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नैनीताल

कुमाऊं में चैत में बहनों व बेटियों को भिटौली देने की परम्परा……भै भुको, मैं सित…भै भुके, मैं सिती

कुमाऊं में चैत में बहनों व बेटियों को भिटौली देने की परम्परा……भै भुको, मैं सिती……भै भुके, मैं सिती
जगमोहन रौतेला, हल्द्वानी।
उत्तराखण्ड में चैत (चैत्र) का महीना लग गया है. कुमाऊं में चैत के महीने में विवाहित बहनों व बेटियों को भिटौली देने की विशिष्ट सांस्कृतिक परम्परा है. चैत के पहले दिन बच्चे फूलदेई का त्यौहार मनाते हैं लेकिन यह महीना मुख्य रूप से विवाहित बहन-बेटियों को भिटौली देने का है. भिटौली का शाब्दिक अर्थ भेंट देने से है. जिसके तहत चैत के महीने में विवाहित बेटियों को मायके की ओर से भिटौली में पकवान के रूप में पूरी, हलवा, खीर, खजूरे, पुए, बढ़े, गुड़, मिश्री, मिठाई आदि दिये जाते हैं. पकवान के साथ वस्त्रों में साड़ी, ब्लाउज व रुमाल आदि मुख्य तौर पर दिये जाते हैं. मायके वालों में सामर्थ्य हो तो आभूषण भी दिये जाते हैं. भिटौली आमतौर पर पिता, भाई ही लेकर जाते हैं. भिटौली के रूप में मायके से आये पकवानों को बहन, बेटियां अपने ससुराल के हर घर में बांटती है. इससे पूरे गांव को यह पता भी चल जाता है कि किसकी भिटौली आ गयी है और किसकी अभी आनी है. भिटौली की परम्परा को लेकर कुमाऊं में अनेक लोककथायें प्रचलन में हैं. पहले विवाहित बेटी का हाल-चाल जानने के लिये लोगों को काफी दूर तक पैदल चलना पड़ता था. कई बार तो सालों तक कोई भी खोज-खबर नहीं मिलती थी. भिटौली की परम्परा के बारे में कुमाऊं में कई लोक कथाएं प्रचलन में हैं. एक लोक कथानुसार सैकड़ों वर्ष पहले की बात है एक गांव में एक महिला रहती थी. उसके पति की मौत हो चुकी थी. उसकी लड़की का दूर के गांव में विवाह हो गया था. विवाह के समय लड़की का भाई काफी छोटा था. विवाह के बाद कई साल तक लड़की के मायके से कोई भी उसकी खोज-खबर लेने नहीं गया. लड़के के बड़े होने पर एक दिन उसकी मां ने बताया कि उसकी दीदी का विवाह काफी दूर हुआ है और शादी के बाद हम उसकी खोज-खबर लेने भी नहीं जा सके, पता नहीं वह किस हाल में होगी? बीते वर्षों में कितने तीज-त्यौहार गए पर कभी भी उसे न तो मायके बुला सके और न ही उसके ससुराल ही जा सके. इतना कहते ही बेटी की याद में मां फफक-फफक कर रोने लगी. मां की बात सुनकर लड़के ने कहा, “कहां है दीदी का ससुराल? मैं जाऊंगा उसकी खोज-खबर करने.” लड़के की उम्र अभी मुश्किल से दस-बारह साल की ही हुई थी. यह उम्र इतनी भी नहीं थी कि बीहड़ जंगल वाले रास्ते से मां उसे अकेले ही उसकी दीदी के सुसुराल भेज देती. अपने बेटे की बात सुनते ही मां का कलेजा डर के मारे मुंह को आ गया. उसने अपने बेटे को चेताते हुए कहा कि वह इतनी दूर बीहड़ रास्तों से होते हुए कैसे अपनी दीदी के ससुराल जाएगा? रास्ते में बाघ, भालू, सुअर जैसे बहुत से हिंसक जानवर मिलेंगे. कहीं उन्होंने तुझ पर हमला कर दिया तो? तू उनका मुकाबला कैसे करेगा? कहीं तुझे कुछ हो गया तो? यह सब