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14 जुलाई को भारत चंद्रयान-3 का सफर हुआ शुरू, आज विजयी भव्! रूस के लूना ने लेनी चाही होड़

14 जुलाई को भारत चंद्रयान-3 का सफर हुआ शुरू, आज विजयी भव्! रूस के लूना ने लेनी चाही होड़
सीएन, नईदिल्ली।
14 जुलाई 2023 को भारत ने चंद्रयान-3 को इसके लंबे सफर पर रवाना किया था। आज 23 अगस्त को सांय 6.04 मिनट पर वह विजयी भव् की तज पर चांद पर उतरेगा। उस समय ऐसी कोई जानकारी नहीं थी कि इसके महीनों बाद भी किसी और देश का मून मिशन रवाना होने वाला है। अमेरिका 2024 में अपना यान चंद्रमा के लिए रवाना करेगा, ऐसा एक अनुमान जरूर था लेकिन उसकी तारीखें कई बार टल चुकी हैं। रूसी मून मिशन के बारे में भी बातें काफी समय से कही जाती रही हैं लेकिन 1991 में सोवियत संघ के बिखरने के बाद से उसका एक भी यान धरती की कक्षा से बाहर नहीं गया, लिहाजा उसका कुछ पक्का नहीं था। चर्चा चीन के साथ रूस के संयुक्त मून मिशन की चल रही थी, जिसकी बैठकें पिछले साल यूक्रेन युद्ध की शुरुआत से ही स्थगित हैं। फिर पता नहीं क्या हुआ कि रूस ने बिना किसी पूर्वघोषणा के 11 अगस्त को अपना लूना-25 यान चंद्रमा की ओर रवाना कर दिया। इस लक्ष्य के साथ कि इसको चंद्रयान-3 से दो दिन पहले ही उसकी लैंडिंग साइट से थोड़ा और दक्षिण में उतारा जाएगा।
अंतरिक्ष विज्ञान में कैसा है भारत और रूस का संबंध?
भारतीय अंतरिक्ष शोध संगठन ( इसरो) और इसके रूसी समकक्ष रोसकॉस्मोस के बीच हमेशा से बिरादराना रिश्ते रहे हैं। कई मौकों पर रूसियों ने पश्चिमी दबावों का सामना करते हुए अंतरिक्ष विज्ञान में भारत की सहायता भी की है। भारत के एकमात्र अंतरिक्ष यात्री विंग कमांडर राकेश शर्मा ने रूस के सोयुज यान से ही अंतरिक्ष की सैर की थी और भारी जीएसएलवी रॉकेटों के लिए क्रायोजेनिक इंजन भी रूस से ही खरीदे गए थे। उसी रूस से अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में एक दिन बेवजह की होड़ में फंसना पड़ेगा, ऐसी कल्पना इसरो के किसी वैज्ञानिक ने कभी नहीं की होगी। रूसी कह रहे हैं कि उनका लूना-25 मिशन 2021 के लिए ही तय था। उसमें देरी पहले कोरोना और फिर यूक्रेन युद्ध के कारण हुई। लेकिन ध्यान रहे, इसके ठीक पहले का रूसी मून मिशन लूना-24 अब से 47 साल पहले सन 1976 में संपन्न हुआ था। रूसी चाहते तो अपने मिशन के लिए एक पखवाड़े का इंतजार और कर सकते थे। ऐसा होता तो एक मित्र देश के साथ बेकार की होड़ में फंसने की नौबत उनके सामने न आती। इसके बजाय वे भारतीय यान से लगभग एक महीने बाद अपना यान रवाना करके उससे दो दिन पहले अपना मिशन पूरा कर लेने की मुहिम में उतर गए, जो एक तरह से भारत को नीचा दिखाने जैसा ही है, तो इसके पीछे कोई ठोस वजह होनी चाहिए। फिलहाल ऐसी अकेली वजह यह लगती है कि चंद्रमा के धुर दक्षिणी हिस्से में सबसे पहले यान उतारने का रिकॉर्ड रूसी हर हाल में अपने पास ही रखना चाहते थे। अभी तक दुनिया के सारे मून मिशन चंद्रमा की भूमध्य रेखा के