नैनीताल
आगे के पीछे तक की आत्मीय यात्रा : प्रो. लक्ष्मण सिंह बिष्ट बटरोही
आगे के पीछे तक की आत्मीय यात्रा : प्रो. लक्ष्मण सिंह बिष्ट बटरोही
प्रो. लक्ष्मण सिंह बिष्ट बटरोही, नैनीताल। आज सुबह युवा दिनों के अपने मित्र देवेन मेवाड़ी के साथ एक घंटे से अधिक फोन पर बाते हुई. वो शताब्दी से दिल्ली से देहरादून जा रहे थे, जहाँ वो अपने युवा दोस्तों के साथ किस्सों-कथाओं का सहारा लेकर विज्ञान पर बातें करेंगे. कल की बातचीत के बाद परसों पंचकूला और फिर वहां से अन्यत्र. करीब एक सप्ताह का उनका कार्यक्रम तय है. विज्ञान लेखक के रूप में ख्याति अर्जित कर चुके देवेन विगत अनेक वर्षों से बच्चों-किशोरों के बीच जाकर वैज्ञानिक चेतना के संस्कार जगाने का काम कर रहे हैं. उनके साथ अच्छी बात यह है कि वे अध्यापक नहीं रहे हैं इसलिए औपचारिक शिक्षा के तरीकों का दबाव उन पर नहीं है. विज्ञान के जटिल तंत्र और जिज्ञासाओं को लेकर किस्सों की शैली में किशोरों-बच्चों के साथ उन्हें हिंदी में साझा करते हैं. हालाँकि वो देश के अनेक प्रान्तों में जा चुके हैं, दूर-दराज के क्षेत्रों के पच्चीस हजार से अधिक युवाओं-किशोरों को अपना दोस्त बना चुके हैं, मगर आज भी मन में इच्छा है कि पहाड़ के दूर-दराज के कस्बाई-ग्रामीण किशोरों के बीच वो संपर्क कर सकें. किसी भी नई जगह जाकर वो सबसे पहले किशोरों-युवाओं से संपर्क करते हैं और फ़ौरन उनकी उम्र में खुद को लौटाकर उनसे बतियाने लगते हैं. उनके मित्र इस बात को जानते हैं कि जब भी वो मित्रों के परिवार के बीच जाते हैं, सबसे पहले बच्चों से मिलते हैं और उनसे दोस्ती करते हैं. कुछ महीने पहले उन्होंने उत्तरकाशी और आस-पास के ग्रामीण-कस्बाई स्कूलों के विद्यार्थियों के साथ अपनी यह यात्रा की जो उन्हें सचमुच अपने उन सपनों की ओर लौटा ले गई जो उन्होंने एक विज्ञान-विद्यार्थी के रूप में देखे थे. उन्हें अपने कॉलेज के उन दिनों की बेहिसाब याद आई जब वो और उनके साथी (जिनमें एक मैं भी था) विज्ञान, कला या वाणिज्य की उन कक्षाओं में जाकर बैठ जाते थे जो हिंदी में बड़े रोचक ढंग से विद्यार्थियों से बातचीत करते थे. उनमें उसी वर्ष रसायन विज्ञान के क्षेत्र में अपना निबंध प्रस्तुत कर राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित ओंकारनाथ पर्ती थे और भौतिकी के हमारे प्राचार्य देवीदत्त पन्तजी जो बी. एससी. की कक्षाएं हिंदी में पढ़ाने के लिए दूर-दूर तक प्रसिद्ध थे. उनकी कक्षाएं तो हम अपनी कक्षाएं कट करके सुनते थे. देहरादून की ऐसी ही एक कार्यशाला का जिक्र करते हुए देवेन ने बताया कि कुमाऊँ विश्वविद्यालय के एक कार्यक्रम में कुलपति उद्घाटन सत्र के बाद यह कहकर चले गए थे कि उन्हें कहीं आवश्यक बैठक में जाना है, मगर कुछ ही देर बाद वापस आ गए और अगले सत्रों तक बैठे रहे.कुलपति ने प्राध्यापकों से कहा कि इस तरह की बातचीत प्रदेश के हर स्कूल-कॉलेजों में होनी चाहिए. हमारा सरकारी शिक्षा-तंत्र जिस तरह की औपचारिक दिखावे की बलि चढ़ता चला गया है, उसे देखते हुए कोई सकारात्मक पहल हो सकेगी, इसका पूर्वानुमान लगा पाना तो मुश्किल है, मगर देवेन और उन जैसे और कई लोगों की यह पहल जो अपने बचपन को लौटाकर आज के बच्चों के साथ वैचारिक यारी-दोस्ती कर रहे हैं, वह सरकार और नौकरशाहों को भले न जगा सके, अपने समाज को जरूर जगाएगी. और यही तो चाहिए भी. समाज जागेगा तो सरकार को जागना ही पड़ेगा. इस टिप्पणी के साथ जो चित्र साझा कर रहा हूँ, वो हम लोगों का वर्ष 1964-65 का है जब देवेन एम, एस-सी. प्रथम वर्ष (वनस्पति विज्ञान) के विद्यार्थी थे और मैं एम. ए. प्रथम वर्ष (हिंदी) का. हम लोग नैनीताल से निकलने वाली साप्ताहिक पत्रिका ‘पर्वतीय’ के कार्यालय में बैठे हैं. देवेन पत्रिका के विज्ञान संपादक थे और मैं साहित्य संपादक.