बातें करते हुए मां ने कहा कि तू अपनी दीदी के यहां नहीं जाएगा. जब तू कुछ और बड़ा हो जाएगा तो तब ही मैं तुझे तेरी दीदी के यहां उसके हाल-चाल लेने भेजूंगी. पर लड़के के मन में अपनी दीदी से मिलने की इच्छा दिन प्रतिदिन बढ़ने लगी. वह हर रोज अपनी मां से दीदी से मिलने के लिए जाने को कहने लगा. लड़के की जिद के आगे एक दिन मां ने भी हार मान ली और उसने अपने बेटे को लड़की के ससुराल जाने की अनुमति दे दी. वह अपने बेटे को इतने वर्षों के बाद बेटी के ससुराल भेज रही थी तो खाली हाथ कैसे भेजती? तब उसने अपनी बेटी के लिए कई तरह के पकवान बना कर भेजने का मन बनाया और अपने बेटे से कहा कि वह कल सवेरे जल्दी उठ जाय ताकि वह सवेरे-सवेरे अपनी दीदी से मिलने चल दे. जिससे वह दोपहर तक वहां पहुंच सके क्योंकि शाम तक उसे लौट कर भी आना है. अपनी दीदी से मिलने की उत्सुकता में वह लड़का रात को ठीक से सो भी नहीं पाया और सवेरे बहुत ही जल्दी उठ गया. तब तक रात का अंधियारा छाया हुआ था. जब वह उठा तो उसने देखा कि उसकी मां कई तरह के पकवान बनाने में लगी हुई थी. लड़के को अपनी दीदी से मिलने की बहुत ही जल्दी थी सो वह फटाफट नहा-धोकर तैयार हो गया. तब तक रात का अंधियारा भी खत्म हो चुका था और उसकी मां ने भी अपनी बेटी के लिए पकवान तैयार कर लिए थे. एक पोटली में बेटी के लिए तरह-तरह के पकवान उस महिला ने बांधे और साथ में एक नई धोती भी बेटी के लिए रख दी. चलते हुए उसने अपने बेटे को हिदायत दी कि अपनी दीदी से मिलकर समय से वापस घर को लौट आना क्योंकि बहन व बेटी के ससुराल में रात को नहीं रहते हैं. उल्लेखनीय है कि कुमाऊं में कुछ साल पहले तक भी यह प्रथा मौजूद थी. मायके वाले अपनी बेटी-बहन के ससुराल में न तो खाना खाते थे और न रात्रि विश्राम ही किया जाता था. मां ने बेटे को रास्ते में जंगली जानवरों से मुकाबला करने के लिए एक मजबूत डंडा भी पकड़ा दिया और फिर एक बार सख्त हिदायत देते हुए कहा कि वह समय से घर लौट कर आ जाय. वह लड़का सवेरे-सवेरे अपनी दीदी से मिलने के लिए चल दिया. रास्ते भर चलते हुए वह अपनी दीदी के ख्यालों में खोया रहा और सोचता रहा कि उसकी दीदी कैसी दिखती होगी? उसका घर कैसा होगा? वह कैसे रहती होगी? वह उसे पहचानेगी कि नहीं? वह उससे कैसे बात करेगी? जब उसे पता चलेगा कि उसका छोटा सा भाई अब इतना बड़ा हो गया है तो वह उसे कितना लाड़ करेगी? इसी तरह के कई विचार व सवाल उसके मन में आ जा रहे थे. यह सब सोचते- विचारते वह दोपहर के समय अपनी दीदी के घर पहुँच गया. उसने वहां पहुंचकर देखा कि उसकी दीदी के घर तो सन्नाटा पसरा हुआ है. उसने कुछ देर तक इधर-उधर देखा. उसे कोई नहीं दिखाई दिया. जब उसे कोई नहीं दिखाई दिया तो उसने जोर-जोर से “दीदी, ओ दीदी” कहते हुए अपनी दीदी को धात लगाई पर उसके बाद भी वहां कोई हलचल नहीं हुई और न कोई घर से बाहर ही निकला. घर का दरवाजा खुला हुआ था. वह लड़का थोड़ा सहमते हुए घर के अन्दर गया. वहां जाकर देखता है कि उसकी दीदी तो गहरी नींद में सोई हुई है. वह खेत से काम करने