नैनीताल
जयंती पर विशेष : पंडित गोविंद बल्लभ पंत की जीवनी सभी के लिए बेहद प्रेरणादायक
जयंती पर विशेष : पंडित गोविंद बल्लभ पंत की जीवनी सभी के लिए बेहद प्रेरणादायक
सीएन, नैनीताल। भारत के एक अमर स्वतंत्रता सेनानी और वरिष्ठ राजनेता पंडित गोविंद बल्लभ पंत के सम्मान में हर वर्ष 10 सितंबर को उनकी जयंती मनाई जाती है। भारत रत्न पंडित गोविंद बल्लभ पंत की जीवनी सभी के लिए बेहद प्रेरणादायक है। आजाद भारत में उत्तर प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री और भारत के चौथे गृह मंत्री गृहमंत्री के रूप में पंडित गोविन्द बल्लभ पंत ने कई महत्वपूर्ण विकास कार्य किए। उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले में ‘खूंट’ नामक गांव में 10 सितंबर 1887 में इनका जन्म हुआ था। एक महाराष्ट्रीयन मूल के ब्राह्मण परिवार में गोविंद बल्लभ पंत ने जन्म लिया था। उनके पिता का नाम ‘मनोरथ पंत’ तथा माता का नाम ‘गोविंदी बाई’ था। गोविंद जी के जन्म के कुछ सालों बाद उनके माता-पिता पौड़ी गढ़वाल रहने के लिए चले गए। जिसके पश्चात् वे अपनी मौसी ‘धनीदेवी’ के यहां रहने लगे। वर्ष 1899 में 12 वर्ष की छोटी आयु में उनका विवाह पंडित ‘बालादत्त जोशी’ की पुत्री ‘गंगा देवी’ से हुआ। अपनी प्रारंभिक शिक्षा गोविंद बल्लभ पंत ने माता पिता के छत्रछाया में ही पूर्ण किया। 1897 में एक स्थानीय ‘रामजे कॉलेज’ में प्राथमिक पाठशाला में उनका दाखिला करवाया गया। जब वे सातवीं कक्षा में पढ़ रहे थे, तो उनका विवाह गंगा देवी से हुआ। गोविंद जी को गणित, साहित्य और राजनीति जैसे विषयों में विशेष रूचि थी। बचपन से ही बल्लभ पंत पढ़ाई लिखाई में बहुत होशियार और हमेशा अपनी क्लास में सभी शिक्षकों के प्रिय भी रहे। इंटर के परीक्षा अच्छे नंबर से उत्तीर्ण करने के पश्चात इलाहाबाद विश्वविद्यालय में उन्होंने प्रवेश किया। साल 1907 में बीए से उन्होंने राजनीतिक, गणित तथा अंग्रेजी साहित्य जैसे विषयों को चुना।1909 में गोविंद जी ने कानून की डिग्री सर्वोच्च अंको से प्राप्त की। अध्ययन करने के साथ-साथ वे कांग्रेस के स्वयंसेवक गुट से भी मिले, इसके पश्चात इसके कार्यों में अपना योगदान देने लगे। कॉलेज की तरफ से उन्हें “लैम्सडेन अवार्ड” प्रदान किया गया। वर्ष 1910 में पुनः अल्मोड़ा जाकर उन्होंने वकालत शुरू कर दिया। इसी सिलसिले में वह रानीखेत जाने के पश्चात काशीपुर में भी गए। काशीपुर में गोविंद बल्लभ पंत ने एक स्थानीय संस्था “प्रेमसभा” का गठन किया, जिसके माध्यम से वे शिक्षा व साहित्य के प्रति लोगों में जागरूकता उत्पन्न करते थे। गोविंद बल्लभ पंत के विद्यार्थी जीवन में महात्मा गांधी और अन्य लोगों के कार्यों का बड़ा प्रभाव पड़ा। कांग्रेस पार्टी में शामिल होकर दिसंबर 1921 में उन्होंने गांधीजी के नेतृत्व में असहयोग आंदोलन में हिस्सा लिया। 9 अगस्त 1925 में हुए “काकोरी कांड” में पकड़े गए दोषियों के समर्थन में पंत जी ने एड़ी चोटी का जोर लगा दिया था। पंडित राम प्रसाद बिस्मिल और उनके साथियों को फांसी से बचाने के लिए मदन मोहन मालवीय के साथ मिलकर वायसराय को एक पत्र भी लिखा था, लेकिन उसे गांधी जी का समर्थन प्राप्त ना होने के कारण वे अपने लक्ष्य में असफल रहे।
