राष्ट्रीय
यादों की ऐसी एक दर्द भरी कहानी, नई दिल्ली के इंदिरा गांधी एयरपोर्ट से होती है शुरू……
यादों की ऐसी एक दर्द भरी कहानी, नई दिल्ली के इंदिरा गांधी एयरपोर्ट से होती है शुरू……
धर्मेंद्र कुमार, नई दिल्ली। जानते हो दुनिया का सबसे बड़ा बोझ क्या होता है, बाप के कंधों पर बेटे का जनाजा, इससे भारी बोझ कोई नहीं है…फिल्म शोले में रहीम चाचा बने अभिनेता एके हंगल जब ये बात कहते हैं तो सुनने वालों की आंखें आंसुओं से भीग जाती हैं। किसी भी पिता के लिए बेटे को खोना सबसे बड़ा दुख है और उससे भी मुश्किल है उसकी यादों के साथ खुद को जिंदा रखना है। यादों की ऐसी ही एक दर्द भरी कहानी, नई दिल्ली के इंदिरा गांधी इंटरनेशनल एयरपोर्ट से भी शुरू होती है। जहां एक बुजुर्ग शख्स हर साल मई के महीने में चुपचाप यात्रियों की कतार में लगते हैं। उन्हें कहीं गर्मी की छुट्टियां बिताने के लिए नहीं जाना होता। ना ही जाना होता है किसी बिजनेस टूर पर और ना ही अपने किसी रिश्तेदार के घर। फिर भी वो हर साल इस एयरपोर्ट पर आते हैं, चुपचाप यात्रियों की कतार में लगते हैं, फ्लाइट पकड़ते हैं और कारगिल के पास द्रास जाने के लिए रवाना हो जाते हैं। उनके लिए ये एक आंसुओं से भरी तीर्थयात्रा है, एक वादा है, जो उन्होंने उस बेटे से किया था, जो अब उनके पास नहीं है। वो बेटाए जिसने देश के लिए लिए जंग लड़ते हुए अपनी जिंदगी कुर्बान कर दी। इन बुजुर्ग शख्स का नाम है कर्नल वीरेंद्र थापर, जिनके शहीद बेटे लेफ्टिनेंट विजयंत थापर ने अपने आखिरी मिशन पर जाने से पहले अपने पिता को एक चिट्ठी लिखी थी। कहा था कि जब तक वो इस चिट्ठी को पढ़ रहे होंगेए वह इस दुनिया से जा चुका होगा। उसने अपने पिता से एक वादा मांगा थी, कि वो उस जगह पर आएंए जहां वह अपने अंतिम मोर्चे पर साथी सैनिकों के साथ खड़ा था। और….कर्नल वीरेंद्र थापर हर साल अपने बेटे की शहादत को याद करने और उसे श्रद्धांजलि देने के लिए कारगिल जाते हैं। महज 22 साल उम्र थी लेफ्टिनेंट विजयंत थापर की, जब वो 1999 के कारगिल युद्ध के दौरान देश के लिए लड़ते हुए शहीद हो गए। और तभी से, उनके पिता कर्नल थापर ने अपने बेटे से किए उस वादे को निभाया है। ना कोई कैमरा, ना मीडिया में कोई खबर चुपचाप…हर साल बस अपने बेटे की शहादत को उसी जगह पर जाकर याद करना। ये कहानी महज एक युद्ध और बाप-बेटे की नहीं है, बल्कि प्यार, फर्ज….उससे भी कहीं ज्यादा एक सैनिक और उसके परिवार के बीच अटूट बंधन की है। 29 दिसंबर 1976 को पंजाब के नांगल में जन्मे कैप्टन विजयंत थापर सेना के अधिकारियों की तीन पीढ़ियों से ताल्लुक रखते थे। परिवार ने एक युद्धक टैंक विजयांत के नाम पर उनका नाम रखा था। किसे मालूम था कि यही बेटा उनकी सोच को गर्व से भर देगा। लेफ्टिनेंट विजयंत केवल नाम थोड़े था, दुश्मन मुल्क के लिए एक सुलगता हुआ ज्वालामुखी था। दिसंबर 1998 में उन्होंने भारतीय सैन्य एकेडमी से ग्रेजुएशन की डिग्री हासिल की और 12 राजपूत राइफल्स में शामिल हो गए। 29 जून 1999 को द्रास के अहम हिस्से नोल कॉम्प्लेक्स पर कब्जा करने के लिए उन्हें भेजा गया थाए जब अपनी सैनिक टुकड़ी को लीड करते हुए वह शहीद हो गए। उनकी वीरता के लिए उन्हें मरणोपरांत वीर चक्र से सम्मानित किया गया। अपने आखिरी मिशन पर जाने से पहले विजयंत थापर ने अपने परिवार को एक पत्र लिखा था जो भारतीय सैन्य इतिहास का हिस्सा बन गया। यही वो पत्र था जिसके लिए एक पिता आज भी हर साल अपने शहीद बेटे की यादों के साथ जीते हैं। लेफ्टिनेंट विजयेंद्र थापर ने लिखा था, प्यारे पापा, मामा बर्डी और ग्रैनी, जब तक आपको यह पत्र मिलेगा, मैं आप सभी को आसमान से देख रहा हूंगा। आसमान में बैठकर अप्सराओं की मेहमाननवाज़ी का आनंद ले रहा हूंगा। मुझे कोई पछतावा नहीं है। सच कहूं तो अगर एक और जन्म मिले मुझे तो मैं फिर से सेना में जाऊंगा और अपने देश के लिए लड़ूंगा। आपसे बस एक वादा चाहिए कि आप आना और देखना कि भारतीय सेना ने आपके भविष्य के लिए किस हद तक जाकर लड़ाई लड़ी है। ये केवल एक चिट्ठी नहीं थी, भावनाओं का ज्वार-भाटा था। एक बेटा बता रहा था कि वो अब जा रहा इस दुनिया से, देश के लिए शहीद हो रहा है, लेकिन वो अपने पिता को एक गौरव भी देकर जा रहा था। बता रहा था पूरे हिंदुस्तान को, कि देश के हर नागरिक को कर्नल वीरेंद्र थापर के जैसा बेटा नहीं मिलता। उसने बता दिया कि इतिहास ऐसे ही लिखा जाता है। उसके पिता रोए होंगे तड़पे होंगे, हर रात किसी भी तारे को देखते हुए मुस्कुराए भी होंगे कि हां मेरा बेटा जांबाज था और उसकी वजह से पूरा हिंदुस्तान आज बेफिक्र सो रहा है। नभाटा से साभार
