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उत्तराखण्ड

आजा कहते हैं कुछ और करते हैं कुछ और लाजवाब


‘मनोज लोहनी, नैनीताल। हरदा यानि हरीश रावत मन की पहले कहते हैं, फिर वह कहते हैं जो कहना जरूरी होता है। हरीश रावत के लिए लिखे इस कोटेशन को समझने के लिए उसे डी-कोड करना जरूरी है। पहले कांग्रेस के परिप्रेक्ष्य में विधानसभा चुनाव 2022 और बात हरीश रावत की। उत्तराखंड में हरीश रावत और कांग्रेस क्या एक दूसरे के पर्याय हैं? आज से 42 साल पहले हरीश रावत ने जब राजनीति में सीधे चुनावी टक्कर ली तो उनके सामने भाजपा के कद्दावर नेता मुरली मनोहर जोशी थे। रावत ने 1980, 1984 में मुरली मनोहर जोशी को लोकसभा चुनावों में पराजित किया था। फिर 1989 में उनके सामने उस वक्त काशी सिंह ऐरी थे। चूंकि यहां पृथक राज्य के मांग की लौ जल चुकी थी और उसके केंद्र में उत्तराखंड क्रांति दल ही था। ऐसी सूरत में हरीश रावत ने फिर कांग्रेस की नैया पार लगाई और काशी सिंह ऐरी को पराजित कर लोकसभा गए। फिर वह दौर आया जब 1992 से लेकर 1999 तक हरीश रावत ने राजनीतिक जीवन की लंबी जंग में हार का सामना किया। 1999 में उन्हें जीवन चंद्र शर्मा ने लोकसभा चुनाव में पराजित किया तो इसके बाद 96 98 99 में बची सिंह रावत ने। हरीश रावत लगातार हारे, और तो और 2017 के विधानसभा चुनावों में वह हरिद्वार ग्रामीण और किच्छा दो सीटों से चुनाव हार गए। लगातार हार और उसके बाद भी हरीश रावत का कांग्रेस के लिए जरूरी बने रहना? उनके अंदर ऐसा क्या था जिससे कांग्रेस को लगातार उनकी जरूरत महसूस होती रही। अब अगर उनके भीतर कुछ था जो उन्होंने कांग्रेस को दिया और कांग्रेस ने उन्हें भी। तो उनके और कांग्रेस के बीच जब भी कोई आया, हरीश रावत ने उसे जवाब देने में कभी कोई कसर नहीं छोड़ी।
कांग्रेस हाईकमान के लिए हरीश रावत जरूरी हैं, यह तब सिद्ध हो गया था जब अभी ठीक चुनावों से पहले हरीश रावत के संन्यास संबंधी ट्विट से हड़कंप मचा तो, हरीश रावत को बकायदा दिल्ली बुलाकर हाईकमान को कहना पड़ा कि चुनाव उनके संचालन में ही लड़ा जाएगा। इससे यह बात साफ हो गई कि थी कि उत्तराखंड में हरीश रावत और कांग्रेस एक दूसरे के पर्याय तो हैं ही। जाहिर है, यही बात हरीश रावत को इस लायक बनाती है कि वह कांग्रेस की पार्टी लाइन में चलते हुए अपने मन की बातें साफ तौर पर सामने रख सकें।
अब बात ‘हरदा मन की पहले कहते हैं, फिर वह कहते हैं जो कहना जरूरी होता हैÓ कोटेशन की। जाहिर है, इस बार के विधानसभा चुनावों में सत्तारूढ़ भाजपा और कांग्रेस के बीच टक्कर है। ऐसा चुनाव पूर्व तमाम सर्वे बता चुके हैं। मैं यहां परिणाम की बात नहीं कर रहा, यह भविष्य के गर्भ में है। ‘हरदा मन की पहले कहते हैंÓ…। जैसा कि उन्होंने चुनाव से पहले कहा, ‘है न अजीब सी बात, चुनाव रूपी समुद्र को तैरना है, सहयोग के लिए संगठन का ढांचा अधिकांश स्थानों पर सहयोग का हाथ आगे बढ़ाने के बजाय या तो मुंह फेर करके खड़ा हो जा रहा है या नकारात्मक भूमिका निभा रहा है। जिस समुद्र में तैरना है, सत्ता ने वहां कई मगरमच्छ छोड़ रखे हैं। जिनके आदेश पर तैरना है, उनके नुमाइंदे मेरे हाथ-पांव बांध रहे हैं। मन में बहुत बार विचार आ रहा है कि हरीश रावत अब बहुत हो गया, बहुत तैर लिए, अब विश्राम का समय है!। ‘फि र चुपके से मन के एक कोने से आवाज उठ रही है न दैन्यं न पलायनम, बड़ी उहापोह की स्थिति में हूंं, नया वर्ष शायद रास्ता दिखा दे। मुझे विश्वास है कि भगवान केदारनाथ जी इस स्थिति में मेरा मार्गदर्शन करेंगे।Ó हरदा ने ऐसा कहा तो कुछ तो जरूर रहा होगा। चुनाव के बाद हरीश रावत ने फिर मन से कहा, या तो मैं मुख्यमंत्री बनूंगा, या घर बैठूंगा। जाहिर है अगर वह कुछ कह रहे हैं तो इसमें उनका वही आत्मविश्वास होगा जो उन्हें यहां कांग्रेस का सर्वमान्य नेता घोषित करता है। और अगर ऐसा है तो फिर उन्हें अपने बात तो कहनी ही है। इसलिए भी कि इस विधानसभा चुनावों में अगर कांग्रेस के लिए प्रदेश में माहौल बना तो शायद यह हरीश रावत की उत्तराखंडियत और उनका अपना श्रम था। तो एक कद्दावर नेता होने के नाते उन्हें अपनी बात कहने का अधिकार तो है ही। फिर संगठन भी अपने स्थान पर है। ‘फिर वह कहते हैं जो कहना जरूरी होता हैÓ। अब अपने मन की बात कहने के बाद उन्होंने कहा कि, मुख्यमंत्री वही होगा जिसे सोनिया गांधी चाहेंगी। अब १० मार्च के बाद पता चलेगा कि प्रदेश में राजनीतिक रूप से क्या घटित होने वाला है, मगर कांग्रेस के दृष्टिकोण से इतना तो साफ है कि ‘हरदा मन की पहले कहते हैं, फिर वह कहते हैं जो कहना जरूरी होता है।

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