साल 1930 में ब्रिटिशों के अन्याय पूर्ण नमक कानून को तोड़ने के लिए आयोजित किए गए “दांडी मार्च” में हिस्सा लेकर पंत जी ने आंदोलन को गति प्रदान की थी। जिसके बाद उन्हें और कई आंदोलनकारियों को कैद कर लिया गया था। उसी दरमियान वे नैनीताल से उत्तर प्रदेश विधानसभा के लिए ‘स्वराजवादी पार्टी’ के उम्मीदवार चुने गए। उम्मीदवार के पद पर रहते हुए, उन्होंने कई पक्षपात और अन्याय पूर्ण प्रचलित प्रथाओं को समाप्त करने के उद्देश्य से कार्य किया। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान महात्मा गांधी और सुभाष चंद्र बोस के बीच हुए वैचारिक मतभेदों को दूर करने के लिए भी पंत जी ने बहुत प्रयास किया था। वर्ष 1942 में भारत छोड़ो प्रस्ताव पर हस्ताक्षर करने के कारण गोविंद बल्लभ पंत को गिरफ्तार कर लिया गया था। 1945 तक वे और कई अन्य कांग्रेस समिति के सदस्य अहमदनगर किले में पूरे तीन सालों तक जेल में बंद रहे। जिसके बाद पंडित जवाहरलाल नेहरू को अपने स्वास्थ्य के खराब होने के झूठे बहाने पर पंत जी को जेल से छुड़वाने में सफलता मिली। आजाद भारत में जनसंख्या के लिहाज से सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री के रूप में गोविंद बल्लभ पंत जी को चुना गया। 17 जुलाई 1937 से लेकर 2 नवंबर 1939 तक ब्रिटिश भारत में संयुक्त प्रांत के प्रीमियर चुने गए। साल 1946 से लेकर 1954 तक गोविंद बल्लभ पंत ने उत्तर प्रदेश पहले मुख्यमंत्री के रूप में कार्य किया। मुख्यमंत्री के पद पर कार्यरत रहते हुए, प्रदेश में कई सुधार कार्य करवाएं। पुराने समय से चली आ रही जमींदारी प्रथा का उन्मूलन भी पंत जी के प्रयासों का ही परिणाम है। राजनीति में आने के बाद पंत जी ने ब्रिटिश सरकार द्वारा बनाए गए पक्षपात कानूनो का भी अंत किया। उन्होंने राज्य के छोटे-छोटे गांवों तक सुविधाएं पहुंचाने का प्रयत्न किया और लोगों को रोजगार प्रदान करने में भी महत्वपूर्ण कार्य किए। प्रशासन में रहते हुए गोविंद बल्लभ पंत अल्पसंख्यकों के लिए एक अलग निर्वाचन मंडल बनाए जाने के खिलाफ रहते थे। इसके पीछे उनका यह तर्क था, कि इससे समुदायों में विभाजन होगा और भाईचारा खत्म हो जाएगा। भारत सरकार के सबसे बड़े पदों में से एक गृह मंत्री के पद पर वर्ष 1955 से लेकर 1961 तक गोविंद बल्लभ पंत जी ने अपना योगदान दिया। सरदार वल्लभ भाई पटेल की मृत्यु के पश्चात उन्हें गृह मंत्री के पद के लिए चुना गया था। पूरे भारत में उन्होंने कुटीर उद्योगों को विकसित करने पर जोर दिया था। पंत जी ने अंग्रेजों द्वारा बनाए गए कुली- भिक्षुक कानून का भी बहुत विरोध किया था। इस कानून के अंतर्गत ब्रिटिश अधिकारी बिना कोई मूल्य चुकाए कुली और भिक्षुकों से अपने भारी-भरकम सामान को जबरजस्ती ढोने के लिए मजबूर कर सकते थे। देश में जमींदारी प्रथा को समाप्त करने के लिए पंत जी ने कई सुधार कार्य किए थे। पद पर रहते हुए उन्होंने हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलवाने के लिए कड़े प्रयास भी किए थे। गोविंद बल्लभ पंत ने शिक्षा के प्रति जनता में जागरूकता बढ़ाने के लिए कई योजनाएं लाई। साथ ही उन्होंने किसानों के दिक्कतों पर मुख्य रुप से ध्यान दिया और अस्पृश्यता और पक्षपात जैसे रूढ़ीवादी प्रथाओं के उन्मूलन को दिशा देने का कार्य किया था। देश के लिए समर्पित होने की भावना के साथ कला, साहित्य, सार्वजनिक सेवा, खेल और विज्ञान के क्षेत्र में अद्वितीय विकास को प्रोत्साहन देने के लिए वर्ष 1957 में गोविंद बल्लभ पंत को भारत के सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार “भारत रत्न” से सम्मानित किया गया। भारत सरकार में जब गोविंद बल्लभ पंत जी केंद्रीय गृह मंत्री के रूप में कार्यरत थे, उस दरमियान उनकी तबीयत अक्सर खराब रहती थी। 7 मार्च 1961 के दिन हार्टअटैक के कारण गोविंद बल्लभ पंत जी का निधन हो गया।