Connect with us

जन मुद्दे

हिमालय की दुर्गत : प्राकृतिक आपदा कहकर कब तक पाया जा सकता है छुटकारा

हिमालय की दुर्गत : प्राकृतिक आपदा कहकर कब तक पाया जा सकता है छुटकारा
सीएन, चमोली।
लोगों के चिल्लाने की आवाज आती है और अचानक पहाड़ से एक मलबा गिरता दिखता है और फिर किसी विस्फोट की आवाज के साथ सबकुछ धुल के बादलों के बीच शांत हो जाता है. लोगों के चिल्लाने की आवाज आती है और अचानक पानी का एक सैलाब आता है, इमारतें, गाड़ी सबकुछ इस सैलाब के साथ चला जाता है. हिमालय में प्राकृतिक आपदा के ऐसे वायरल वीडियो घिसी हुई खबर के साथ आये दिन सामने आते हैं. पिछले डेढ़ दशक में हिमालयी क्षेत्रों में दिखने वाले यह दृश्य अब इतने सामान्य हो चुके हैं कि अब इन्हें महज प्राकृतिक आपदा कहकर इनसे छुटकारा पा लिया जाता है. सामान्य अर्थों में कहें तो प्राकृतिक आपदा का अर्थ है प्रकृति की मार. ऐसी आपदा जिसका कारण प्राकृतिक हो. जिस घटना का कारण ही प्रकृति हो वहां जवाबदेही से मुक्ति मिल जाती है. पर क्या भारतीय हिमालयी क्षेत्र में हो रही इन घटनाओं के लिये केवल प्रकृति ज़िम्मेदार है. प्राकृतिक आपदा कही जाने वाली इन दुर्घटनाओं से जुड़े पिछले कुछ दिनों के आकड़े इस तरह हैं–
उत्तराखंड राज्य में पिछले 20 सालों में प्राकृतिक आपदाओं में 5,731 लोगों की मौत हुई है. मृतकों की इस संख्या में 2013 में आई केदारनाथ आपदा में मारे गये 5,784 लोगों की संख्या शामिल नहीं है. केदारनाथ आपदा से इतर उत्तराखंड राज्य में प्रति वर्ष 80 लोगों की जान प्राकृतिक आपदाओं के चलते गई.    
(डिजिटल समाचार चैनल लल्लनटॉप की रिपोर्ट आधारित आकड़े)
भारत के स्कूलों में पढ़ाई जाने वाली भूगोल की किताब में कक्षा छः से पढ़ाया जाता है कि हिमालय दुनिया का नवीनतम वलित पर्वत है. स्कूली किताबों में ही पढ़ाया जाता है कैसे हिमालय का निर्माण दो भू-गर्भिक प्लेटों के टकराने से होता है. बच्चों को समझाया जाता है हिमालय अभी भी बन रहा है. स्कूल में बच्चों से उम्मीद की जाती है कि हिमालय संरक्षण कैसे करें जैसे प्रश्नों के उत्तर में वह लिखें कि हिमालयी क्षेत्र का अनियंत्रित दोहन न हो, उनसे उम्मीद की जाती है कि वह अपने जवाब में सस्टेनेबल डेवलपमेंट जैसे भारी शब्दों का प्रयोग कर अपना उत्तर और आकर्षक बनाएं. स्कूल में पढ़ाई जाने वाली सभी बातें स्कूली किताबों तक रह जाती हैं. सड़क को विकास का पैमाना मान लिया जाता है. बड़े-बड़े भवन और सड़कों के जाल का निर्माण ही क्यों विकास के प्रतीक हैं? दरअसल यह दोनों हिमालयी क्षेत्र के नेताओं और छुटभय्ये नेताओं के लिये कैश क्राप का काम करते हैं. इन निर्माण कार्यों में करोड़ों के हेर-फेर की संभावनाएं रहती हैं. सड़क निर्माण कार्य में हिस्सेदारी का खेल ऐसा की जिसके हाथ जेसीबी का स्टेयरिंग लगता है वही पहाड़ काटने को तैयार रहता है. पॉलिसी मेकिंग में प्रतिनिधित्व का अभाव हिमालय की दुर्गत का एक अन्य कारण है. हिमालयी क्षेत्र से जुड़ी किसी भी योजना से पूर्व कभी स्थानीय जनता की राय ली जाती हो, कभी सुनने को नहीं मिलता. हां निर्माण कार्य के दौरान स्थानीय जनता शारीरिक मजदूरी करने में जरूर जुटी दिखती है. हिमालय और हिमालय में रहने वाले लोग एक दूसरे का सम्मान करते हुए वर्षों से रह रहे थे. दोनों के बीच पारस्परिक समन्वय का रिश्ता था. मसलन चारधाम यात्रा को ले लिया जाये. यहां के समाज ने प्रकृति का सम्मान करते हुए सामंजस्य बैठाया और तय किया कि धाम के कपाट एक वर्ष में केवल छः माह खोले जायेंगे. सामाजिक सहभागिता हिमालयी क्षेत्र में जीवन का अभिन्न हिस्सा थी विकास के नये मॉडल में इसका भी कोई स्थान नहीं है. हिमालय और स्थानीय लोगों के बीच सदियों से चले आ रहे रिश्ते अब शून्य होते जा रहे हैं. हिमालयी क्षेत्र में स्थानीय लोगों के हक-हकूक पूरी तरह समाप्ति की ओर हैं. पिछले तीन दशकों में स्थानीय लोगों के आये दिन छिनते अधिकारों ने एक चेतना शून्य समाज निर्मित किया है. स्थानीय लोगों का अपने आस-पास के जंगल और नदियों पर अधिकार जितना सीमित हुआ उतना अधिक जंगल और नदियों पर खतरा बढ़ता गया. क्या मानव जनित इन प्राकृतिक आपदाओं को मात्र प्राकृतिक आपदा कहना ठीक है? क्या पिछले 20 वर्षों में हुई लगभग 6000 मौतों की जिम्मेदार केवल प्रकृति है? हिमालय के विकास के नाम पर जबरन शहरीकरण थोपना कितना सही है? अनुत्तरित प्रश्नों की एक श्रृंखला है जिसके सामान्य उत्तर हम सभी जानते हैं सभवतः अपनी सहुलियत के हिसाब से हमने आपदा को हिमालय की नियति मान लिया है.      
काफल ट्री से साभार

