जन मुद्दे
उर्दू के मशहूर अफसानानिगार कृश्न चन्दर की किताब
उर्दू के मशहूर अफसानानिगार कृश्न चन्दर की किताब ‘मिट्टी के सनम’ ने बचपन में दिल को मोह लिया था। दशकों बाद संयोग से यह किताब मिल पड़ी तो पेश है उससे दिल को छू लेने वाला एक छोटा सा टुकड़ा। कश्मीर के आज के हालातों में इस संस्मरण का महत्व और भी अधिक बढ़ जाता है।)
सीएन, नैनीताल। अलिआबाद के जंगल की एक रात मैं विशेष रूप से याद रखता हूँ, उसे कभी नहीं भूल सकता। अगर वह रात मेरे जीवन में न आती तो शायद इस समय मैं अलिआबाद के इलाके का जिक्र भी न करता। यूँ कहना चाहिए कि वह रात मेरे जिहन में अलिआबाद के जंगल की आखिरी रात है। मैं बी. ए. का इम्तहान देकर लाहौर से पुंछ लौट रहा था और हाजी पीर के दर्रे से गुजरकर कोई तीसरे पहर के करीब अलिआबाद के डाक बंगले में पहुँचा था। साल में तीन चक्कर तो अलिआबाद के होते ही थे, इसलिए डाक बंगले के प्रत्येक व्यक्ति को व्यक्तिगत रूप से जानने लगा था। इसलिए मेरे आते ही हर एक ने मुझे हाथों-हाथ लिया। किसीने घोड़ा संभाला, किसी ने असबाब से लदे हुए खच्चर से असबाब उतारा। खुदाबख्श ने मेरे लिए एक उम्दा बेडरूम का दरवाजा खोल दिया। अल्लादित्ता मेरे पाँव दबाने लगा। मैंने पूछा, “क्या बात है? आज डाक बंगले में बहुत चहल-पहल है।’’ “रामदित्ता की शादी है!’’ अल्लादित्ता की आँखें प्रसन्नता से चमक रही थीं। “क्या कहते हो ?” मैंने खुशी से पूछा । रामदित्ते को मैं अच्छी तरह से जानता हूँ। डाक बंगले के ब्राह्मण रसोइये गंगाराम का इकलौता बेटा था। मैंने उसे अपनी उम्र के साथ-साथ बचपन से बढ़ कर जवान होते देखा था। इस बीच उसका बाप मर गया और उसे अपने बाप की जगह डाक बंगले का रसोइया नियुक्त कर दिया गया था। फिर उसकी विधवा माँ भी चल बसी, इस का शोक करते हुए कि वह अपने जीते-जी अपने बेटे की शादी न कर सकी। मगर करती भी कैसे ? दूरदराज सैकड़ों मील के रक्बे के अन्दर हाजी पीर और अलिआबाद और रंगड़ के इलाके में ब्राह्मण तो क्या, किसी हिन्दू का घर न था। इस पूरे इलाके में सिर्फ एक घर ब्राह्मण का था और वह गंगाराम का घर था, जो डाक बंगले का रसोइया था। मरने से पहले अभागी विधवा ने अपने दुःख का इजहार खुदाबख्श से किया था और सरदार खां से। और इन लोगों ने वादा कर लिया था कि वह जरूर जल्द से जल्द रामदित्ता का ब्याह किसी खरे ब्राह्मण घर में करा देंगे। मगर उन्हें कोई उम्मीद नहीं थी और मरती हुई माँ को कोई आशा नहीं थी और खुद रामदित्ता को ऐसी कोई आशा नहीं थी कि उसका ब्याह कभी हो सकेगा। साल पर साल गुजर गए, बात दिल में रही। खुदाबख्श और सरदार खाँ आते-जाते मुसाफिरों के दिल टटोलते रहे मगर यह बातें कभी रास्ते में तै होती हैं ? फिर एक बार पुंछ जाते हुए, रास्ते में एक तूफानी रात में सरदार