नैनीताल
दोगांव की आलू टिक्की का क्रेज़, दरअसल दीवान सिंह के हाथों का करिश्मा
अशोक पांडे, नैनीताल। एक ज़माने में दोगांव की आलू टिक्की का क्रेज़ था.दरअसल यह दीवान सिंह के हाथों का करिश्मा ही है। हल्द्वानी-नैनीताल राजमार्ग पर हल्द्वानी से 14 किलोमीटर दूर दोगांव बहुत लम्बे समय से पहाड़ की तरफ आने-जाने वाली गाड़ियों का एक जरूरी पड़ाव होता था. बीस पच्चीस बरस पहले तक यहाँ केवल दो दुकानें हुआ करती थीं- एक मोड़ पर पानी के धारे से लगी हुई जबकि दूसरी उसके थोड़ा आगे सामने. यह दूसरी दुकान दीवान सिंह चम्याल की है जिसमें पिछले पचपन सालों से वह आलू की टिक्की बनाई जा रही है जिसे मैं एशिया की सबसे स्वादिष्ट टिक्की कहता आया हूँ . दीवान सिंह के हाथों बनी टिक्की का दिव्य स्वाद मेरी जीभ से किसी लत की तरह उन दिनों चिपका जब मेरा दाख़िला नैनीताल के एक बोर्डिंग स्कूल में हुआ. यह कोई पचास साल पुरानी बात है. टिक्की के साथ परोसे जाने वाले काले चनों की बात ही कुछ और होती थी जिन्हें रात भर भट्टी में लकड़ियों की आग में गलाया जाता था. वर्षों की साधना से दीवान सिंह जी टिक्की-चनों में डाले जाने वाले मसालों के अद्भुत संयोजन को इस कदर साध चुके थे कि उनकी अद्वितीयता की नक़ल दूसरा कोई कर ही नहीं सकता था. सात आठ साल पहले मैंने एक दफ़ा फुरसत में दीवान सिंह का इंटरव्यू किया था – बेहद विनम्र स्वभाव के इस कर्मठ आदमी को भारत की आज़ादी के दिन से लेकर हल्द्वानी-नैनीताल सड़क पर चलने वाली पहली गाड़ी तक की याद थी. कक्षा एक तक पढ़ सके दीवान सिंह ने अपना बचपन गाय-बकरियां चराने और घर के काम काज में हाथ बँटाने में बिताया. गर्मियों के सीजन में दीवान सिंह गाँव के अन्य बच्चों के साथ जंगल जाते और काफल, तिमिल, हिसालू, किल्मौड़ा जैसी जंगली बेरियाँ इकठ्ठी कर उन्हें बेचने नीचे दोगांव आ जाते थे. उन दिनों भी दोगांव में बहुत से पर्यटकों का आना-जाना लगा रहता था. इन पर्यटकों को लाने-ले जाने का काम रोडवेज और केमू की बसें किया करती थीं. उन्हें याद था उनके बचपन में रोडवेज में फुलमैन कंपनी की बसें और ठेले चला करते थे. यह भी कि बचपन में उन्हें इन बसों को देख कर डर लगता था – वे किसी जंगली जानवर की जैसी दिखाई देती थीं. इसके अलावा केमू की प्राइवेट बसें भी चलती थीं. इन बसों में में अपर और लोअर क्लास की देतें होती थीं जिनमें एक आना देकर दोगांव से बीरभट्टी और आठ आने में हल्द्वानी जाया जा सकता था. नैनीताल जाने वाली पहली बस हल्द्वानी के किन्हीं बख्शी जी की थी जबकि दूसरी बस नैनीताल के एक साह जी ने खरीदी. साह जी वाली बस का नम्बर उन्हें तब तक याद था – चौंतीस अठारह. हल्द्वानी-नैनीताल के बीच दो बसें चला करती थीं – एक सुबह और एक दिन में. बहरहाल उस इंटरव्यू की सारी तफ़सीलें यहाँ बताने की मेरी मंशा नहीं है. बचपन से ही उनकी लगाई स्वाद की लत ने मुझे बड़ा चटोरा बनाया. मुझसे भी बड़े ख़लीफ़ा चटोरे वीरेन डंगवाल थे जो कभी भी बरेली से सौ किलोमीटर का सफ़र तय करके मेरे पास आ जाया करते कि चलो तो यार टिक्की खाने दोगांव चलते हैं. चार पाँच साल पहले उनके ठिकाने पहुँचा तो देखा सामने की दीवार पर माला से सजी उनकी फ़ोटो टंगी हुई है. आगे दिया जल रहा है. पता चला नहीं रहे.। मुझे फिर वही दिन याद आया जब उनसे बातचीत की थी. पूछा कि उन्होंने ऐसी स्वादिष्ट टिक्की बनाना कहाँ सीखा तो वे सादगी से मुस्करा कर बोले थे – “खुद ही सीखा. मन हो तो सब कुछ सीखा जा सकता है!” उनकी यह सीख याद रह गई. हमेशा के लिए. जो करना है मन से करना है. बरसों से अपने लिखे में उनकी टिक्की का वैसा ही चरबरा स्वाद पैदा करने की कोशिश में लगा हूँ. कभी कामयाब हो सका तब भी ठीक, न हुआ तब भी. आज पहाड़ों की ओर जाते हुए उनके परिवार के लिए अपनी खींची उन्हीं की एक तस्वीर उनके सुपुत्र तारा को सौंपी. एक पल को लगा दीवान सिंह अपने बेटे की आँख से देखते हुए मुझ से कह रहे हैं – “ये काम तो पक्का मन से किया है तुमने बरख़ुरदार!” साभार-अशोक पांडे के फेसबुक वाल से