More in जन मुद्दे

Trending News

Follow Facebook Page

About

आज के दौर में प्रौद्योगिकी का समाज और राष्ट्र के हित सदुपयोग सुनिश्चित करना भी चुनौती बन रहा है। ‘फेक न्यूज’ को हथियार बनाकर विरोधियों की इज्ज़त, सामाजिक प्रतिष्ठा को धूमिल करने के प्रयास भी हो रहे हैं। कंटेंट और फोटो-वीडियो को दुराग्रह से एडिट कर बल्क में प्रसारित कर दिए जाते हैं। हैकर्स बैंक एकाउंट और सोशल एकाउंट में सेंध लगा रहे हैं। चंद्रेक न्यूज़ इस संकल्प के साथ सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर दो वर्ष पूर्व उतरा है कि बिना किसी दुराग्रह के लोगों तक सटीक जानकारी और समाचार आदि संप्रेषित किए जाएं।समाज और राष्ट्र के प्रति जिम्मेदारी को समझते हुए हम उद्देश्य की ओर आगे बढ़ सकें, इसके लिए आपका प्रोत्साहन हमें और शक्ति प्रदान करेगा।

संपादक

Chandrek Bisht (Editor - Chandrek News)

संपादक: चन्द्रेक बिष्ट
बिष्ट कालोनी भूमियाधार, नैनीताल
फोन: +91 98378 06750
फोन: +91 97600 84374
ईमेल: [email protected]

BREAKING