नैनीताल
पहाड़ के फलों का राजा काफल बाजार में, जायका ही नही रोगों के लिए रामबाण
खट्टे और मीठे स्वाद से भरपूर काफल का इस बार सीमित मात्रा में बाजार आना अच्छे संकेत नही
चन्द्रेक बिष्ट, नैनीताल। इन दिनों पहाड़ के फलों का राजा काफल बाजार में आया हुआ है। जो सबकी पसंद बना हुआ है। लेकिन इनका इस बार सीमित मात्रा में आना अच्छे संकेत नही है। रसीले, खट्टे और मीठे स्वाद से भरपूर काफल का स्वाद जंगलों की आग ने कम कर दिया है। बैशाख माह में पकने वाला काफल बाजार में विशेष पहुंच रखता है। जिससे स्थानीय ग्रामीणों जंगलों की आग आर्थिकी भी जुड़ी हुई है। काफल तीन महीने तक स्थानीय बेरोजगारों के लिए स्वरोजगार का भी साधन बनता है। इसके पेड़ ठंडी जलवायु में पाए जाते हैं। इसका लुभावना गुठली युक्त फल गुच्छों में लगता है। प्रारंभिक अवस्था में इसका रंग हरा होता है और अप्रैल माह के आखिर में यह फल पककर तैयार हो जाता है, तब इसका रंग बेहद लाल हो जाता है। काफल का वैज्ञानिक नाम मिरिका एस्कुलेंटा उत्तरी भारत और नेपाल के पर्वतीय क्षेत्र, मुख्यत: हिमालय के तलहटी क्षेत्र मैं पाया जाने वाला एक वृक्ष या विशाल झाड़ी है। ग्रीष्मकाल में इस पर लगने वाले फल पहाड़ी इलाकों में विशेष रूप से लोकप्रिय हैं। इसकी छाल का प्रयोग चर्मशोधन (टैंनिंग) के लिए किया जाता है। काफल का फल गर्मी में शरीर को ठंडक प्रदान करता है। साथ ही इसके फल को खाने से शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढाती है एवं हृदय रोग, मधुमय रोग उच्च एंव निम्न रक्त चाप नियान्त्रित होता है। वैसे तो ग्रीष्म ऋतू में यह फल हमारें दैनिक जीवन में बहुमूल्य कार्य तो करता ही है। आयुर्वेद में इसे कायफल के नाम से जाना जाता है! इसकी छाल में मायरीसीटीन,माय्रीसीट्रिन एवं ग्लायकोसाईड पाया जाता है मेघालय में इसे सोह-फी के नाम से जाना जाता है और आदिवासी लोग पारंपरिक चिकित्सा में इसका प्रयोग वर्षों से करते आ रहे हैं I विभिन्न शोध इसके फलों में एंटी-आक्सीडेंट गुणों के होने की पुष्टी करते हैं जिनसे शरीर में आक्सीडेटिव तनाव कम होता तथा हृदय सहित कैंसर एवं स्ट्रोक के होने की संभावना कम हो जाती है ..इसके फलों में पाए जानेवाले फायटोकेमिकल पोलीफेनोल सूजन कम करने सहित जीवाणु एवं विषाणुरोधी प्रभाव के लिए जाने जाते हैं ! काफल को भूख की अचूक दवा माना जाता है। मधुमेह के रोगियों के लिए भी इसका सेवन काफी लाभदायक है।
इस फल के बारे में अनेक लोककथाएं भी प्रचलित
कहा जाता है कि एक छोटी सी पहाडी पर एक घना जंगल था, उस पहाडी के पास गांव में एक औरत अपने बेटे के साथ रहती थी, महिला काफी गरीब थी, इसलिए उसे कई दिन बिना भोजन के ही बिताने पड़ते थे। अक्सर महिला और उसका बेटा जंगली फल खाकर ही अपना जीवन बिताते थे, महिला काफी मेहनत करती, एक दिन की बात है, वो जंगल से रसीले काफल के फल तोडकर लाई, उसने काफलों से भरी टोकरी अपने बेटे को सौंप दी, और बेटे से कहा कि वो काफल की हिफाजत करे तथा खुद खेतों में काम करने के लिए वापस चली गयी। रसभरे काफल देखकर बच्चे का मन काफल खाने को ललचाया, लेकिन अपनी मां की बात सुनकर उसने काफल का एक भी दाना नही खाया। शाम को महिला खेतों से जब काम कर वापस घर लौटी तो देखा कि काफल धूप में पड़े-पड़े थोड़ा सूख गए थे, जिससे उनकी मात्रा कम लग रही थी। यह देख कर उसका पारा सातवें आसमान पर आ गया, उसको लगा कि बच्चे ने टोकरी में से कुछ काफल खा लिये हैं। उसने गुस्से में एक बडा पत्थर बेटे की तरफ फेंका, जो गलती से बच्चे के सिर पर जा लगा और बच्चे की वहीँ मौत हो गयी। काफल के सूखे हुए फल बाहर ही पड़े रहे, महिला फिर कुछ दिन बाद जंगल गयी और शाम को वापस लौटी, उसने देखा काफल बारिश में भीग कर फूल गये थे और टोकरी फिर से वैसे ही भर गयी थी। उसे तुरंत ही अपनी गलती का अहसास हुआ एवं अपनी नासमझी पर बड़ा अफसोस होने लगा, लेकिन अब कुछ नहीं हो सकता था। उसने अपनी नासमझी में अपना बेटा खो दिया था। ऐसा कहा जाता है कि वह बच्चा आज भी घुघुती पक्षी बन कर अमर है, ये घुघुती पक्षी आज भी झुंडों में घुमते हैं और आवाज़ लगाते हैं काफल पाको, मैल नि चाखो..इस लोककथा से भी इस फल के महत्व को जाना जा सकता है। हाल के वर्षो में अन्य औषधीय वनस्पतियों की तरह अत्यधिक दोहन एवं पर्यावरणीय कारणों से काफल के पेड़ों की संख्या भी उत्तरोत्तर घटती रही है। आवश्यकता इसके सरंक्षण की है। कुल मिलाकर काफल अघोषित तौर पर उत्तराखण्ड का राजकीय फल का दर्जा हासिल किये हुए है।
पारंपरिक रूप से खायें काफल
हरा धनिया, लहसुन, हरी मिर्च, खड़े नमक का मसाला सिल-बट्टे में पीसकर तैयार किया जाये। उसके बाद इसे सरसों के कच्चे तेल के साथ काफलों में अच्छी तरह मिलाकर खाया जाये तो इसका स्वाद आपको अध्यात्मिक आनंद की अनुभूति देता है। इन्हें खाते हुए इसके बीजों को बाहर फेंकने के बजाय बाहरी सतह का सारा रस लेने के बाद निगल लिया जाये तो खाना आसान हो जाता है। अनुभवी लोग बताते हैं कि शास्त्रों के अनुसार यही काफल खाने की उचित विधि भी है और ऐसा करना पेट के लिए बहुत फायदेमंद हैं। काफल का फल और पेड़ दोनों ही औषधीय गुणों से भरपूर हैं। काफल के पेड़ की छाल, पत्तियां, फल भरपूर औषधीय गुण पाये जाते हैं। उत्तराखण्ड की पारंपरिक आयुर्वेदिक चिकित्सा में इसका खूब इस्तेमाल किया जाता है। इसे जुखाम, बुखार, रक्ताल्पता, अस्थमा और लीवर की बीमारियों में फायदेमंद माना जाता है।