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नैनीताल

अतिक्रमण की भूल भुलैया में गूजर : घूमन्तुओं को मिली वन विभाग से चेतावनी

अतिक्रमण की भूल भुलैया में गूजर : घूमन्तुओं को मिली वन विभाग से चेतावनी
प्रोफेसर मृगेश पाण्डे, हल्द्वानी।
पहाड़ी इलाकों में आबादी के बसाव का अवलम्बन क्षेत्र हैं–जंगल, जहां से स्थानीय ग्रामीण अपनी रोजमर्रा की जरुरत के लिए घास, लकड़ी व अन्य उत्पाद प्राप्त करते रहे हैं. इसके साथ ही इस वन क्षेत्र में अपने पशुओं के साथ डेरा जमाते हैं वन गूजर, जो मौसम के हिसाब से पहाड़ी व तराई भाबर के इलाके में उत्कृमण  करते रहते हैं. रामनगर के जंगलों में विचरण कर रहे वन घूमन्तुओं को वन विभाग से चेतावनी मिली कि वह अपने पशुओं के साथ वन भूमि को खाली कर दें. वन विभाग दशकों से चली आ रही गूजरों की इस आवाजाही को अतिक्रमण मानता आया है. सरकार और वनवासियों के बीच इस तरह की तनातनी चली आई है. अतिक्रमण को रोकने के आदेश इस बार अधिक सख्त हैं. इसके प्रत्युत्तर में “वन पंचायत संघर्ष मोर्चा” ने कहा है कि यह वन घूमँतुओं के अधिकारों का उल्लंघन है. दीर्घ काल से गूजर इन जंगलों में अपने जानवरों के साथ विचरण करते जीवन यापन करते रहे हैं. अब एकबारगी ही जंगल का इलाका खाली कर वह कहाँ जाएं. नैनीताल जिले में रामनगर के जंगलों में विचरण कर रहे वन  गूजरों ने ऐसे आदेश का विरोध किया जो उन्हें तुरंत इलाका खाली करने को मजबूर कर रहा था. वन गूजर रामनगर से राजाजी अभ्यारण्य तक के अरण्य क्षेत्र में विगत एक सदी से प्रवास -आप्रवास करते रहे हैं. उनका जीवन इन्हीं जंगलों में सिमटा है और जीवन यापन के लिए वह यहीं प्राप्त घास -पत्ते -वन उपज पर निर्भर रहे हैं. गूजर अपने मवेशियों के साथ वन इलाके में चलते -टिकते दुग्ध व्यवसाय से रोजी -रोटी हासिल करते हैं. इन्हीं जंगलों में वह अपने पशुओं को चराई के लिए छोड़ते हैं. इनसे खत्तों से प्राप्त दुग्ध ही उनकी अजीविका का मुख्य साधन है जिससे बने विविध उत्पाद दही, घी, पनीर, खोया इत्यादि की मांग अपनी शुद्धता व स्वाद के कारण सदैव बनी रहती है. यह पूरी तरह से शुद्ध जैविक पदार्थ हैं. गूजरों के कुनबे अपने दुधारू पशुवों व अन्य जानवरों के साथ के साथ सर्दी के मौसम में शिवालिक पर्वत श्रृंखलाओं की ओर व गर्मी शुरू होने पर हिमालय की उच्च पर्वत श्रृंखलाओं की ओर घास के मैदानों- बुग्यालों की ओर बढ़ जाते हैं जहां उन्हें उच्च गुणवत्ता की पोषण युक्त घास व उपयोगी वनोपज प्राप्त होती है. सर्दी से गर्मी के मौसम में प्रकृति की हर बाधा पार कर एक ठिकाने से कई ठहराव लिए  उत्क्रमण में उनके जीवन की विविधता भारी संस्कृति के दर्शन होते हैं. कुमाऊँ और गढ़वाल के वनों में विचरण करते गूजरों की आबादी सत्तर हजार से एक लाख के बीच आंकलित है. गूजरों-वन घूमँतुओं की पीढ़ी दर पीढ़ी जंगल के अपने साहचार्य से दुग्ध व्यवसाय की ऊँची गुणवत्ता को बनाए