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किताब-यायावर की यादें: लेखक देवेन्द्र मेवाड़ी की अपनी यादों के भावनापूर्ण सिलसिले

किताब-यायावर की यादें: लेखक देवेन्द्र मेवाड़ी की अपनी यादों के भावनापूर्ण सिलसिले
लक्ष्मण सिंह बिष्ट बटरोही, नैनीताल।
देवेन्द्र मेवाड़ी साहित्य की दुनिया में मेरा पहला प्यार था। दुर्भाग्य से हममें से कोई कविता नहीं लिखता था इसलिए रूखे गद्यकार बनकर रह गए और शायद इसीलिए रूखे प्रेमी भी हाँ, अगर वह लड़की होता तो हो सकता है कि मैं कवि बन चुका होता, मगर ऐसा संभव नहीं था क्योंकि विज्ञान की जानकारी के बावजूद हममें से कोई ऐसे खुले संस्कारों की उपज नहीं था और हम अपनी नस्ल बदलने की बात सोचते। ऐसा भी नहीं था कि हमारे मित्रों में लड़कियाँ नहीं थीं, उस उम्र में सभी के मन में खुद की अभिरुचि के व्यक्ति को चुनकर हमराही बनाने की इच्छा जागती है, हमारी भी जगी और वक़्त आने पर हमने हमराही चुने भी। देवेन जिंदगी भर कुढ़ता रहा कि मेरी तरह वह अपनी इच्छित लड़की के साथ शादी नहीं कर पाया, हालांकि उसे धीरे-धीरे मालूम हो ही गया कि जिस लड़की से मेरी शादी हुई वह कविता नहीं लिखती थी और न वह मेरी साहित्यिक मित्र थीं वह अपने गणित लगाता रहा मगर मेरा मामला खालिस एकतरफा था और घोर सस्पेंस के बाद शादी की पहल मुझे ही करनी पड़ी थीं अब ये बारीक बातें दोस्तों को क्या मालूम, जिंदगी जिस ढंग से सरकती गई, हम भी उसी के साथ सरकते चले गए, बिना किसी गिला-शिकायत के, दोस्तों के मामले में मैं भाग्यशाली रहा हूँ और अनजाने ही हर वर्गए अनुशासन  और रुचियों के लोगों से मेरे बेहद आत्मीय संबंध रहे हैं मेरे पहले साहित्यिक मित्र मेवाड़ी से कुछ ही पहले बने वीरेन डंगवाल और मोहम्मद सईद की साहित्य में कोई सीधी अभिरुचि नहीं थी दोनों मनमौजी और अपनी धुन में रहने वाले हालांकि एक.दूसरे के विरोधी दिखाई देने वाले आत्मलीन.से लड़के थें वीरेन बला का खुराफाती, वाचाल और बिना बात अपने निजी शौक बीच में घसीट लाता थां सईद चुप्पा और बोरिंग लड़का, जो मुख्य रूप से पुनर्जागरणकालीन यूरोपीय कलाकारों के संसार में खोया राहतं दोस्तों के साथ उबाऊ बातचीत करना और घर जाकर पेंटिंग करना उसका शौक थां उसकी रुचि घड़ी.रेडियो के कलपुर्जों के साथ खेलते रहने में ज्यादा थी, साहित्य की बातें तो शुरू में हम कम ही करतें। ब्रजेन्द्र नैलवाल था तो ग्रेजुएशन का हमारा सहपाठी ही, मगर इतना धीर.गंभीर कि उससे खुलकर हल्की-फुल्की बातें करने में डर लगता था। ब्रजेन्द्र बाद में आईपीएस अधिकारी बना, हालांकि उसने बचपन के दोस्तों के साथ अपना आत्मीय रिश्ता हमेशा बनाए रक्खा। नवीन शर्मा साहित्यकारों और दार्शनिकों से जुड़े चुटकुले सुनाते हुए कब गंभीर संवाद में लौट आता था, पता ही नहीं चलता था। पढ़ता-लिखता था मगर साहित्य-लेखन से दूर रहता था, प्रशासनिक अधिकारी बनना चाहता थाए जो वह बना। पूरन पंत और नंदू भगत तो एकदम शुरुआती दिनों के दोस्त थे, जिनके साथ कहानी लिखने.सुनाने की घोर प्रतिस्पर्धा रहती थी। मगर ये दोनों शहर के लड़के थे जो मुझे हमेशा मेरे गवईं सरोकारों से मुक्त होने के उपदेश देते हुए मुझमें हीनता भाव पैदा करते रहते। जब भी मेरी कोई कहानी कहीं छपती, दोनों दोस्तों के बीच प्रचारित करते रहते कि उन्होंने ही मेरी कहानी करेक्ट की हैए जिस कारण वो आज प्रकाशन योग्य बन पाई। लड़कियाँ देर से संपर्क में आईं जरूर, हालांकि उनमें से कुछ में कवि.व्यक्तित्व मौजूद था मगर हमराही तो किसी एक को ही बनना होता है, जिसे हम अंततः अपनी शर्त पर तलाश ही लेते हैं। मैंने और देवेन ने भी यह तलाश एक दिन पूरी कर ली। दोस्ती की इसी तलाश में जब हम सिरफिरों ने एक अर्ध.