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उत्तराखंड के पर्वतीय अंचलों में पशुओं के लिए लूटा बनाना पशुपालकों का एक मुख्य व्यवसाय

उत्तराखंड के पर्वतीय अंचलों में पशुओं के लिए लूटा बनाना पशुपालकों का एक मुख्य व्यवसाय
सीएन, नैनीताल।
उत्तराखंड के पर्वतीय अंचलों में पशुओं के लिए घास संग्रहण करना पशुपालकों का एक मुख्य व्यवसाय है। जाड़ों के मौसम में पशुओं के लिए चारे की कमी रहती है। विशेष कर बर्फबारी के समय में चारे की व्यवस्था करना बहुत कठिन होता है। इसलिए पशु पालकों के द्वारा सितम्बर से नवम्बर माह तक घास का संग्रहण अर्थात घास के ठेर लगाए जाते हैं। विशेष लोक शैली में बने इन ढेरों को स्थानीय भाषा में लूटा कहा जाता है। कुछ क्षेत्रों में इन्हें खुमा के नाम से भी संबोधित किया जाता है। जबकि गढ़वाल अंचल में इसके लिए लोटो शब्द का प्रयोग किया जाता है। लूटा लगाने की यह लोक विधा आसान नहीं होती है। इसके लिए पहले हरि घास को काटकर उसे सुखा लिया जाता है। फिर घास के स्थानीय भाषा में पूले बनाए जाते हैं। इन पूलों को एक स्थान पर एकत्रित कर लिया जाता है।किसी निश्चित स्थान पर लकड़ी के खंभे गाड़ दिए जाते हैं। खम्बे की सतह पर भूमि में पेड़ की टहनियां आदि बिछाकर आधार तैयार किया जाता है। आधार तैयार करने का उद्देश्य घास को पानी तथा दीमक से बचाव करना। घास के पूलों को खंभे के चारों ओर इस तरह व्यवस्थित किया जाता है कि वर्षा के दिनों में इसके भीतर पानी नहीं घुस सकता। इन्हें इस प्रकार लगाया जाता है कि इन्हें खींचने पर आसानी से लूटे से बाहर नहीं निकाला जा सकता । सामान्यतः एक लूटे में 40-50 गट्ठर तक घास लगाई जाती है। एक गट्ठर में सामान्यतः 25-30 पूले घास होती है। लूटा लगाने का काम जानकार व्यक्तियों के द्वारा ही किया जाता है। कई-कई गांवों में तो लूटे वृक्षों की खड़ी सपाट शाखाओं पर भी लगाये जाते हैं। और कुछ स्थानों पर घरों की छतों पर भी लूटे लगाये जाते हैं। घरों की छतों पर लगाये जाने वाले लूटे आकार में अपेक्षा कृत छोटे होते हैं। इन लूटों में संग्रहण की गयी घास लगभग एक वर्ष तक सुरक्षित रह जाती है और इनके पोषक तत्व भी नष्ट नहीं होते हैं। इन लूटों की ऊंचाई सामान्यतः अलग.अलग होती है। अधिकांशतः यह लूटे दस से बीस फीट तक ऊंचे बनाए जाते हैं। पर्वतीय अंचलों में चारा संग्रहण की लूटा लगाने की यह अनूठी लोक परंपरा सदियों पुरानी है।चारे की कमी को पूरा करने के लिए हमारे पूर्वजों ने यह अनूठी लोक परम्परा विकसित की जो आज भी हमारे पर्वतीय ग्रामीण अंचलों में जीवित लोक परम्परा के रूप में सुरक्षित है।

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