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मुहर्रम माह पर विशेष : हजरत इमाम हुसैन की कुर्बानी के इतिहास के रूप मनाया जाता है मुहर्रम

मुहर्रम माह पर विशेष : हजरत इमाम हुसैन की कुर्बानी के इतिहास के रूप मनाया जाता है मुहर्रम
सीएन, नईदिल्ली।
इस्लामिक नववर्ष का प्रारंभ मुहर्रम महीने से होता है। यह इस्लामिक कैलेंडर का पहला महीना है। रमजान के बाद यह दूसरा सबसे पवित्र माह है। इस साल मुहर्रम 19 जुलाई से है या 20 जुलाई से? इसका निर्णय मोहर्रम का चांद दिखाई देने पर होता है। हालांकि 19 जुलाई को मोहर्रम का चांद दिखाई नहीं दिया है, इसलिए 20 जुलाई 2023 दिन गुरुवार से मुहर्रम का प्रारंभ होगा, जबकि मुहर्रम की 10 तारीख यानि यौम-ए-आशूरा 29 जुलाई शनिवार को होगी। मरकजी चांद कमेटी के अध्यक्ष मौलाना खालिद रशीद फरंगी महली और शिया चांद कमेटी के अध्यक्ष मौलाना सैफ अब्बास नकवी ने ऐलान किया है कि आज आसमान में मुहर्रम का चांद नजर नहीं आया है, इस वजह से 20 जुलाई को मुहर्रम की पहली तारीख होगी। 29 जुलाई 2023 को देश भर में यौम-ए-आशूरा मनाया जाएगा।
हजरत इमाम हुसैन की कुर्बानी का इतिहास
सीएन, नईदिल्ली। मुहर्रम इस्लाम की सबसे पाक घटनाओं में से एक है। इस्लामिक मान्यता के अनुसार पैगंबर हजरत मुहम्मद के नाती हजरत इमाम हुसैन मुहर्रम के महीने में ही कर्बला की जंग में शहीद हुए थे। इसीलिए मुहर्रम को गम का महीना भी कहते हैं। यह इस्लामिक कैलेंडर का पहला महीना होता है। कर्बला की जंग बादशाह यजीद और इमाम हुसैन के बीच हुई थी। यह इस्लाम की बुनियाद के करीब 50 साल बाद की बात है। मक्का से दूर सीरिया के गर्वनर यजीद ने खुद को खलीफा घोषित कर दिया। उसके काम करने का तरीका इस्लाम के बिल्कुल खिलाफ था। वह किसी तानाशाह की तरह हुकूमत करना चाहता था। यही वजह थी कि हजरत इमाम हुसैन ने यजीद को खलीफा मानने से इनकार कर दिया। इससे यजीद के गुस्से की आग भड़क उठी। उसने अपने खासमखास वलीद विन अतुवा को फरमान लिखा कि तुम हुसैन से मेरे हुक्म की तामील कराओ। अगर वह न माने, तो उनका सिर काटकर मेरे दरबार में भेजो। अतुवा ने यजीद का फरमान इमाम हुसैन को सुनाया। इमाम ने यजीद की हुकूमत स्वीकारने से मना कर दिया। उन्होंने कहा, ‘मैं मजलूमों पर जुल्म करने वाले किसी तानाशाह की शान में झुकने से इनकार करता हूं।’ इसके बाद इमाम हुसैन मक्का शरीफ पहुंचे। वहां यजीद ने अपनी फौज के सिपाहियों को मुसाफिर बनाकर हुसैन का कत्ल करने के लिए भेज दिया। इस बात का पता हजरत इमाम हुसैन को चल गया और खून-खराबे को रोकने के लिए हजरत हुसैन हज के बजाय उमराह करके खानदान सहित इराक आ गए। उमराह दो घंटे के अंदर तेजी से किया जाने वाला आध्यात्मिक अमल है। वहीं, हज कई दिनों तक चलने वाली लंबी प्रक्रिया है। मुहर्रम महीने की 2 तरीख 61 हिजरी को इमाम हुसैन अपने परिवार के साथ कर्बला में थे। वह एक हफ्ते तक यजीद की फौज को अमन के राह पर चलने के लिए समझाते रहें। लेकिन फौज अपने खलीफा के हुक्म पर अमल करने के लिए अड़ी रही। इसके बाद हजरत हुसैन ने कहा ‘तुम मुझे एक रात की मोहलत दो, ताकि मैं अल्लाह की इबादत कर सकूं।’ इस रात को ही आशूरा की रात कहा जाता है। अगली सुबह खूनी जंग हुई। इस्लामिक इतिहास के अनुसार- यजीद की 80 हजार फौज के सामने इमाम हुसैन के 72 जांनिसारों ने जैसी जंग लड़ी, उसका मुरीद उनकी दुश्मन फौज भी हो गई। हुसैन ने अपने नाना और वालिद के सिखाए हुए ईमान का दामन मजबूती से पकड़े रखा। उनके कई साथी और परिवार के सदस्य शहीद हो गए। मुहर्रम के दिन तक हुसैन अपने भाइयों और साथियों की मैयत को दफनाते रहे। लड़ते हुए जब नमाज का वक्त करीब आ गया, तो उन्होंने दुश्मन फौज से अस्र की नमाज अदा करने का वक्त मांगा। जब इमाम हुसैन सजदे में झुके तो दुश्मन ने धोखे से उन पर वार कर उन्हें शहीद कर दिया। मक्का में इमाम हुसैन की शहादत की खबर फैली तो हर तरफ मातम छा गया। यही वह तारीखी वाकया है, जिसने इस्लाम की नई सुबह को परवान चढ़ाया। हजरत इमाम हुसैन का मकबरा इराक के शहर कर्बला में उसी जगह है जहां इमाम हुसैन और यजीद की जंग हुई थी। ये जगह इराक की राजधानी बगदाद से तकरीबन 120 किलोमीटर दूर है। यह इस्लाम की सबसे पाक जगहों में से एक है। मुहर्रम के दिन पूरी दुनिया हजरत हुसैन की शहादत का गम मनाती है। उनके नाम पर खैरात लुटाती है। इस दिन मुसलमान इमामबाड़ों में जाकर मातम मनाते हैं और ताजिया निकालते हैं। अलबत्ता यह जरूर कहा जाता है कि इस दिन अल्लाह के नबी हजरत नूह (अ.) की किश्ती को किनारा मिला था। इसके साथ ही आशूरे के दिन यानी 10 मुहर्रम को एक ऐसी घटना हुई थी, जिसका विश्व इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान है। इराक स्थित कर्बला में हुई यह घटना दरअसल सत्य के लिए जान न्योछावर कर देने की जिंदा मिसाल है। इस घटना में हजरत मुहम्मद (सल्ल.) के नवासे (नाती) हजरत हुसैन को शहीद कर दिया गया था। कर्बला की घटना अपने आप में बड़ी विभत्स और निंदनीय है। बुजुर्ग कहते हैं कि इसे याद करते हुए भी हमें हजरत मुहम्मद (सल्ल.) का तरीका अपनाना चाहिए। जबकि आज आमजन को दीन की जानकारी न के बराबर है। अल्लाह के रसूल वाले तरीकों से लोग वाकिफ नहीं हैं।

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