राजनीति
इतनी बड़ी बगावत और अनजान रह गए उद्धव ठाकरे
कहीं पवार के खिलाफ ठाकरे का मोहरा ही तो नहीं हैं एकनाथ शिंदे
सीएन, मुंबई। राजनीति के मैदान में बहारें हैं तो बियाबान भी। शह-मात के इस महामलयुद्ध में बाजी जीतने वाले बहारों का आनंद लेते हैं लेकिन परास्त हुए तो प्रशंसक भी साथ छोड़ जाते हैं। इसीलिए कहा जाता है कि सत्ता सुख में इतना भी मशगूल न हों कि अपने ही रूठ जाएं। आखिर, दिवंगत पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहार वाजपेयी ने कहा भी था-हम जीतकर भी विनम्र हैं, हार में तो आत्ममंथन होना चाहिए। लेकिन यह भी तो सच है कि हम जीवन में जरूरी सिद्धातों को भी साथ नहीं रख पाते। शिवसेना भी सत्ता में आई तो संयम खो दिया। उसने उसी हिंदुत्व को हल्के में ले लिया जिसके दम पर न केवल बाला साहेब ठाकरे ने हिंदू हृदय सम्राट का गौरव प्राप्त किया बल्कि उद्धव ठाकरे सत्ता की कुर्सी तक पहुंच गए। हिंदुत्व को हल्के में लेना शिवसैनिकों को ही अखरने लगा। सत्ता के आकर्षण ने उन्हें बगावत से तो रोक रखा था, लेकिन अंदर एक बड़वानल हिलोरें ले रहा था। जब उसने सीमा लांघी तो वह तूफान आया जिसने न केवल उद्धव की कुर्सी बहा ले गया बल्कि पार्टी के बीच बड़ी दरार पैदा कर दी। इंतजार है तो शिवसेना के दो फाड़ होने के ऐलान का। बागी गुट के मुखिया एकनाथ शिंदे का दावा है कि उनके खेमे में शिवसेना के 32 विधायक हैं। सोचिए कुल 55 विधायकों में 32 बागी हो गए तो फिर पार्टी का क्या बनेगा? लेकिन क्या इतनी बड़ी बगावत बिना किसी बाहरी समर्थन के हो गया? कभी शिवसैनिक रहे और अब बीजेपी के राज्यसभा सांसद नारायण राणे ने तो इस खेल में अपनी पार्टी का हाथ होने से इनकार कर दिया है। हालांकि, शह-मात की राजनीति में हकीकत से कतराना भी शतरंजी चाल की ही निशानी होता है। कहा तो यही जा रहा है कि बीजेपी की ‘हां’ पर ही एकनाथ शिंदे ने ठाकरे के सामने पत्ते खोलने की हिम्मत जुटाई। इस संभावना में इसलिए भी दम दिख रहा है कि शिंदे ने शिवसेना के दो-चार नहीं, करीब दो तिहाई विधायकों को तोड़ लिया। तो क्या दर्जनों विधायकों ने सिर्फ शिंदे के चेहरे पर इतना बड़ा भरोसा कर लिया? इसका सही जवाब तो कुछ दिन बाद ही मिल पाएगा।