आसपास केंद्रित रहे हैं क्योंकि वहां यान उतारना अपेक्षाकृत आसान है। दक्षिणी चंद्र ध्रुव के पास वाले इलाकों में यान उतारना टेलीकम्युनिकेशन के लिहाज से भारी चुनौती पेश करता है, लेकिन पानी और हीलियम-3 जैसे खनिज मिलने और अड्डा बनाने के लिहाज से वही जगह सबसे ज्यादा मुफीद समझी जाती है। सोवियत संघ का हिस्सा रहते हुए सबसे पहले पृथ्वी की कक्षा में कृत्रिम उपग्रह स्थापित करने, इंसान को अंतरिक्ष में भेजने और चंद्रमा पर गाड़ी चलाने का रिकॉर्ड रूसियों के पास ही रहा है तो दक्षिण में यान उतारने का रिकॉर्ड वे भारत के हाथ कैसे लगने देते? लेकिन इस कारण पर भरोसा करने में भी एक बहुत बड़ी बाधा है। चंद्रयान-3 तकरीबन पूरी तरह से चंद्रयान-2 की ही ट्रू-कॉपी है। दक्षिण में 70 डिग्री अक्षांश रेखा के आसपास जहां चंद्रयान-2 को उतरना था, वहीं चंद्रयान-3 को भी उतरना है। अंतर सिर्फ इतना है कि चंद्रयान-3 के लिए जगह चालीस गुनी ज्यादा बड़ी चुनी गई है, लैंडिंग के लिए अधिक ईंधन की व्यवस्था की गई है, उतराई के ढांचे को थोड़ा और मजबूत बना दिया गया है और लैंडिंग सॉफ्टवेयर पर काफी काम किया गया है। सवाल यह है कि रूसियों को रिकॉर्ड की इतनी ही चुल मची थी तो चंद्रयान-2 के समय वे खामोश क्यों थे? इसके जवाब में दो बातें कही जा सकती हैं। एक, यूक्रेन युद्ध, जिसने अमेरिका और रूस को आमने-सामने ला खड़ा किया है और लगभग वैसी ही शीतयुद्ध जैसी स्थितियां पैदा कर दी हैं, जो पचास के दशक के अंतिम वर्षों से लेकर सत्तर के दशक के मध्य तक चली अंतरिक्ष होड़ का कारण बनी हुई थीं। रूसी नेतृत्व शायद यह साबित करना चाहता था कि अतीत में सोवियत संघ अमेरिका के मुकाबले में जो कुछ भी कर सकता था, वह सब उनका देश आज भी कर सकता है। दूसरी बात भारत से जुड़ी है जिस पर अभी ज्यादा चर्चा नहीं हो रही है, लेकिन आने वाले सालों में उस पर बहुत बातें होंगी। यह है, चंद्रयान-3 के प्रक्षेपण से ठीक पहले भारत का आर्टेमिस परियोजना से जुड़ाव। पिछले अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने अपने शासनकाल के अंतिम वर्ष 2020 में चंद्रमा से जुड़े शोध और उसके दोहन के लिए आर्टेमिस परियोजना सामने रखी थी। तीन साल की दुविधा के बाद बीते जून में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिका यात्रा के दौरान भारत ने भी आर्टेमिस से जुड़ने का फैसला किया। इस तरह भारत इसमें शामिल होने वाला 27वां देश बन गया और इसरो की तरफ से इस पर मोहर चंद्रयान-3 के प्रक्षेपण से हफ्ता भर पहले 7 जून 2023 को लगाई गई। इसका मतलब यह है कि भारत के इस महत्वाकांक्षी अभियान को भी अभी नहीं तो आगे चलकर अमेरिकी अंतरिक्ष योजना के अंग की तरह पेश किया जा सकता है। रूसियों को इसका कूटनीतिक मुकाबला जरूरी लगने लगा है। इसीलिए उन्होंने कदम बढ़ाए। इसमें कोई शक नहीं कि लूना-25 को सोयुज रॉकेट के जिस संस्करण से छोड़ा गया, वह बहुत ताकतवर है। उसने धरती का सिर्फ एक चक्कर लगाया और 11.2 किलोमीटर प्रति सेकंड