उत्तराखण्ड
उत्तराखंड : आओ-आओ, खूब आओ, स्नातक के हाथों मैगी खाओ, रसूखदारों की कृपा से जमीनें हथियाओं
उत्तराखंड : आओ-आओ, खूब आओ, स्नातक के हाथों मैगी खाओ, रसूखदारों की कृपा से जमीनें हथियाओं
चन्द्रेक बिष्ट, नैनीताल। उत्तराखंड राज्य बने 24 साल बीत गये। इन 24 सालों में मूल निवासियों को उनका वाजिब हक नहीं मिल पाया। सत्ताधारी दिल्ली में बैठे हुक्मरानों या कहें अपने आकाओं के इशारों पर उत्तराखंड के जल-जंगल व जमीन को राज्य के बाहरी लोगों को सौंपते चले गये। आज भी यही होता चला आ रहा है। एक तरफ सख्त भू-कानून लागू करने की लगातार खोखली घोषणाएं की जा रही है तो दूसरी ओर तेजी के साथ राज्य के बाहरी लोगों को जमीनें दी जा रही है। अब तो हालात इतने खतरनाक हो चुके हैं कि मूल निवासी अपने ही प्रदेश में दोयम दर्जे के नागरिक बनते जा रहे हैं। आज न मूल निवासियों को नौकरी मिल रही और न ठेकेदारी। हर तरह के संसाधन मूल निवासियों के हाथों खिसकते जा रहे हैं। मूल निवास की कट ऑफ डेट 1950 लागू करने के साथ ही प्रदेश में मजबूत भू.कानून लागू किया जाना बेहद जरूरी है। मूल निवास का मुद्दा उत्तराखंड की पहचान के साथ ही यहां के लोगों के भविष्य से भी जुड़ा है। मूल निवास, भू-कानून समन्वय संघर्ष समिति के संयोजक मोहित डिमरी कहते हैं कि 40 से ज्यादा आंदोलनकारियों की शहादत से हासिल हुआ हमारा उत्तराखंड राज्य आज 24 साल बाद भी अपनी पहचान के संकट से जूझ रहा है। डिमरी का यह भी कहना है कि मूल निवास की लड़ाई जीते बिना उत्तराखंड का भविष्य असुरक्षित है। मजबूत भू-कानून न होने से पूरे उत्तराखंड में जमीनों की खुली बंदरबांट चल रही है। इससे राज्य की डेमोग्राफी बदल गई है। हमारे लोगों को जमीन का मालिक होना था और वे लोग रिसोर्ट, होटलों में नौकर, चौकीदार बनने के लिए विवश हैं। हम अपने लोगों को नौकर नहीं मालिक बनते हुए देखना चाहते हैं। आज राज्य अपराधियों का अड्डा बनता जा रहा है। सरेआम मूल निवासियों को मारा-पीटा जा रहा है। ड्रग्स और नशे के कारोबार कारण हमारे बच्चों का भविष्य ख़त्म हो रहा है। रोजगार, पलायन रोकने, लोगों की आर्थिक क्षमता बढ़ाने जैसी धोषणाएं नश्तर का काम कर रही है। विकास के नाम पर बाहरी कंपनिया नाजुक हिमालय की पसलियों में सेंध लगाकर उसे चीर डाल रहे हैं। लोग खोखले वादों से तंग आ चुके हैं, जिसके परिणामस्वरूप अराजकता के अलावा कुछ नहीं हुआ है। युवाओं के लिए रोजगार पैदा करने पर ध्यान केंद्रित नही किया जा रहा है, जो तेजी से नशे की लत में फंस रहे हैं, यह हमारे सामने सबसे बड़ी समस्या है। सालों से सत्ता में बैठे लोग अपने विशेषाधिकारों का आनंद लेते आ रहे हैं। इस आनंद में बाहरी लोगों को भी शामिल किया गया है। मुझे तो यही लगता है कि मान्यवर लोग सख्त भू-कानून तभी लायेंगे जब पूरा उत्तराखंड यहां के लोगों के हाथ से निकल जायेगा। क्योंकि दिल्ली में बैठे व्यावसायिक मानसिकता के आकाओं की भी यही मंशा है। नियंत्रित पर्यटन से उत्तराखंड की हालत अब पस्त हो जा रही है। मैदान से लेकर पहाड़ यानि हिमालय की वादियों तक अनियंत्रित भीड़, सड़कों, शहरों में वाहनों का जाम, कुछ लोगों को छोड़ अधिकांश लोग हतप्रभ। पर्यटन की बुनियादी सुविधाओं के बगैर आओ-आओ, खूब आओ की नीति ने पर्यटन की मान्यताओं को पलट कर रख दिया है। राज्य की स्थापना के दो दशकों के भीतर सरकारों ने दो बार पर्यटन नीतियां तो बनाई हैं लेकिन बेतरतीब विकास और दिशाहीन नियोजन के चलते ज़मीन पर उनका कोई बड़ा असर देखने को नहीं मिलता। उल्टे अनेक सुंदर जगहें अपना आकर्षण खो चुकी हैं। पर्यटन के माध्यम से स्थानीय जनों को रोजगार उपलब्ध कराये जाने के दावों की सबसे बड़ी उपलब्धि यही है कि दूरस्थ दुर्गम जगहों में भी मैगी पॉइंट या होम स्टे तो मिल जाते हैं यह बताने वाला कोई नहीं मिलता कि आगे का रास्ता खुला है या नहीं। अगर मैगी पॉइंट ही पर्यटन विकास है या फिर राज्य से बाहर के लोगों को उत्तराखंड के संवेदनशील स्थानों में रिजार्ट व विशालतम होटल खुलवा कर पर्यटन विकास है तो यह तर्कहीन ही है। राज्य के मूल निवासियों का यह अपमान के अलावा कुछ भी नहीं है। सवाल यह भी है कि मैगी पॉइंट देकर यहां के लोगों सिर्फ सपने दिखाये जा रहे है। स्थाई रोजगार, सरकारी नौकरियां कब मिलेगी, पर्यटन की बुनियादी सुविधाओं के बगैर आओ-आओ, खूब आओ की नीति कब तक चलेगी। विकास नाम के दैत्य ने हिमालय की पसलियों में सेंध लगाकर उसे चीर डाला है जिसका परिणाम लगातार हो रहे भूस्खलनों और अन्य आपदाओं की सूरत में दिखाई देने लगा है। जिस हिमालय को नीति.निर्माताओं ने उत्तराखंड के पर्यटन की रीढ़ बताया था उसी की लगातार अनदेखी की जाती रही हैए उत्तराखंड सिर्फ कराहने के अलावा कुछ नहीं कर पा रहा है। नौकरशाही व सत्ताधारी नेता अपनी पीठ थपथपा रहे है। विपक्ष का मौन संदेहास्पद है।