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पहाड़ी बाखली: जोड़कर रखती है परिवार, पशु-पक्षी और पेड़-पौधों को एक साथ

पहाड़ी बाखली: जोड़कर रखती है परिवार, पशु-पक्षी और पेड़-पौधों को एक साथ
प्रोफेसर मृगेश पाण्डे, हल्द्वानी।
एक जाति-बिरादरी के लोग एक दूसरे से जुड़े एक कतार में घर बनाते तो इसे बाखली कहा जाता। बाखली के सभी घरों की धुरी एक ही सीध में होती जिसमें पाथर बिछे होते। बाखली में मकान एक बराबर ऊंचाई के तथा दुमंजिले होते। पहली मंजिल में छाजे या छज्जे के आगे पत्थरों की सबेली करीब एक फुट आगे को निकली रहती जो झाप कहलाती। ऊपरी दूसरी मंजिल में दोनों तरफ ढालदार छत होती जिसे पटाल या स्लेट से छाया जाता। नीचे का भाग गोठ कहा जाता जिसमें पालतू पशु रहते तो ऊपरी मंजिल में परिवार। दुमंजिले के आगे वाले हिस्से को चाख कहते जो बैठक होती। इसमें छाज या छज्जा होता। सभी घरों के आगे पटाल बिछा पटांगण होता जिसके आगे करीब एक हाथ चौड़ी दीवार होती जो बैठने के भी काम आती। पटांगण से दो मंजिला तक पत्थरों की सीढ़ी व फिर दरवाजा होता। इसके दूसरे रूप में पटांगण से ही खोली बनी होती जहां निचली मंजिल से दुमंजिल तक सीढ़ियां जातीं फिर दाएं-बाएं दोनों खन या खण्डों के लिए द्वार खुलते। द्वार की चौखट में खांचे व स्थानीय शिल्पियों द्वारा नक्काशी की जाती। खोली के ऊपर भी नक्काशी की जाती। इसमें तुलसी चौरा या थान भी बना होता। संध्या पूजा के समय इसमें जल डाला जाता। घरों में छत्तों के नीचे आगे की दिवाल पर छत की बल्लियों के बीच के भाग को बंद कर हर बल्ली के बीच के तख्ते में दो.चार सूत का लम्बा-चौड़ा छेद छोड़ दिया जाता। ताकि इस बिल में घिनौड़ या गौरैया अपना घोंसला बना सके। गौरैया जहां खेती में उगे अनाज को सुखाने में उसके कीट चट कर जाती है तो घर के पास बिल्ली साँप दिखने पर झुंड में एक साथ चिल्लाती भी हैं। हर पक्षी अपना घोंसला अलग तरह अलग किस्म के पेड़ पर बनाता है ताकि उसके रहने और खाने में अन्य पक्षियों से होड़ न हो। गौरैया को अपने घर में संरक्षण देना उसके लिए घर आंगन सीढ़ियों में चावल व अन्य अनाज डालना इसी मित्र प्रवृति का संकेत रहा है। पक्षियों के घोंसलों की जगह व पेड़ों में उनकी  बनावट से मौसम की भी जानकारी लगाई जाती रही। चील का घोंसला पेड़ के तने में दिखे तो खूब ओले पड़ना, बीच में ठीक-ठाक बारिश व ऊपर भाग में होने से साधारण बरखा का अनुमान लगाया जाता रहा। कौवा तो शकुन-अपशकुन व मेहमान के आगमन के संकेत की आवाज के लिए जाना ही गया। कौवा ग्रास, कुकुर ग्रास व गोग्रास नियमित देने के रिवाज भी बने हैं। माघ की संक्रांति में घुघुतिया तो कौवों का विशेष त्यार है। ऐसे ही चूहों को मार अनाज की रक्षा का जिम्मा बिल्ली को मिलता है। यह मानना कि बिल्ली को मारने से बुढ़ापे में हाथ-पाँव कांपते हैं, उसे बचाने का ही उपाय है। घर के बाहरी भाग में मौन या मधुमक्खी के लिए भी मोटे गिंडे में छेद छोड़ा जाता है। मौन सिर्फ शहद या मौ व मोम ही नहीं देते बल्कि सेब, माल्टा, खुमानी, आड़ू, नाशपाती, पुलम जैसे घर के आसपास लगाए जाने वाले फलदार पौधों में पर परागण से उपज भी बढ़ाते हैं। आंवला, हरड़, बहेड़ा तुन, मेहल, अयार आदि पेड़ों के पास मौन खूब पनपते हैं। पशु.पक्षियों को भोजन देने का रिवाज बना रहा। इसमें घरेलू पशुओं की विशेष अवसरों जैसे असोज में खतड़ुआ व कार्तिक में गोवर्धन पर पूजा भी होती और उनके लिए पकवान भी बनते। संस्कारों में भी गोधन का प्रचुर प्रयोग होता, गौंत, गोबर शुद्धि के प्रतीक माने जाते हैं। गोदान भी अनेक अवसरों पर किया जाता। 

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