का पलायन वेग हासिल करके पांच दिन के अंदर ही चंद्रमा की कक्षा में पहुंच गया। इसके उलट चंद्रयान-3 ने ईंधन की किफायत से खपत के मामले में कमाल किया। उसने पांच बार कक्षाओं के उन्नयन के क्रम में धरती के गुरुत्व का भरपूर इस्तेमाल किया और कुछ ऊर्जा जरूरतें अपने सौर पैनलों से भी पूरी कीं। फिर चंद्रमा की कक्षा में पहुंचकर अपनी रफ्तार धीमी करने का काम भी कई चरणों में किया। यह इसरो का अपना यूएसपी है। इसी के दम पर वह उपग्रहों के सस्ते प्रक्षेपण के मामले में पूरी दुनिया की आंखों का तारा बना हुआ है। अभी इसका प्रॉपल्शन मॉड्यूल चंद्रमा से 153 किलोमीटर की न्यूनतम और 163 किलोमीटर की अधिकतम ऊंचाई वाली लगभग गोलाकार कक्षा में रहकर चंद्रमा का जायजा ले रहा है। उसकी कक्षा स्थायी है और एक चंद्र-उपग्रह के रूप में यह लंबे समय तक यहां बना रह सकता है। इसका दूसरा हिस्सा, लैंडिंग मॉड्यूल या विक्रम लैंडर चंद्रयान से अलग से होने के बाद कुछ अस्थायी कक्षाओं से होते हुए अपनी रफ्तार घटाने और दिशा बदलने की प्रक्रिया में है। उसे चंद्र सतह से 30 किलोमीटर की न्यूनतम और 100 किलोमीटर की अधिकतम ऊंचाई वाली कक्षा में पहुंचना है, जहां से उसको चंद्रमा पर उतारने की प्रक्रिया शुरू की जाएगी। हालांकि रूसी यान को चंद्रयान 3 पर एक बढ़त हासिल थी। वह यह कि उसकी तैयारी चंद्रमा पर लंबे समय तक टिकने की थी। माइनस 173 डिग्री सेल्सियस तक की चरम ठंड तक चली जाने वाली चंद्रमा की रात में लूना-25 को गरम रखने लायक बैटरी का इंतजाम किया गया था। इसके मुकाबले चंद्रयान-3 का विक्रम लैंडर एक बार चंद्रमा की सतह पर उतर जाने के बाद ऊर्जा के लिए पूरी तरह अपने सोलर पैनलों पर ही निर्भर करेगा और रात होते ही पत्थर जैसा हो जाएगा। उसका जीवनकाल 14 दिन का ही निर्धारित है। पृथ्वी पर दिन और रात इसके अपनी धुरी पर घूमने के कारण हुआ करते हैं। इसकी सूर्योदय रेखा 24 घंटे के अंदर पूरे ग्रह का चक्कर लगाकर अपनी पुरानी जगह पर पहुंच जाती है। सरल माप में इसे बयान करना हो तो दिन और रात को बांटने वाली यह लाइन भूमध्य रेखा पर लगभग 2000 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से आगे बढ़ती है। लेकिन चंद्रमा के साथ सबसे बड़ी पेचीदगी यह है कि वह अपनी धुरी पर घूमता ही नहीं। अंतरिक्ष विज्ञान की भाषा में इसे टाइडली लॉक्ड कंडीशन बोलते हैं। इसके चलते चंद्रमा की एक ही सतह हमेशा पृथ्वी के सामने रहती है, दूसरी सतह हमारे लिए अदृश्य ही बनी रहती है। दिन और रात वहां भी होते हैं, लेकिन चंद्रमा के अपनी धुरी पर घूमने के कारण नहीं, उसके पृथ्वी का चक्कर लगाने की वजह से। ऐसे में उसकी सूर्योदय रेखा बहुत धीरे यानी साढ़े पांच किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से आगे बढ़ती है। जाहिर है, उसके दिन और रात बहुत बड़े होते हैं। हमारे चौदह दिनों यानी 14 गुणे 24 घंटे जितने।

चंद्रमा के दिन और रात, दोनों की ही धरती के दिन-रात से कोई तुलना नहीं

