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संस्कृति

आज 01 नवंबर ईगास विशेष : उत्तराखंड की समृद्ध संस्कृति व परंपराओं का प्रतीक है बूढ़ी दिवाली का पर्व

आज 01 नवंबर ईगास विशेष : उत्तराखंड की समृद्ध संस्कृति और परंपराओं का प्रतीक है बूढ़ी दिवाली का पर्व

प्रो. ललित तिवारी, नैनीताल। देव भूमि उत्तराखंड की प्राकृतिक  विविधता एवं पर्व प्रकृति के साथ ईश्वर के दर्शन  भिन्न भिन्न रूप में कराते है इगास (बूढ़ी दिवाली) की   पौराणिक  मान्यता अनुसार, भगवान राम के लंका विजय के बाद अयोध्या लौटने की खबर 11 दिन बाद पहाड़ों तक पहुँची थी, इसलिए वहां के लोगों ने 11 दिन बाद  दीपावली मनाई तथा ऐतिहासिक मान्यता है कि गढ़वाल के वीर माधो सिंह भंडारी तिब्बत युद्ध जीतकर 11 दिन बाद लौटे थे, जिसकी खुशी में यह पर्व मनाया गया था। वीरता तथा श्री राम के लौटने की खुशी का उत्सव 400 वर्ष पुराना माना जाता है। इगास उत्तराखंड की समृद्ध संस्कृति और परंपराओं का प्रतीक है तथा यह पर्व कार्तिक शुक्ल एकादशी को मनाया जाता है, जो भगवान विष्णु के चार महीने के विश्राम काल की समाप्ति का प्रतीक है और नए कार्यों के लिए शुभ माना जाता है।  इसे भैलो उत्सव भी कहते है। इस दिन भैलो नामक मशाल की रोशनी में लोकगीत और नृत्य का आयोजन होता है। इगास  को बूढ़ी दीपावली भी कहा जाता है, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में मनाया जाने वाला एक त्योहार है, जो दीपावली के लगभग 11 दिन बाद (देवप्रबोधिनी एकादशी को) मनाया जाता है। इस उत्सव में मशालें जलाकर, लोकगीत गाकर और पारंपरिक नृत्य करके जश्न मनाया जाता है। इसी को बूढ़ी दीवाली या इगास-बगवाल भी कहते है। लोग मशालें लेकर जुलूस एवं पारंपरिक वाद्य यंत्रों की धुन पर लोकगीत गाए जाते हैं और लोकनृत्य किया जाता है। इसी दिन पशुओं के लिए विशेष भोजन (जैसे ‘पींडू’) बनाया जाता है और उनकी पूजा की जाती है। ईगास पर्यावरण के प्रति सम्मान का लोक पर्व है जिसमें प्राकृतिक संसाधनों, जैसे चीड़ की लकड़ी से बने ‘भैलो’ (मशाल), का उपयोग होता है और यह पटाखों  के बिना उत्सव मनाने का एक पर्यावरण-अनुकूल तरीका है। इस त्योहार में लोग प्रकृति के साथ मिलकर लोक गीत गाते हैं और नृत्य करते हैं, जो उनके जीवन और प्राकृतिक पर्यावरण के बीच गहरे संबंध को दर्शाता है। इगास पर्व का मुख्य आकर्षण ‘भैलो’ खेलना है, जिसमें चीड़ या अन्य स्थानीय ज्वलनशील लकड़ी से बनी मशालों को जलाया और घुमाया जाता है। इस लोक पर्व में चीड़ की लकड़ी (छिल्ला) और स्थानीय वन उत्पादों को सम्मान देता है।भैल्लो पेड़ के लगूले (बेल) या विशेष प्रकार की रस्सी से चीड़, भंजीरे, भीमल, तिल, हिस्सर की सूखी लकड़ियों का गट्ठर बांधकर भैल्लो जलाकर “भैल्लो बग्वाली” गाते हुए अपने दोनों ओर घुमाकर एक-दूसरे से लड़ाया जाता है। भैल्लो को अपने पर दो बार घुमाने का उद्देश्य पवित्र अग्नि के द्वारा अपने भीतर छिपी विसंगति और नकारात्मक्ता को दूर करना ही है। इगास की परंपराएं और अनुष्ठान उत्तराखंड के लोगों के अपने प्राकृतिक पर्यावरण के साथ घनिष्ठ संबंध को दर्शाते हैं, जहां वे प्रकृति के साथ सामंजस्य कर जीवन जीते हैं।

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