खाँ बैरे को एक रात के लिए रंगड़ से कोई पन्द्रह-बीस कोस के फासले पर धुरी नाम के एक गाँव के एक घर में शरण लेनी पड़ी। यह गाँव भी मुसलमानों का था, मगर जिस घर में उसने पनाह ली, वह ब्राह्मणों का था। यह गरीब ब्राह्मण किसान का घर था। एक पति, एक पत्नी, दो लड़कियाँ– दोनों जवान, बड़ी का नाम कौशिल्या, छोटी का नाम गुलाबा। सरदार खाँ का दिल खुशी से खिलने लगा। उस वक्त उसने कुछ कहा नहीं, मगर वापस जाकर खुदाबख्श और अल्लादित्ते से इसका जिक्र किया, उन्होंने इलाके के नम्बरदार शाहबाज खाँ से जिक्र किया। अब किस्सा यह दरपेश था कि शादी की बातचीत कैसे चलाई जाए ? न लड़के का बाप जिन्दा था, न माँ। न दूर पार कोई रिश्तेदार बाकी था। लिहाजा यह काम अलिआबाद से दस कोस दूर रंगपूर के गाँव के ‘मौलवी खैरदीन’ के सुपुर्द किया गया कि इस शादी के सिलसिले में. धुरी गाँव का सफर इख्तियार करे और उस ब्राह्मण किसान की बड़ी लड़की के लिए रामदित्ता का पैगाम ले के जाए। एक बार मौलवी खैरदीन गया, दूसरी बार खुदाबख्श गया, तीसरा बार शहबाज खाँ नम्बरदार खुद गया। चैथी बार मौलवी खैरदीन और शहबाज खाँ दोनों रामदित्ता को लेके गए। महीनों की दौड़-धूप के बाद ब्राह्मण की बड़ी बेटी कौशिल्या से रामदित्ता की शादी पक्की कर दी गई, और आज वह शादी थी। उस रात डाक बंगले के लम्बे चैड़े सहन में बड़ी रोशनी थी। ढोल बज रहा था, औरतें गीत गा रही थीं, कोने-कोने में चीड़ की दीनियों के मुट्ठे जल रहे थे। सब बाराती मुसलमान थे, गीत गाने वाली औरतें मुसलमान थीं। बारात और शादी का सारा इन्तजाम एक मुसलमान शहबाज खां नम्बदार ने किया था। सिर्फ दूल्हा-दुलहिन हिन्दू थे और दुलहिन का बाप और उसकी बीवी और दुलहिन की बहिन। अलिआबाद से तीस कोस दूर छत्रपुर के गाँव से एक पंडित को बड़ी मुश्किल से इस ब्याह के लिए बुलाया गया था और लड़की के बाप को भी इस बात के लिए राजी किया था कि यह शादी डाक बंगले में ही हो। मगर पंडित ने एक अजब अड़चन डाल दी है। कहता है लड़के का बाप भी मौजूद होना चाहिए। बाप न हो, माँ हो, कोई और रिश्तेदार हो। शहबाज खाँ ने पंडित को बहुत समझाया कि हम लोग जो हैं। ‘‘मगर तुम मुसलमान हो!’’ पण्डित बोला- ‘‘तुम रामदित्ता के बाप कैसे बन सकते हो ?’’ सहसा मेरी आमद ने यह किस्सा हल कर दिया। हालाँकि मैं उम्र में रामदित्ता के बराबर था, मगर पण्डित ने चन्द लमहे मुझे संदेह की नजरों से देखकर जब अच्छी तरह से संतोष कर लिया कि मैं हिन्दू हूँ, तो उसने मुझे रामदित्ता का बाप स्वीकार कर लिया और ब्याह कराने पर राजी हो गया।शहबाज खाँ अपनी आँख से आँसू पोंछकर कहने लगा, ‘‘बाबू आज मेरा वायदा पूरा हो गया, आज मैंने बरहमन घर की कलम फिर से अलिआबाद में लगा दी।’’



























