रखे हैं तो वहीं जंगल के प्रति बनाए गए नए नियम – विधानों ने उनके जीवन यापन को कई कठिनाइयों व अवरोधों से भर भी दिया है. वन विभाग का कोई भी फरमान जंगलों पर उनकी निर्भरता और जंगल में उनके रहने–टिकने के ठिकानों के साथ उनकी चल पूंजी -उनके जानवरों की हालत पर अक्सर दुविधा और अवरोध खड़े करता रहा है. ऐसी बहुत सी घटनाएं हैं जिनसे गूजरों की घुमंतू दिनचर्या और उनके पुश्तैनी व्यवसाय पर मुसीबतों के पहाड़ टूटे. इनमें अधिकांश दशाएं और परिस्थितियां वन विभाग की नीतियों में हुए फेरबदल से उत्पन्न हुईं. ऐसे उलटफेर अक्सर वन में उनके विचरण व वन क्षेत्र में उनके दखल के विरोध के साथ इस सवाल का समुचित उत्तर दे पाने में असमर्थ ही रहे हैं कि जंगल से खदेड़े जाने पर आखिर वह जाएं कहाँ और उनकी रहगुजर कैसे चले. घुमंतू रहवासियों व वनवासियों के सामने जंगल से जीवानोपयोगी उपादान व प्रकृति दत्त संसाधन जुटाने पर भी रोकटोक बढ़ी है तो वहीं ऐसे आदेश भी दुविधा उत्पन्न करते रहे हैं जो सरकारी फरमान व वन विभाग की पूर्वाग्रह ग्रस्त नीतियों से जारी हुए और जिनके समाधान व दखलन्दाजी रोकने के लिए न्यायालय की शरण में जाना पड़ा. संक्रमण की यह लम्बी अवधि वनवासियों के कार्यव्यवहार को बाधित करती रही. गूजरों व वन घुमन्तुओं की जंगल पर निर्भरता से जुड़े अधिकारों की रक्षा के लिए स्थानीय स्तर पर जागरूकता बढ़ी है. इसका बेहतर उदाहरण “वन पंचायत संघर्ष मोर्चा संगठन” (वीपीएसऍम ) है जो उत्तराखंड में जमीनी स्तर पर वनचरों की समस्याओं को सुलझाने की लगातार कोशिश करता रहा है. मोर्चे ने वन विभाग द्वारा जारी उस फरमान का विरोध किया जिसमें गूजरों को जंगलात से बेघर- बेदखल करने की बात की गई थी. वन विभाग के कारिंदे ऐसी चेतावनी वाले आदेश का भय दिखा वन वासियों के स्वाभाविक अधिकारों का खुला उल्लंघन करते रहे हैं. वन घुमंतुओं को जंगल के उनके सपोर्ट एरिया यानी अवलम्बन क्षेत्र से बाहर करने के फरमान का विरोध करते हुए वन पंचायत संघर्ष मोर्चा ने उत्तराखंड के प्रमुख वन सचिव को फिर यह स्मरण कराया है कि वनवासियो के प्रति ऐसी मनमानी पहाड़ी इलाकों में लगातार होती रही है तब भी जबकि ऐसी चेतावनी देने पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा रोक भी लगायी गई है. प्रत्युत्तर में वन विभाग दोमुंही बातें कर बरगलाता रहा है. उसका कहना है कि गुजरों को वन भूमि के उत्कृमण से सम्बंधित जो पत्र भेजा गया है वह गूजरों द्वारा जंगल से हट जाने से सम्बंधित नहीं है बल्कि उसकी मंशा तो गूजरों तक यह सन्देश पहुँचाने की रही है कि वन इलाके में किसी के भी द्वारा कोई जंगल विरोधी कार्य बर्दाश्त नहीं किया जाएगा. जंगल से उपयोगी व बहुमूल्य वन सम्पदा की चोरी लगातार होती रही है. पातन करने वाले कारिंदों के साथ वन विभाग के कर्मचारियों का संघर्ष भी होता रहा है. गावों में जंगली जानवरों के खौफ को देखते वन विभाग ने घेराबंदी