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चंद्रमा के दिन और रात, दोनों की ही धरती के दिन-रात से कोई तुलना नहीं है। दिन में वहां का तापमान 127 डिग्री सेल्सियस तक और रात में माइनस 173 डिग्री सेल्सियस तक चला जाता है। कल्पना करना बहुत कठिन है, फिर भी कोशिश की जा सकती है कि चंद्रमा के रात और दिन को अलग करने वाली सूर्योदय रेखा कितनी तीखी, तेज धार वाले चाकू से भी ज्यादा तीक्ष्ण होती होगी, जिसके आते ही पारा सीधे 300 डिग्री उछल जाता है। इसे टर्मिनेटर लाइन का नाम यूं ही नहीं दिया गया है। तापमान के इतने बड़े उछाल को माप सकने वाला कोई थर्मामीटर धरती पर हो भी तो वह दुनिया की अव्वल दर्जे की प्रयोगशालाओं में ही पाया जाता होगा। लूना-25 की लैंडिंग साइट जहां तय की गई थी, वह जगह चंद्रयान-3 की लैंडिंग साइट से डेढ़-दो सौ किलोमीटर पूरब-दक्षिण में है और वहां सूर्योदय दो दिन पहले हो जाता है। 21 अगस्त इसकी लैंडिंग डेट इसी हिसाब से रखी गई थी। हालांकि रूसी अंतरिक्ष एजेंसी रोसकॉस्मॉस ने बताया कि लूना-25 एक अनकंट्रोल्ड ऑर्बिट में स्पिन लेने के बाद चंद्रमा पर क्रैश कर गया। इससे एक दिन पहले रोसकॉस्मॉस ने बताया था कि लूना-25 में एक तकनीकी दिक्कत आ गई है। रविवार को रोसकॉस्मॉस ने बताया कि लूना 25 ‘ऐसे ऑर्बिट में चला गया, जिसका पहले से कोई अनुमान नहीं था। चंद्रमा की सतह पर टकराने से वह नष्ट हो गया।’
चंद्रयान-2 मिशन में रूस ने दिया था भारत को धोखा
भारत के चंद्रयान-2 मिशन को रूस के कारण सात साल की देरी की सामना करना पड़ा था। अगर रूस ने मौके पर धोखा नहीं दिया होता तो भारत चंद्रयान 2 मिशन को बहुत पहले ही लॉन्च कर दिया होता। इससे भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान के समय और पैसे दोनों की बचत होती। बहुत कम लोगों को पता होगा कि चंद्रयान-2 मिशन में पहले रूस भारत का भागीदार था, लेकिन इसरो को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी थी। चंद्रयान-2 मिशन में एक लैंडर और रोवर शामिल था, जिसे मूल रूप से 2011-12 के बीच लॉन्च किया जाना था। उस समय भारत ने अपने लैंडर और रोवर को विकसित नहीं किया था। मूल चंद्रयान-2 अंतरिक्ष यान को रूस के साथ संयुक्त मिशन के तौर पर डिजाइन किया गया था। इसमें भारत को रॉकेट और ऑर्बिटर उपलब्ध कराना था, जबकि लैंडर और रोवर रूस से आने थे। हालांकि, चंद्रयान-2 के लिए रूस जिस तरह के लैंडर और रोवर विकसित कर रहा था, उसमें एक अलग मिशन पर समस्याएं सामने आईं। इसके बाद रूसी अंतरिक्ष एजेंसी रोस्कोस्मोस को लैंडर की डिजाइन में बदलाव करने के लिए मजबूर होना पड़ा। नया डिजाइन बड़ा था और इसे भारतीय रॉकेट में आसानी से फिट नहीं किया जा सकता था। अंतर में रूस चंद्रयान-2 मिशन से बाहर हो गया और भारतीय अंतरिक्ष एजेंसी इसरो को स्वदेशी लैंडर और रोवर के विकास में लगना पड़ा । इस काम में 7 साल का समय लगा और चंद्रयान-2 को 2019 में लॉन्च किया जा सका।

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