उत्तराखण्ड
उत्तराखंड सरकार के कामकाज की परख : चमकदार नारों व घोषणाओं के पीछे छिपी गहरी निराशा
राज शेखर भट्ट, देहरादून। उत्तराखंड में पुष्कर सिंह धामी सरकार का कार्यकाल अब अपने अंतिम पड़ाव की ओर बढ़ रहा है। लेकिन इन वर्षों में सरकार के कामकाज को परखें तो तस्वीर चमकदार नारों और घोषणाओं के पीछे छिपी गहरी निराशा की लगती है। “डबल इंजन सरकार” का शोर जितना तेज़ था, उतनी ही कमजोर ज़मीन पर खड़े थे इसके वादे। धामी सरकार ने खुद को युवाओं की सरकार कहा था। लेकिन भर्ती घोटाले, लीक होती परीक्षाएँ, और अधूरी जांचों ने इस वर्ग का विश्वास तोड़ दिया। उत्तराखंड अधीनस्थ सेवा चयन आयोग (UKSSSC) की परीक्षाओं में हुई धांधलियों ने हजारों अभ्यर्थियों के भविष्य से खिलवाड़ किया। सरकार ने जांच के नाम पर कुछ अधिकारियों को हटाया, पर सिस्टम वही पुराना, सुस्त और संदिग्ध बना रही है। प्रदेश में बेरोज़गारी दर लगातार बढ़ रही है। उद्योग और निवेश के नाम पर बड़ी-बड़ी घोषणाएँ हुईं, लेकिन ज़मीनी हकीकत यह है कि पहाड़ के गाँव खाली हो रहे हैं। युवाओं को रोज़गार की तलाश में मैदान या महानगरों का रुख करना पड़ रहा है। महंगाई ने आम नागरिक की कमर तोड़ दी, पर सरकार के पास न राहत योजना है, न ठोस रणनीति। उत्तराखंड जैसे संवेदनशील राज्य में पर्यावरण संरक्षण सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए थी। लेकिन खनन, अवैध निर्माण और अनियोजित परियोजनाओं ने प्रकृति की कमर तोड़ दी। जोशीमठ धंसाव जैसी त्रासदियाँ सरकार की नीतिगत विफलता की प्रतीक बन गईं। आपदाओं के बाद राहत कार्यों में देरी और अपारदर्शिता जनता के आक्रोश को और बढ़ाती है। भ्रष्टाचार, तबादला नीति, और मनमाने फैसले—इन सबने प्रशासन की साख गिराई है। मुख्यमंत्री कार्यालय से लेकर ज़िला स्तर तक जवाबदेही का अभाव दिखाई देता है। लोकायुक्त बिल वर्षों से लंबित पड़ा है, जबकि “भ्रष्टाचार मुक्त शासन” के नारे रोज़ दोहराए जाते हैं। धामी सरकार का एक बड़ा हिस्सा प्रतीकात्मक राजनीति में बीता — धार्मिक आयोजनों, तीर्थ परियोजनाओं और “संस्कृति संरक्षण” के नारों के बीच। जनता की बुनियादी समस्याएँ — शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़कें और पेयजल—पीछे छूट गईं। धर्म के नाम पर सत्ता साधी गई, विकास के नाम पर राजनीति। पुष्कर सिंह धामी के कार्यकाल ने उत्तराखंड को वह स्थिरता और दृष्टि नहीं दी जिसकी उसे आवश्यकता थी। न नीति स्पष्ट दिखी, न नीयत भरोसेमंद। यह कार्यकाल न तो युवाओं का रहा, न किसानों का, न पहाड़ों का। यह केवल प्रचार का शासन रहा—जहाँ काम कम और कैमरा ज़्यादा चला।
