धर्मक्षेत्र
शारदीय नवरात्र पर विशेष: प्रथम शैलपुत्री नवदुर्गा के रूप में पूजी जाती है नैनीताल की मां नयना देवी
नयना देवी को शैलपुत्री व सती की मान्यता होने पर यहां पूजा की विशेष महत्ता
सती की काया का बांया आंख गिरने से नयना के आकार की झील ने लिया स्वरूप
चन्द्रेक बिष्ट, नैनीताल। उत्तराखंड में पुरातन काल से ही मां नंदा देवी को कुलदेवी का दर्जा प्राप्त है। नैनीताल स्थित मां नयना देवी को जहां मां नंदा देवी का प्रतिरूप माना जाता है। वहीं इसे सती व प्रथम शैलपुत्री नवदुर्गा के रूप में भी मान्यता प्राप्त है। नवरात्रों में मां नयना देवी नव दुर्गा के रूप में पूजी जाती है। वहीं पर्वतीय क्षेत्र में कुलदेवी के रूप मंे पूजी जा रही हंै। मां पार्वती का एक नाम नंदा भी है। उत्तराखंड के लोग उसे विवाहित बेटी मानते है। शारदीय नवरात्र में दूर-दूर से लोग नयना देवी की विशेष पूजा करने के लिए नैनीताल पहुंचते है। आज गुरुवार से शुरू होने वाले नवरात्रों में यहां विशेष पूजा अर्चना शुरू हो जायेगी। नैनीताल की नयना देवी को शैल पुत्री व सती की भी मान्यता है। स्कंद पुराण के मानस खंड में नैनीताल का जिक्र त्रिऋषि सरोवर के नाम से है। शिव पुराण के रूद्र संहिता के सती खंड के मुताबिक जब सती के पिता दक्ष प्रजापति ने कनखल हरिद्वार में महायज्ञ का आयोजन किया तो सती के पति भगवान शिव को इस यज्ञ में नही बुलाया। दरअसल दक्ष प्रजापति शिव-सती के विवाह से नाराज थे। पिता द्वारा शिव को नही बुलाये जाने पर क्रोधित सती महायज्ञ में पहुंच गई। जब महायज्ञ में हवन हो रहा था तो क्रोधित सती हवन कुंड में प्रवेश कर लिया। जिससे सती अर्द्ध भस्म हो गई। जब इसका पता शिव को लगा तो वह तांडव करते महायज्ञ स्थल पर पहुंच गये। सती के अर्द्ध भस्म काया को लेकर वह कैलास की ओर आ गये। शिव के इस रूप से चिंतित विष्णु भगवान ने सती की काया को कई हिस्सों में विभाजित कर दिया। माना जाता है कि इस स्थान सती की काया का बांया आंख गिर गया। इस स्थान पर नयना अर्थात नैना के आकार की झील बन गई। इसी से प्रेरित नैना या नयना मंदिर स्थापित हुआ। नयना देवी के बावत कई किवदंतियां भी है। नयना देवी की इस मान्यता के कारण ही यहां लोग पूजा अर्चना करना सर्वाधिक उत्तम मानते है।
त्रिऋषि सरोवर में सदियों से पूजा होती रही मां दुर्गा की
नैनीताल। सरोवर नगरी में देवी की पूजा कब से होती है इसका कहीं सही उल्लेख नही है। लेकिन माना जाता है कि यहां सदियों से पूजा होती है। ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार 1841 में पी बैरन द्वारा नैनीताल की खोज से पूर्व यहां देवी का मंदिर वर्तमान बोट हाउस क्लब के पास था। वर्ष 18 सितम्बर 1880 में आल्मा पहाड़ी पर भयानक भू-स्खलन के कारण यह मंदिर ध्वस्त हो गया था। बाद में स्व. मोती राम साह द्वारा मंदिर के कुछ अवशेषों को लेकर वर्तमान नयना देवी मंदिर की स्थापना वर्ष 1883 को की गई थी। आज यह मंदिर भव्य स्वरूप धारण कर चुका है। यहां हर वर्ष प्रसिद्ध नंदा देवी मेला का आयोजन के साथ ही नव रात्रों में विशेष पूजा अर्चना का आयोजन किया जाता है। मंदिर का रखरखाव मां नयना देवी ट्रस्ट द्वारा किया जाता है।
कुमाऊं में शक्ति के रूप में किया है मां नंदा ने पदापर्ण
नैनीताल। उत्तराखंड के गढ़वाल में देवी रूप में नंदा को पूजा जाता है। कुमाऊं में यही देवी नंदा-सुनंदा के रूप में पूजी जाती है। इतिहास में इसका रोचक वर्णन है। इतिहासविद् प्रो. अजय रावत के अनुसार जब 17 वीं शताब्दी में चन्द राजा बाजबहादुर के राज्य में रोहिलों व अंग्रेजों की ओर से राज्य हड़पने की कोशिश की जा रही थी तो राजा बाजबहादुर गढ़वाल के परमार वंशीय शासक पृथ्वीपद शाह से सहायता मांगने पहुंचे तब पृथ्वीपद शाह से राजा को यह भी ज्ञात हुआ की मां नंदा की पूजा करने के कारण उन्हें दुश्मनों का कोई भय भी नही है। गढ़वाल के राजा ने बाजबहादुर चन्द को सुझाव दिया कि वह नंदा की प्रतिमा को लेकर कुमाऊं में स्थापित करें। राजा प्रतिमा को लेकर जब गढ़वाल से लेकर बैजनाथ बागेश्वर पहुंचे और कोट नामक स्थान पर उन्होंने रात्रि विश्राम किया। जब सिपाहियों ने देवी प्रतिमा को उठाने की कोशिश की तो प्रतिमा दो भागों में विभाजित हो गई। तब राजा ने दोनों प्रतिमाओं को अल्मोड़ा में स्थापित करवाया और इन्हें नंदा सुनंदा का नाम दिया गया। चन्द राजाओं की बहनों का नाम भी नंदा-सुनंदा था। मां नंदा की शक्ति का भी जिक्र करते हुए इतिहासकारों ने कहा है कि 1816 में अंग्रेज कमिश्नर ट्रेल ने अल्मोड़ा के मल्लामहल में स्थापित नंदा मंदिर को अल्मोड़ा के उत्तरी स्थान पर स्थापित करवाया तो वह अंधा हो गया। स्वप्न में उसे मां की पूजा करने का आदेश हुआ। ईसाई होने के बावजूद कमिश्नर ट्रेल ने मां नंदा की पूजा करवाई उसके बाद वह देखने लगा।