के बाद घर लौटी तो थकान से चूर होकर यूं ही थोड़ा आराम करने के लिए लेटी तो उसे गहरी नींद आ गई. अपनी दीदी को गहरी नींद में देखकर उस लड़के ने उसे उठाना उचित नहीं समझा. उसने समझ लिया कि उसकी दीदी खेत में काम करने के बाद थक कर सोई हुई है. उसने सोचा कि थोड़ी देर में जब उसकी दीदी की थकान दूर हो जाएगी तो वह अपने आप ही उठ जाएगी. यह सोचकर उसने अपनी दीदी के सिरहाने पकवानों की पोटली (भिटौली) रखी और तिबारी में बैठकर उसके उठने का इंतजार करने लगा. इंतजार करते-करते दोपहर भी ढलने को आ गई पर उसकी दीदी की नींद नहीं खुली. वह न जाने कैसे गहरी नींद में सोई रही. अब उस लड़के को बैचेनी भी होने लगी, क्योंकि उसकी मां ने कहा था कि समय से घर को लौट आना. दीदी के ससुराल में नहीं रहना है. उधर वह लड़की भी सपने में अपने भाई को देखती रही कि वह उससे मिलने के लिए आया है और साथ में भिटौली भी लाया है. जब दोपहर ढलने के बाद भी उसकी नींद नहीं खुली तो लड़के ने भारी मन से बिना अपनी दीदी से मिले ही घर वापस लौटने का निर्णय किया. वह भिटौली की पोटली अपनी दीदी के सिरहाने ही छोड़कर भारी मन से घर वापस लौट गया. उसके मन में यह कसक रह गई कि इतने साल बाद दीदी से मिलने के लिए आने के पर भी वह उससे नहीं मिल पाया. उधर, जब सूरज ढलने लगा तो अपने घौंसलों को लौट रही चिड़ियों की चहचहाहट से उस विवाहिता लड़की की आंखें खुल गई. जब उसकी आंख खुली तो उसने सिरहाने में रखी पोटली देखी. जब उसने उसे खोला तो उसमें कई तरह के पकवानों के साथ एक नई धोती भी थी. उसे अपना सपना सच होता हुआ महसूस हुआ. भाई से मिलने की आस में उसने पहले घर के अन्दर उसे ढूंढा. जब वह नहीं मिला तो वह घर के बाहर निकली और उसे चारों ओर देखने लगी. पर उसका भाई कहीं नहीं दिखाई दिया. उसने सोचा कि शायद उसे सोता हुआ देखकर वह खेतों की ओर न चला गया हो. उसने अपने भाई को जोर-जोर से आवाज लगाई. पर वह कहां से आता? वह तो अपनी दीदी से बिना मिले ही निराश होकर घर वापस लौट चुका था. काफी देर तक आवाज लगाने के बाद भी जब भाई कहीं नहीं दिखाई दिया तो वह लड़की जोर-जोर से रोने लगी. उसके रोने की आवाज सुनकर गांव के लोग उसके घर की ओर दौड़ पड़े, यह सोचकर कि पता नहीं उस पर क्या मुसीबत आ गई है. गांव वाले जब उसके घर पहुंचे तो उससे पूछने लगे कि वह क्यों रो रही है? उसे क्या हुआ है? उसने जोर-जोर से रोते हुए कहा,”भै भुको, मैं सिती”, “भै भुको,मैं सिती” (भाई भुखा ही रहा और मैं सोती रही). ऐसा कहते-कहते और जोर-जोर से रोते हुए उसने अपने घर के आंगन में प्राण त्याग दिए. वह लड़का अपनी दीदी से मिलने के लिए चैत के महीने ही गया था. बाद में गांव वालों व दूसरे लोगों को जब वास्तविकता का पता चला तो उन्हें बहुत ही दुख हुआ. कहते हैं कि उसके बाद ही हर साल चैत के महीने में विवाहित बहन व बेटियों को भिटौली देने की परम्परा की शुरुआत हुई ताकि इसी बहाने मायके वाले दूर-दराज बिवाई गई बहन-बेटियों की कम से कम साल में एक बार तो खोज-खबर ले सकें और उनके लिए भिटौली भी लाएं.
