संस्कृति
कुमाऊं : चीर बंधन के साथ होती है खड़ी होली की शुरुआत, उस्ताद अमानत हुसैन ने रामपुर से आकर अल्मोडा में की थी शुरूआत
कुमाऊं: चीर बंधन के साथ होती है खड़ी होली की शुरुआत, उस्ताद अमानत हुसैन ने रामपुर से आकर अल्मोडा में की थी शुरूआत
जगमोहन रौतेला, नैनीताल। कुमाऊँ में अधिकतर त्यौहार मौसम चक्र के बदलने या फिर फसलों को बोने या फिर उन्हें काटने के बाद ही मनाये जाते रहे हैं। इस तरह हमारे त्योहार हमें जीवन चक्र की बारीकियों से अवगत ही नहीं कराते बल्कि उसके साथ हमें भावनात्मक रूप से जोड़ते भी रहे हैं। उल्लास, रंग और उमंग का नाम ही होली है। वैसे होली को लेकर कई पौराणिक प्रसंग हैं। पर कुमाऊं की होली का वर्तमान स्वरूप बहुत पुराना नहीं है। राजा कल्याण चंद के समय दरबारी गायन के संकेत मिलते हैं। कुमाऊँ की होली गायकी में ब्रज का प्रभाव बहुत ज्यादा है। इसके अलावा इसमें कन्नौज व रामपुर की गायकी का प्रभाव भी स्पष्ट देखा जा सकता है। रामपुर व कन्नौज का प्रभाव डेढ़ सौ वर्ष से कुछ अधिक पुराना माना जाता है। जब इसकी शुरूआत उस्ताद अमानत हुसैन ने रामपुर उत्तर प्रदेश से आकर अल्मोड़ा में की थी। कुमाऊँ में पौष मास के प्रथम रविवार से होली गायन की शुरुआत हो जाती है। यहां दो तरह की परम्परा है। एक है बैठ होली और दूसरी है खड़ी होली। खड़ी होली व बैठकी होली में दो-तीन दर्जन से अधिक महिलाएं व पुरुष वाद्य यंत्रों के साथ एक समूह बनाकर हर घर, गांव के मंदिर व चौपाल में भक्ति भाव से ओतप्रोत होकर होली गीत गाते हैं। बैठ होली के गीत कई प्रकार के राग.रागिनियों में ढले होते हैं। पुरानी होलियों को गायन परम्परा के माध्यम से ही लोक में जिंदा रखा गया। जिस कारण से सैकड़ों होलियों के रचयिताओं का कोई पता नहीं है। वे केवल लोक परम्परा के माध्यम से सामूहिक रूप से गाये जाने के कारण ही सदियों से आज तक गूंज रहे हैं। प्रारम्भ में इनका स्वरूप कैसा रहा होगा, कोई नहीं जानता। बैठ होली मुख्य रूप से काफी, श्याम, कल्याण, खमाज, पीलू, बिहाग, जयजयवंती, झिंझोटी, शहाना, पकज, देश, भैरवी आदि रागों में गाई जाती है। पौष मास के पहले रविवार से बैठ होली की शुरुआत होती है। कुछ दिन तक विष्णुपदी होली गायी जाती हैं इसे निर्वाण की होली भी कहा जाता है बसंत पंचमी के आने तक होल्यार और ज्यादा रस और रंगत में आने लगते हैं और बैठ होली में आने वाले होल्यारों की संख्या भी बढ़ने लगती है। महाशिवरात्रि के दिन शिव भक्ति से संबंधित होलियां ही प्रमुख रूप से गाई जाती हैं। पौष मास के प्रथम रविवार से शुरू हुई होली गायन की परम्परा प्रथम चरण व वसंत पंचमी से दूसरे चरण और महाशिवरात्रि से होली के टीके वाले दिन तक तीसरा चरण में चलती है। प्रथम चरण में भक्ति पूर्ण गीतों, दूसरे चरण में श्रृंगार प्रधान तथा तीसरे चरण में राधा.कृष्ण की छेड़छाड़-ठिठोली से युक्त होली के गीतों को गाया जाता है। खड़ी होली में चूँकि राग का बहुत महत्व नहीं होता इसी वजह से उसे मोटी होली भी कहा जाता है। खड़ी होलियों के गायन में गीतों के क्रम का ध्यान रखना होता है। विष्णुपदी होली से खड़ी होली के गायन की शुरुआत की जाती है। खड़ी होली की परंपरा में भी कई होलियां बैठ कर गाई जाती हैं। इसके लिए दो पक्ष बनाकर लोग बैठते हैं। एक पक्ष होली का गीत प्रारम्भ करता है और दूसरा पक्ष उसे दोहराता है। इन्हें ढोल व मजीरे की ताल के साथ स्वरबद्ध होकर गाया जाता है। खड़ी होली के गायन में विशेष तरह के नृत्य भी किये जाते हैं। खड़ी होली में बंजारा होली गाने की भी परंपरा है। इसमें होल्यार द्वारा होली की शुरुआत नहीं की जाती, बल्कि दो समूहों द्वारा समवेत स्वर में होली का गायन किया जाता है। गोरी प्यारो लगो, तेरो झनकारो जैसी होलियां इसमें गाई जाती हैं। पहले चरण की होली शाम के समय घर के भीतर पौष की कडा़के की ठंड में सगड़ की आग तापते हुए और गुड़ की कटक वाली चाय के स्वाद के बीच गाई जाती है। खड़ी होली का गायन रंग की एकादशी से शुरू होता है। इसमें पुरुष और महिलाएँ घेरा बनाकर नृत्य करते हुए सार्वजनिक स्थलों अथवा चीर बंधन वाले स्थान पर गाते हैं। खड़ी होली की कुछ होलियों में……मत भूलो यशोदा नन्दन को मन जपलो यशोदा नन्दन को, हाँ जी राधे यमुना अकेली मत जइयो, वहीं रहैं चित चोर राधे, एक ओर हर खेलें होरी, एक ओर नंदलाला बे, मत मारो मोहन पिचकारी, फूटे गागर भीजे चून, होरी खेले नंद को लाल मोसें फागुन में, वृंदावन में रास रचो है आदि प्रमुख हैं।
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