के। इसमें भंडारण का जो तरीका हमारे बुजुर्गों ने ईजाद किया है वो आज के बड़े से बड़े इंजीनियर भी नहीं कर पाए हैं। एक बात और, अपने घर गांव में ये कुठार बातचीत करने के भी केंद्र बिंदु होते हैं। इन्ही कुठारों के पास लोग बैठकर गपशप करते हैं। आज अदभुत, नायाब,बेमिसाल, अकल्पनीय, अविश्वसनीय तकनीकी से निर्मित इन दुर्लभतम कुठारों के संरक्षण की अति आवश्यकता है।