भी बढ़ाई है और घास -पात व वनोपज हेतु जंगल में जाने पर रोकटोक भी की है. वन विभाग वन क्षेत्र में किसी भी प्रकार की जंगल विरोधी गतिविधि पर रोक लगाना चाहता है. न पंचायत संघर्ष मोर्चा के तरुण जोशी वन विभाग द्वारा गूजरों को दी गई चेतावनी व उनकी आजीविका से सम्बंधित गतिविधि व क्रियाकलापों पर लगाए प्रतिबन्ध व रोक-टोक का विरोध करते हैं. उनका कहना है कि दशकों से जंगलों में अपना डेरा बनाए अपने जानवरों के साथ चले अधिकांश गूजर खानाबदोश परिवार बहुत पिछड़े मुसलमान हैं जो विकास के प्रतिमानों से अभी भी अनभिज्ञ हैं. ऐसे में जब-तब वन विभाग द्वारा इन्हें बेदखली का फरमान देना व कर्मचारियों द्वारा प्रताड़ित करना अमानवीय तो है ही असंवैधानिक भी है. इस प्रकार की कई घटनाओं को देखते हुए संघर्ष मोर्चे ने वन विभाग के आला अधिकारियों के साथ सरकार में मुख्य सचिव को भी इस आशय का प्रतिवेदन दिया है कि वह जंगल में गूजरों के रहवास पर रोक-टोक सम्बन्धी नोटिस पर कोई कार्यवाही न कर इसे वापस लें. वन विभाग द्वारा गूजरों की उत्क्रमण सम्बन्धी दिनचर्या व कार्य व्यवसाय पर रोक टोक लगाने जैसी हालत बनाने व नोटिस के जरिये परेशान करने की नीयत को स्पष्ट करते हुए तरुण जोशी का कहना है कि प्रशासन के स्तर पर ऐसे नोटिस प्रभागीय वन अधिकारी द्वारा निर्गत किये जाने चाहिए परन्तु अक्सर यह देखा जाता है कि इन रहवासियो के डेरे पर वन दरोगा या और भी निचले कारगुजार नोटिस चस्पा कर देते हैं जो कि फारेस्ट एक्ट का खुला उल्लंघन है. नैनीताल जनपद के तराई पश्चिम वन प्रभाग की 34800 वर्ग किलोमीटर भूमि में घने जंगल, चरागाह एवं खनन क्षेत्र हैं जिनमें रामनगर, जसपुर, काशीपुर व बाजपुर रेंज में जंगल की 2600 हेक्टेयर जमीन पर हुए कब्जे का विषय चिंतजनक है. इनमें रामनगर में 1378 हेक्टेयर, आमपोखरा में 930 हेक्टेयर, बाजपुर बन्ना खेड़ा 102 हेक्टेयर, बैल पड़ाव 109 हेक्टेयर, दक्षिणी जसपुर 33 हेक्टेयर व काशीपुर की 14 हेक्टेयर वन भूमि पर कब्जे व अतिक्रमण है. वन विभाग के अनुसार जंगल की जमीन को हजार से अधिक लोगों ने अवैध रूप से हथियाने की कोशिश की है. हल्द्वानी में ही हल्दुआ के पास जंगल में कोठरी, भवन के साथ ही धार्मिक संरचना भी बना डाली गई है.यह सारी घेरबाड़ और निर्माण वन भूमि पर अतिक्रमण की श्रेणी में आता है. मुख्यमंत्री ने इस सन्दर्भ में स्पष्ट किया है कि अतिक्रमण के नाम पर किसी का उत्पीड़न नहीं किया जा रहा है. पहले से जंगलों में जो गोठ, खत्ते बने हैं उनमें विचरण करते वनवासियों के विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं की जा रही है पर धर्म की आड़ ले कर वन भूमि में अतिक्रमण का सिलसिला बनाने वालों पर तो कठोर कार्यवाही हो रही है. अतिक्रमण के संवेदनशील मामलों की जाँच के लिए मंत्रियों की उपसमिति भी बनाई गई है. काफल ट्री से साभार

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