उत्तराखण्ड
एक आदिम चरवाहा गांव की दास्तान पुस्तक चर्चा में आई
सीएन, नैनीताल। इस बीच पुस्तक बाजार में मध्य हिमालय के एक गांव के बसने उजड़ने की कहानी पर डां गिरिजा किशोर पाठक की पुस्तक “एक आदिम चरवाहा गांव की दास्तान ” ने दस्तक दी है। उनका कहना है किताब लिखने का मकसद अपने किसी भाव या विचार को शब्द देना भर नहीं होता है उसमें प्राण फूंकना भी जरुरी होता है। बिना प्राण प्रतिष्ठा के तो मूर्ति भी पत्थर है। विचारों को शब्दों में पिरोकर उसका तालमेल पाठकों के मन मस्तिष्क के साथ बैठाना एक कठिन साधना है।
शहर की तरह गांव महज मकानों का निष्प्राण जंगल नहीं है वहां हर घर एक जीवित शरीर होता है। एक का घाव सारे गांव को दर्द देता है। सारे लोगों को कुछ परंपरायें, गोत्रीय संवन्ध और रीति-रिवाज एक सूत्र में पिरोये रहतीं हैं जो उनकी सभ्यता संस्कृति का हिस्सा बन जाती हैं। लाख झगड़े हो लेकिन जीने मरने के सब साथी रहते हैं।
सन् 1999-2000 में संयुक्त राष्ट्र संघ की सेवा के दौरान हजारों यूरोप के गांवों को भी देखने का मौका मिला। पूर्व यूगोस्लाविया के तो सौ से अधिक गांवों का मैंने दौरा किया होगा। युद्ध की भीषण विभीषिका झेलने के बाद भी अल्पविराम के बाद फिर ये गांव आबाद हो गये। आस्ट्रेलिया में तो 2 घर वाले गांव भी आबाद हैं। उनके गांवों की टोपोग्राफी हमारे हिमालय से और कठिन है।
लेखक ने गैर-परंपरागत रुप से अपनी पुस्तक को भारत के उन सब लोगों को समर्पित किया है जो अपनी थाती,जल,जंगल ,जमीन और वन्य जीवन की रक्षा के लिए संघर्षरत हैं।पुस्तक दो भागों में है। प्रारंभ के 103 पन्नों में गांव के बसने और उजड़ने की कहानी दर्ज है।गांव के लोग अपनी मिट्टी की मस्तारी या मां मानते हैं। उससे विछड़ने का दर्द उनके जहन को कभी सुकून नहीं देता। एक गांव के भुतहा होने से सारी सभ्यता, संस्कृति और परंपराओं की विलुप्त हो जाती है। टेहरीबाध और नर्मदा बांध के विस्थापितों की कहानी से ये बात आपको और स्पष्ट हो जायेगी। लेकिन ऐसा क्या है इस पीढ़ी के हजारों हजार लोग गांवों से पलायन कर रहे हैं। उत्तराखण्ड से तो 250 लोग प्रतिदिन पलायन कर रहे हैं। इन तीन दशकों में 3 हजार गांव भुतहा हो गये हैं। लगभग तीन लाख घरों में सिसोड़ के झाड़ और मकड़ी के जालों के बीच ताले जड़े हैं। अपना घर-द्वार ,जल, जंगल, जमीन छोड़ने का दर्द किसको नहीं होता ,? अपनी बोली भाषा से किसको मोह नहीं होता ! अपनी मस्तारी से कौन प्रेम नहीं करता। इन वजहों की पड़ताल है ये किताब।
आगे के पन्नों में हिमालय की महिलाओं के दर्द और संघर्ष को चार भागों में “आमा के हिस्से का पुरूषार्थ “में उकेरा है। श्रद्धा और श्राद्घ में ग्रामीण परिवेश में उभर रहे ढकोसला और माता पिता का तिरस्कार की बात वेबाक रुप से रखी है।श्राद्ध का ढ़ौग करने वालों और पितरों की वरसी में महा मृत्युभोज और पिंडदान करने वालों पर “चनका की वरसी ” में कटाक्ष झलकता है। पूरी किताब आपकी भावना और संवेदना की जड़ों को हिला देती है।कुल मिला कर 172 पन्नों की यह पुस्तक शुरु से अंत तक अपने भीतर की उठापटक में पाठक को अपने प्रवाह से बांध कर रखती है।
“एक आदिम चरवाहा गांव की दास्तान “
प्रकाशक: सर्व भाषा ट्रस्ट ,नयी दिल्ली
मूल्य पेपर बैक 215/ पुस्तकालय संस्करण 315
गूगल 206/ पुस्तक अमेजान पर उपलब्ध है।