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उत्तराखण्ड

गढ़वाल और कुमाऊं में मकर संक्रांति के अवसर पर मेलों का होता है आयोजन

धार्मिक आजादी और उत्तराखंड आंदोलन की अलख जगाने में रही अहम भूमिका
सीएन, बागेश्वर/नैनीताल।
उत्तराखंड में गढ़वाल और कुमाऊं दोनों हिस्सों में मकर संक्रांति के अवसर पर मेलों का आयोजन होता है. गढ़वाल के गिंडी मेले और कुमाऊं के उत्तरायणी मेले खासे मशहूर रहे हैं. यह मेले पूर्व में भी धार्मिक, आध्यात्मिक आजादी और उत्तराखंड आंदोलन की अलख जगाने में अहम भूमिका निभाते रहे हैं. खासतौर पर कुमाऊं क्षेत्र के बागेश्वर में लगने वाले उत्तरायणी मेली की तो बात ही कुछ और है. इसी तरह पौड़ी गढ़वाल में डाडामंडी मेला भी खूब मशहूर है. लोग बड़ी ही बेसब्री से इन मेलों का इंतजार करते हैं. आधुनिक युग में इन मेलों की रौनक कुछ कम जरूर हुई है, लेकिन पूर्व में ये मेले व्यापार, आध्यात्म और समाजिक चेतना के गढ़ हुआ करते थे. चंपावत, हरिद्वार, पौड़ी, रुद्रप्रयाग, बागेश्वर, नैनीताल आदि जगहों पर भी उत्तरायणी मेलों का आयोजन होता है.मकर संक्राति’ के रूप में ‘उत्तरायणी’ पूरे देश में मनाई जाती है. अलग-अलग प्रान्तों और समाजों में इसके अनेक रूप हैं. हिमालय और देश की जीवनदायिनी नदियों का उद्गम स्थल होने से ‘उत्तरायणी’ देश की सांस्कृतिक समरसता का अद्भुत त्योहार है. असल में यह पहाड़ की ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक चेतना का भी त्योहार है. इसे कुमाऊं में ‘उत्तरायणी’ और गढ़वाल में ‘मकरैणी’ कहा जाता है. पहाड़ के अलग-अलग हिस्सों में इसे कई नामों से जाना जाता है. जैसे घुगुतिया, पुस्योड़िया, मकरैण, मकरैणी, उतरैणी, उतरैण, घोल्डा, घ्वौला, चुन्या त्यार, खिचड़ी संग्रांत आदि. इस दिन सूर्य धनु राशि से मकर राशि में प्रवेश करता है, इसीलिए इसे ‘मकर संक्रान्ति’ या ‘मकरैण’ कहा जाता है. बागेश्वर में सरयू और गोमती नदी के तट पर हर वर्ष मकर ​संक्रांति के अवसर पर उत्तरायणी मेला आयोजित किया जाता है. यहां भगवान शिव का बागनाथ मंदिर भी है. मान्यता है कि इस दिन बागेश्वर के इस संगम पर स्नान करने से समस्त पापों का नाश होता है. बागेश्वर का उत्तरायणी मेला एक हफ्ते तक चलता है. इस अवसर पर यहां भारी संख्या में लोग स्नान और मेला देखने को पहुंचते हैं. हालांकि, कोविड से जुड़े प्रतिबंधों के चलते यहां रौनक कम होगी. जनवरी 1921 से आज तक सरयू-गोमती के संगम में ‘उत्तरायणी’ के अवसर पर जन चेतना के लिये राजनीतिक दलों और सामाजिक संगठनों का जमावड़ा रहता है. इसीलिए ‘उत्तरायणी’ उत्तराखंड में राजनीतिक-सामाजिक चेतना का भी त्योहार है. इस साल देश की आज़ादी के 75 साल पूरे हो रहे हैं और ‘कुली बेगार आंदोलन’ का ये शताब्दी वर्ष है, इसलिए इस बार की उत्तरायणी की प्रासंगिकता और भी बढ़ गई है. मकर संक्रांति या उत्तरायणी का भारतीय संस्कृति में खासा महत्व है. उत्तराखंड में भी इस त्योहार को बड़ी ही धूम-धाम से मनाया जाता है. गढ़वाल में जहां मकर संक्रांति को मकरैणी और खिचड़ी सज्ञान के रूप में मनाया जाता है. वहीं कुमाऊं क्षेत्र में इस दिन को उतरैणी और घुघुति सज्ञान कहा जाता है. जहां गढ़वाल में इस दिन खिचड़ी का महत्व है, वहीं कुमाऊं क्षेत्र में इस दिन आटे, चीनी, सौंफ आदि के मिश्रण से बने घुघुति बनाई और खाई जाती हैं. बच्चों को तो घुघुति की माला बनाकर भी पहना दी जाती है. इस अवसर पर ‘काले कौवा काले, घुघुति माला खाले’ की आवाज लगाकर कौवों को घुघुती खाने के लिए आमंत्रित किया जाता है. भारतीय संस्कृति में माना जाता है कि कौवों में पितृों की आत्मा होती है. इस दिन प्रात: पवित्र नदियों में स्नान का भी महत्व है. उत्तराखंड में उत्तरायणी के अवसर पर मेलों का भी पुराना इतिहास रहा है

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