चैत के महीने में भिटौली की परम्परा के शुरू होने से साल में एक बार जहां बहन-बेटी के हाल-चाल मिल जाते थे, वहीं उससे मुलाकात भी हो जाती थी. यह परम्परा भाई-बहन के आपसी प्रेम व अपनत्व को भी प्रदर्शित करती है. बाद में इसने एक सांस्कृतिक परम्परा का रूप ले लिया. जो आज कुमाऊं की एक विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान बन गया है. चैत का महीना लगते ही सास हो चाहे बहू हर उम्र की महिला को भिटौली का इंतजार रहता है. जब तक भिटौली नहीं आती तब तक महिलायें घुघुती नामक पक्षी से न बासने (बोलने) की विनती इस लोकगीत को गाकर करती हैं – “न बासा घुघुती चैत की, याद ऐ जांछी मैंकैं मैत की”. चैत का महीना विवाहित बेटियों की भिटौली का होने के कारण ही इस महीने कुमाऊं में विवाह नहीं होते हैं. जिन लड़कियों का विवाह चैत का महीना लगने से पहले हो जाता है. उनकी पहली भिटौली फागुन के महीने में ही दे दी जाती है, क्योंकि विवाह के बाद पड़ने वाले पहले चैत के महीने बेटियां मायके में ही रहती हैं. वैसे नव विवाहित बेटी को पहली भिटौली उसकी शादी के दूसरे दिन दुरगूण के समय भी दी जाती है. अगर दुर्भाग्यवश बेटी व बहन के पति की मौत हो जाय तो उनके पति की मौत के बाद जो पहली भिटौली मायके की ओर से दी जाती है, उसमें कपड़े नहीं दिए जाते. केवल फल व पकवान भिटौली में देते हैं. उसके बाद हर साल पूरी भिटौली साड़ी, ब्लाउज व रुमाल सहित दी जाती है. पिता व भाई की मौत होने के बाद भी मायके से ईजा, भद्यो (भाई के बेटे,) बौजी (भाभी,) आदि भिटौली देने की परम्परा का निर्वाह करते हैं और बहन व बेटी के अलावा बुआ को भी अपने भद्यो की ओर भिटौली मिलती रहती है. जिन परिवारों में एक से अधिक भाई होते हैं और उन सब के परिवारों में से अगर किसी भाई के बेटी नहीं होती तो वह अपने दूसरे भाई की बेटियों को भिटौली देते हैं. भिटौली देने के लिए भी मंगलवार, बृहस्पतिवार व शनिवार को नहीं जाते हैं. कुछ जगहों पर सोमवार के दिन भी नहीं जाते हैं. रोजगार के लिये पलायन होने से अब इसके स्वरूप में भी बदलाव आने लगा है. मायके से काफी दूर महानगरों में अपने पतियों के साथ रहने वाली बेटियों को अब भिटौली के रूप में रुपए भेज दिये जाते हैं. गांवों में व नजदीक रहने वाली बेटियों को जरूर आज भी भिटौली देने के लिये पिता, भाई, चाचा, ताऊ जाते हैं. परिवार में पुरुषों के बाहर होने के कारण कई मामलों में तो अब ईजा भी भिटौली देने जाने लगी हैं. काफल ट्री से साभार
जगमोहन रौतेला, जगमोहन रौतेला वरिष्ठ पत्रकार हैं और हल्द्वानी में रहते हैं.

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