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धर्मक्षेत्र

नंदा महोत्सव 2024 : यशोदा की संतान भी मानी गई है मां नंदा देवी

किवदंती में कंस के हाथों से बची कन्या ही है हिमालय नंदाकोट की नंदा
आज नंदा सुनंदा की प्रतिमाओं की प्राण प्रतिष्ठा के बाद  पूजन के लिए स्थापित किया
चन्द्रेक बिष्ट, नैनीताल।
उत्तराखंड की कुल देवी नंदा को कई रूपों में पूजा जाता है। इन दिनों नैनीताल- अल्मोड़ा सहित विभिन्न स्थानों में नंदा की अनवरत पुजा हो रही है। बुधवार को नैनीताल सहित तमाम नंदा मंदिरों में ब्रह्म मुहूर्त में नंदा सुनंदा की प्रतिमाओं की प्राण प्रतिष्ठा के बाद उन्हें आम भक्तों के लिए पूजन के लिए स्थापित कर दिया गया है। कुमाऊँ मंड़ल के अतिरिक्त भी नंदादेवी समूचे गढ़वाल और हिमालय के अन्य भागों में जन सामान्य की लोकप्रिय देवी हैं। नंदा की उपासना प्राचीन काल से ही किये जाने के प्रमाण धार्मिक ग्रंथों, उपनिषद और पुराणों में मिलते है । रुप मंडन में पार्वती को गौरी के छ रुपों में एक बताया गया है। भगवती की 6 अंगभूत देवियों में नंदा भी एक है। नंदा को नवदुर्गाओं में से भी एक बताया गया है। भविष्य पुराण में जिन दुर्गाओं का उल्लेख है उनमें महालक्ष्मी, नंदा, क्षेमकरी, शिवदूती, महाटूँडाए भ्रामरी चंद्र मंडल रेवती और हरसिद्धि हैं । शिवपुराण में वर्णित नंदा तीर्थ वास्तव में कूर्माचल ही है। शक्ति के रुप में नंदा ही सारे हिमालय में पूजित हैं। उत्तराखंड की आराध्य देवी नंदा के कई रूप माने गये है। जहां वह चन्द राजाओं की कुलदेवी मानी गई है। वहीं वह पार्वती व सती के रूप में भी पूजी जाती है। शैलपुत्री भी नंदा को माना गया है। नंदा नवदुर्गा के रूप में भी विराजमान मानी गई है। किवदंतियों में भी नंदा को नंद यशोदा की संतान कहा गया है। जब नंद यशोदा की आठवीं संतान के रूप में कन्या पैदा हुई तो मामा कंस ने उसे मारना चाहा तो वह उड़ कर हिमालय की ओर आ गई। कहा जाता है कि हिमालय के नंदाकोट चोटी ही नंदा का घर है। इस चोटी में बसी ही मां नंदा है। आज भी लोग नंदाकोट पर्वत को नंदा का निवास मान कर उसकी पूजा करते है। इन दिनों इसी नंदा की पर्वतीय क्षेत्रों ही नही वरन मैदानों में भी पूजा अर्चना की जा रही है। मालूम हो कि नंदा देवी मेला आयोजित करने की उत्तराखंड में प्राचीन परंपरा है। ऐतिहासिक दस्तावेजों के मुताबिक 600 वर्ष पूर्व गढ़वाल से पूजन व मेलों का आरंभ हुआ। 16 वीं सदी में नंदा मेला मनाने की शरूआत इतिहासकार मानते हैं। चन्द राजाओं ने अल्मोड़ा में मेले का आयोजन शुरू करवाया। नंदा को चन्द राजाओं की कुलदेवी माना जाता है। लेकिन उत्तराखंड में मां नंदा कई रूपों में पूजी जाती है। उसका एक रूप सती का भी माना गया है। नैनीताल में नैनी झील का संबंध सती से भी बताया गया है। नंदा को नंद यशोदा की पुत्री भी माना गया है। किवदंती के अनुसार जब आकाशवाणी से कंस को पता चला कि उसकी बहन देवकी की आठवीं संतान से ही उसका काल होगा तो उसने देवकी व वासुदेव को कारागार में डाल दिया। कंस ने एक-एक कर देवकी व वासुदेव की सात संतानों को कारागार की शिलाओं में पटक कर मार डाला। आठवीं संतान के रूप में जब कारागार में कृष्ण का जन्म हुआ। इसी समय कारागार के पहरेदार सो गये और एक अज्ञात प्रेरणा से वासुदेव कृष्ण को यमुना पार करा कर गोकुल नंद के घर पहुंचा आये। वहां नंद यशोदा से जन्मी कन्या को कारागार ले आये। जब