नैनीताल
हर किसी का अपना-अपना बनवारी का तिकोना ज़रूर होता है
हर किसी का अपना-अपना बनवारी का तिकोना ज़रूर होता है
अशोक पांडे, नैनीताल। रामनगर में बौने के बमपकौड़े के बाद जो डिश सबसे फेमस थी उसे बनवारी का तिकोना कहा जाता था और बनवारी जिस चीज़ को तिकोना कहकर बनाता-बेचता था उसे ज़माना समोसा कहता आया था. और ज़माना जिस चीज़ को समोसा कह रहा था वो दरअसल सम्सा था जिसे हज़ार-बारह सौ या उससे भी ज़्यादा बरस पहले कज़ाकिस्तान या तुर्कमेनिस्तान के किसी उस्ताद नानबाई ने अपने तंदूर में बनाया था. नानबाई ने अपने पुरखों से सुदूर सिकन्दरिया के महान पिरामिडों की कहानियाँ सुन रखी थीं. रोज की तरह उस दिन भी तंदूर में डालने के लिए वह भरवां डबलरोटियों की लोइयां बना रहा था. रोज़ की तरह थोड़ा सा गुंदा हुआ आटा बच गया था जिसे वह मवेशियों के बरतन में डालने जा रहा था जब उसने देखा कि थोड़ा सा कीमा भी बच गया है. उसने कीमे में थोड़ा सा मसाला मिलाया और बचे हुए आटे की लोई में भरकर पिरामिड की सूरत देकर डबलरोटियों के साथ तंदूर में डाल दिया. जो चीज़ बनकर निकली उसके बेमिसाल स्वाद ने खुद नानबाई को हैरत में डाल दिया. पिरामिड की आकृति के लिए उसकी भाषा में सम्सा शब्द था सो उसने अपनी इस ईजाद को भी यही नाम दिया. इतिहास में जिसे सिल्क रूट कहा जाता है में उस सारे रास्ते पर शनैः-शनैः नानबाई के इस दिव्य कारनामे की कथाएँ चल निकलीं. मिस्र से लेकर लीबिया और चीन से लेकर ईरान तक सम्सा के शैदाई पैदा हो गए जिन्होंने आटे की लोइयों के भीतर कीमे से लेकर काजू-पिस्ता और तरबूज से लेकर गोभी जैसी हर चीज़ को भरकर अपने तरीक़े का सम्सा बनाया. किसी ने उसे सम्बूसा कहा किसी ने सम्बूसक. दिल्ली सल्तनत पर मुगलों के गद्दीनशीन होने के साथ ही मध्य-एशिया के तमाम रसोइये भी अपनी क़िस्मत आजमाने भारत चले आये. इन रसोइयों-बावर्चियों ने सम्सा को तंदूर से निकाल कर तेल की कढ़ाई तक पहुंचा दिया था. सो इस लज़ीज़ व्यंजन को अमीर खुसरो की ‘बाग़-ओ-बहार’ के दरवेशों के किस्सों में भी जगह मिली और इब्नबतूता के सफ़रनामों में भी. उधर ढाई हज़ार साल पहले सुदूर दक्षिण अमेरिका के बोलिविया और पेरू में रहने वाले किसानों ने टिटिकाका झील के किनारे आलू उगाना-खाना शुरू कर दिया. बाकी दुनिया को आलू से परिचित कराने का श्रेय आक्रान्ता जहाजियों-व्यापारियों को जाता है जो कोई तीन सौ बरस पहले आलू को यूरोप लेकर आए. यूरोप में लम्बे समय तक इसे जानवरों के लिए सस्ते भोजन की तरह इस्तेमाल किया गया. यही जहाजी पहले वेस्ट इंडीज़ और उसके बाद दक्षिणी भारत से कालीमिर्च लेकर पहुंचे थे. हम कभी नहीं जान पाएंगे कि जब यूरोप के किसी देश के किसी भूखे महात्मा ने पहली बार उबले आलू के ऊपर कालीमिर्च पाउडर छिड़ककर उदरस्थ किया होगा तो उसकी आत्मा ने कुदरत का शुक्रिया कैसे किया होगा. फिर यूं हुआ कि सारा यूरोप आलू खाने लगा. रूस वाले तो उसकी शराब बनाकर भी पीने लगे. भारत में आलू गोरों की मेहरबानी से आया. अपने प्रवेश के साथ ही वह हमारी रसोइयों में किसी देवता की तरह पूजा जाने लगा होगा क्योंकि उसके भीतर पेट के साथ साथ आत्मा को भर देने की कूव्वत मौजूद थी. फिर किसी उकताए हुए रसोइये ने सम्से के भीतर कीमे और पनीर की जगह आलू भर दिये. उसके बाद गदर हो गया. हरी चटनी में समोसे डुबोते हुए जिस स्वाद की कल्पना से जीभ तर हो जाती है, वह दुनिया भर के महाद्वीपों की शताब्दियों लम्बी यात्रा करने के बाद हम तक पहुंचा है. हर किसी का अपना-अपना बनवारी का तिकोना ज़रूर होता है. काफल ट्री से साभार