संस्था क्रैंक्स की नींव डाली। मेवाड़ी सारे दोस्तों में मेरा दाहिना हाथ था। देवेन के साथ मेरे जुड़ाव का बड़ा कारण उसका और मेरा समान पृष्ठभूमि में से अंकुरित होना था। वीरेन के पिता नैनीताल के एडीएम थे, ब्रजेन्द्र के पिता नैनीताल के थानेदार, जिनके साथ उन्मुक्त अंतरंगता के साथ उठना-बैठना संभव नहीं था जो देवेन के साथ मेरे लिए सहज ही संभव हो गया। देवेन के साथ जो एक और चीज मुझे जोड़ती थी, वो थी उसका ताज़ा-ताज़ा गाँव से शहर आया हुआ भोला व्यक्तित्व। गांव को लेकर उसके संभालकर रखा था। जल्दी ही हम लोगों के सामाजिक और साहित्यिक आदर्श भी एक बन गए, लेखक, विचारक और शौक भी लगभग समान। किताबें-पत्रिकाएं भी एक ही तरह की पढ़ने लगे, जुनून भी एक जैसे शाम होते ही खास जगह बैठकर साहित्य.चर्चा करना और अपने समकालीनों के रचना.संसार के बीच गोते लगाना देवेन के अलावा बाकी किसी और दोस्त में यह जुनून नहीं था, न ही वैसा खुलापन। टोलिया और मिताली गांगुली दोनों ही चित्रकार मित्र थे, उनके परिवार से कोई संबंध नहीं था, दोनों ही एक समृद्ध परिवार से जुड़े थे, मगर मिताली नए कलाकारों, खासकर अस्तित्ववादी चिंतकों की गहरी जानकार थी। मगर यह संदर्भ देवेन के संस्मरणों का है, इस छोटी.सी भूमिका को लिखने के पीछे राज यह है कि हाल ही में प्रकाशित मेवाड़ी की किताब यायावर की यादें को पढ़ने के बाद यादों का सिलसिला करवट लेने लगा। सारे संस्मरणों के बीच क्रैंक्स के हमारे दोस्त सईद और वीरेन के अलावा और कोई आत्मीय संस्मरण नहीं दिखा, मैंने इस सिलसिले में उनसे बातें भी कीं जिसके जवाब में बताया गया कि ये सारी यादें दिवंगत मित्रों की हैं। मगर मुझे लेकर तो किताब में अनेक प्रसंग मौजूद थे, इसलिए पृष्ठभूमि के रूप ये बातें देनी जरूरी हो गई थीं। क्रैंक्स के अलावा बाकी दोस्त देवेन के करियर के दिनों में अपनाई गई स्मृतियों के रिपोर्ताज हैं इसलिए सभी चित्रों में गुरु-गंभीर व्यक्तित्वों के प्रदान की गई उन प्रेरणाओं का जिक्र है जो किसी संवेदनशील युवा को आगे बढ़ाने में मदद करती हैं। वीरेन और सईद वाले आलेखों में इसलिए जो जीवंत और ताजगी है, वह बाकी में नहीं आ सकी है। बाकी जगह लेखक एक जिज्ञासु शिष्य की तरह सारे परिदृश्य का रेखांकन करता दिखाई देता है। अगर किताब में मानसी के जीवंत रेखाचित्र न होते, जो एक नवजात हाथों से उकेरे गए रेखांकन हैं, किताब की छवि एक पाठ्यपुस्तक गरिमा जैसी ही होती। हाल के वर्षों में एक रचनाकार देवेन के वृहद रचनाकर्म से गुजरने के बाद जिसने कला और विज्ञान के क्षेत्र में अनंत ऊंचाइयों तक छलांग लगाई हो, अपने चरित्रों को एक कमर्शियल पेंटर की तरह प्रस्तुत कर देना मात्र पाठक की प्यास नहीं बुझा पाता। लेखक अगर चरित्रों के भीतर घुसकर उनके अंतःकरण से जुड़े बारीक रेशे खींचकर बाहर ले आता तो निश्चय ही संस्मरण अधिक जीवंत हो उठते। ये सारे स्मृति चित्रण लेखक की अपनी यादों के भावनापूर्ण सिलसिले हैं, प्रेरक भी, फिर भी संबंधित लोगों की स्मृतियों के प्रति ऋण चुकाने के भावनापूर्ण उपक्रम लगते हैं। ये चित्र देवेन के सहज, भावुक चरित्र की बेलाग प्रस्तुतियाँ हैं, कलात्मक  प्रस्तुति भी।  261 पृष्ठों की इस आकर्षक किताब में बेटी मानसी के बनाए 20-22 बेहद जीवंत लेखांकन हैं जिनमें देवेन का और उसका आत्मचरित्र भी है जो एक तरह से देवेन.परिवार से जुड़ी कला.सर्जना की अनवरत विकसित हुई परंपरा का आकर्षक दस्तावेज़ है। संभावना प्रकाशन, हापुड़ से प्रकाशित प्रथम संस्करण की किताब आप यहां से मंगा सकते हैं, यायावर की यादें।
नोट-लक्ष्मण सिंह बिष्ट बटरोही  हिन्दी के जाने-माने उपन्यासकार.कहानीकार हैं। कुमाऊं विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रह चुके बटरोही रामगढ़ स्थित महादेवी वर्मा सृजन पीठ के संस्थापक और भूतपूर्व निदेशक हैं। उनकी मुख्य कृतियों में थोकदार किसी की नहीं सुनता, सड़क का भूगोल, अनाथ मोहल्ले के ठुल दा और महर ठाकुरों का गांव शामिल हैं। काफल ट्री से साभार

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