कंस को देवकी की आठवीं संतान होने की सूचना मिली तो वह कारागार पहुंच गया। जैसे ही उसने कन्या को शिला में पटक कर मारने का प्रयास किया तो कन्या यह आकाशवाणी करते हुए आकाश मार्ग से हिमालय की ओर चली गई कि कंस को मारने वाला तो गोकुल में पैदा हो चुका है। कहा जाता है कि यह कन्या आकाश मार्ग से उड़ती हुई नंदाकोट शिखर पर बस गई। इसी चोटी को नंदा शिखर कहा जाता है। माना जाता है कि उत्तराखंड के जिन स्थानों से इस शिखर के दर्शन होते हैं वहां नंदा शिखर यानी कोट को नंदा के आवास की मान्यता देकर उस दिशा की ओ पूजा की जाती है।
शास्त्रों व पुराणों में भी है नंदा के नाम का उल्लेख
नैनीताल। राज पुरोहित स्व. पंडित दामोदर जोशी के मुताबिक नंदा देवी का उल्लेख शास्त्रों व पुराणों में भी है। गिरीराज हिमाचल के यहां वह नंदा-सुनंदा के नाम से जानी जाती है, वहीं देवी संसार में सताक्षी, शाकंभरी, दुर्गा, परारंबा, भीमादेवी व भ्रामरी आदि के नामों से पूजी जाती है। उत्तराखंड में परांबा ही नंदा देवी है। सती का नेत्र गिरने से वही नैना देवी कही गई। नैना के नाम से ही नैनीताल नाम हुआ। ताल का स्वरूप आंखों की तरह है यहां वह नयना देवी कहलाई। कुमाऊ में अल्मोड़ा, रणचूला, डंगोली, बदियाकोट, सोराग, कर्मी, पौथी, चिल्ठा, सरमूल आदि में नंदा के मंदिर हैं। अनेक स्थानों पर नंदा के सम्मान में मेलों के रुप में समारोह आयोजित होते हैं । नंदाष्टमी को कोट की माई का मेला और नैतीताल में नंदादेवी मेला अपनी सम्पन्न लोक विरासत के कारण कुछ अलग ही छटा लिये होते हैं परन्तु अल्मोड़ा नगर के मध्य में स्थित ऐतिहासिकता नंदादेवी मंदिर में प्रतिवर्ष भाद्र मास की शुक्ल पक्ष की अष्टमी को लगने वाले मेले की रौनक ही कुछ अलग है ।
गढ़वाल से कुमाऊं में हुई नंदा की प्रतिमा स्थापित
नैनीताल। उत्तराखंड के गढ़वाल में देवी रूप में नंदा को पूजा जाता है। कुमाऊं में यही देवी नंदा-सुनंदा के रूप में पूजी जाती है। इतिहास में इसका रोचक वर्णन है। इतिहासविद् प्रो. अजय रावत के अनुसार जब 17 वीं शताब्दी में चन्द राजा बाजबहादुर के राज्य में रोहिलों व अंग्रेजों की ओर से राज्य हड़पने की कोशिश की जा रही थी तो राजा बाजबहादुर गढ़वाल के परमारवंशीय शासक पृथ्वीपद शाह से सहायता मांगने पहुंचे तब पृथ्वीपद शाह से राजा को यह भी ज्ञात हुआ की मां नंदा की पूजा करने के कारण उन्हें दुश्मनों का कोई भय भी नही है। गढ़वाल के राजा ने बाजबहादुर चन्द को सुझाव दिया कि वह नंदा की प्रतिमा को लेकर कुमाऊं में स्थापित करें। राजा प्रतिमा को लेकर जब गढ़वाल से लेकर बैजनाथ बागेश्वर पहुंचे और कोट नामक स्थान पर उन्होंने रात्रि विश्राम किया। जब सिपाहियों ने देवी प्रतिमा को उठाने की कोशिश की तो प्रतिमा दो भागों में विभाजित हो गई। तब राजा ने दोनों प्रतिमाओं को अल्मोड़ा में स्थापित करवाया और इन्हें नंदा सुनंदा का नाम दिया गया।  चन्द राजाओं की बहनों का नाम भी नंदा-सुनंदा था। मां नंदा की शक्ति का भी जिक्र करते हुए इतिहासकारों ने कहा है कि 1816 में अंग्रेज कमिश्नर ट्रेल ने अल्मोड़ा के मल्लामहल में स्थापित नंदा मंदिर को अल्मोड़ा के उत्तरी स्थान पर स्थापित करवाया तो वह अंधा हो गया। स्वप्न में उसे मां की पूजा करने का आदेश हुआ। ईसाई होने के बावजूद कमिश्नर ट्रेल ने मां नंदा की पूजा करवाई उसके बाद वह देखने लगा।

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