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उत्तराखण्ड

अलविदा राजा…तुम्हारे जाने पर रह-रहकर फिर याद आ गये वो तूफानी दिन….

राजीव लोचन साह, नैनीताल। अभी-अभी राजा बहुगुणा के देहान्त का समाचार झकझोर गया। उसकी बीमारी का समाचार सुन तो रहा था। करीब महीना भर पहले हल्द्वानी गया ही इसलिये था कि एक बार उससे मिल लूँ। मगर भाकपा (माले) के के.के.बोरा से उसका पता पूछा तो मालूम पड़ा कि वह तो दिल्ली में ही है। नहीं रहा होगा किस्मत में, उससे आखिरी दिनों में मिलना। ज्यादातर लोग राजा को भाकपा (माले) के वरिष्ठ नेता के रूप में ही जानते हैं। हमारा वह उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी के दिनों का साथी था। बल्कि, सच कहा जाये तो मुझे जन आन्दोलनों का रास्ता दिखाने वाला राजा बहुगुणा ही था। जितना याद आता है, उसके सक्रिय राजनीतिक जीवन की शुरूआत कांग्रेस से हुई थी। मगर वन आन्दोलन तेज होते ही वह उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी के प्रभाव में आ गया था। अक्टूबर 1977 में नैनीताल में होने वाली वनों की नीलामी के विरोध में नैनीताल के छात्र एवं युवा सक्रिय हो रहे थे और उनका नेतृत्व राजा बहुगुणा और विनोद पाण्डे कर रहे थे। हमने नैनीताल समाचार का प्रकाशन शुरू कर दिया था और ये दोनों हमें 6 अक्टूबर को होने वाली नीलामी के बारे में एक पर्चा देने समाचार के कार्यालय में आये। अगले दिन मैं एक पत्रकार के रूप में नीलामी की घटना को ‘कवर’ करने के लिये हरीश पन्त के साथ रिंक हाॅल गया तो सारे प्रदर्शनकारी गिरफ्तार कर मल्लीताल थाने में बैठा दिये गये थे और नीलामी विधिवत् शुरू हो गयी थी। पता नहीं कि मुझे क्या रण चढ़ा कि अपने स्वभाव के एकदम विपरीत मैं रिंक के अन्दर घुस कर वन विभाग के कर्मचारियों से भिड़ गया। मेरी देखादेखी हरीश पन्त को भी मेरे साथ आना पड़ा और फिर तो बाहर खड़े दर्जनों लोग, जो इन युवाओं की बेवजह गिरफ्तारी से गुस्से से भरे बैठे थे, रिंक में घुस गये और एक बड़ी भीड़ ने सारी मेजें पलटा़ कर, कुर्सियाँ तोड़ कर नीलामी करना असम्भव कर दिया। नीलामी स्थगित हो गई और हवालात में बन्द सारे आन्दोलनकारी छोड़ दिये गये। 28 नवम्बर की अगली नीलामी तक न सिर्फ मैं पूरी तरह आन्दोलनकारी हो चुका था, बल्कि गिर्दा भी गीत एवं नाटक प्रभाग की अपनी नौकरी दाँव पर लगा कर पूरी तरह सड़क पर उतर गया था। उस रोज नैनीताल क्लब में आग लगने के कुछ दिनों बाद हम लोग चण्डी प्रसाद भट्ट जी के साथ गौना ताल क्षेत्र में वृक्षारोपण के लिये गये। उसके बाद तो वन आन्दोलन की चेतना फैलाने हमारा गाँव-गाँव भटकना शुरू हुआ। डाॅ. शमशेर सिंह बिष्ट, बिपिन त्रिपाठी, पी.सी.तिवारी, राजा बहुगुणा, प्रदीप टम्टा, निर्मल जोशी, चन्द्रशेखर भट्ट आदि हमारे स्थायी किरदार हुआ करते थे। हर जगह षष्ठी दत्त जोशी और खड़क सिंह खनी जैसे कुछ स्थानीय युवा होते थे और कभी-कभी समय निकाल कर शेखर पाठक और गिर्दा भी आ मिलते थे। सभाओं में भाषण देने की जिम्मेदारी कुछ ही लोगों की होती थी और उनमें राजा बहुगुणा भी एक था। उस दौर में हम लोगों पर नक्सलवाद का भी प्रभाव था और एक बार हमने अल्मोड़ा छात्र संघ के तत्कालीन अध्यक्ष जगत रौतेला के घर पर एक संकल्प पत्र बनाया था, जिसमें ‘अर्द्धसामन्ती, अर्द्ध पूँजीवादी व्यवस्था’ को उखाड़ फेंकने की बात थी। वन आन्दोलन के एक कार्यक्रम के रूप में 26 फरवरी 1978 को पहली बार ‘उत्तराखंड बन्द’ हुआ था। उससे पहले उत्तराखंड को एक इकाई के रूप में देखने की समझ ही नहीं थी, बन्द अलबत्ता बन्द होते भी थे तो अल्मोड़ा बन्द या नैनीताल बन्द जैसे रूप में। उत्तराखण्ड बन्द सफल हुआ तो उसमें पी.सी., राजा, प्रदीप, निर्मल, चन्द्रशेखर भट्ट, जगत आदि नौजवानों की जबर्दस्त मेहनत थी। 1984 के ‘नशा नहीं रोजगार दो’ आन्दोलन तक उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी उत्तराखंड की सबसे बड़ी राजनैतिक ताकत बन चुकी थी। देश और प्रदेश की सत्ता पर काबिज कांग्रेस वाहिनी के सामने बैकफुट पर रहती थी और भारतीय जनता पार्टी का तो खैर जन्म ही नहीं हुआ था। लेकिन वाहिनी ने उस वक्त एक राजनैतिक दल में रूपान्तरित होने का लगातार विरोध किया। राज्य बनने के बाद 2002 के बाद ऐसी कोशिश की भी तो तब तक उसका कोई विशेष अर्थ नहीं रह गया था।
मगर (शायद) नशा नहीं रोजगार दो आन्दोलन की असीम सफलता से ही वाहिनी का विघटन शुरू हुआ। अनेक लोग रोजगार के लिये इधर-उधर हुए। बिपिन त्रिपाठी ने उत्तराखण्ड क्रांति दल का दामन थाम लिया था। फिर वाहिनी इंडियन पीपुल्स फ्रण्ट का हिस्सा बनी और उसी में से एक गुट भाकपा (माले) में चला गया। राजा ने माले में जाना बेहतर समझा। बाद में प्रदीप कांग्रेस में चला गया। भाकपा (माले) के बाद किये गये राजा के राजनैतिक कर्म के बारे में बहुत सारे लोग जानते हैं। वह पार्टी के इतिहास में भी कहीं दर्ज होगा। हम लोगों से, जो वाहिनी में बचे रहे, से राजा का सम्पर्क दिनोंदिन कम होता चला गया। कभी कभार ही उससे भेंट होती। मगर विस्तार से फिर कभी बातचीत नहीं हो पायी। जैसा शुरू में कहा, पिछले दिनों उससे मिलने का बड़ा मन हुआ, मगर किस्मत में नहीं रहा होगा। मगर आज 1977 से 1984 के उस दौर के दिन रह-रह कर याद आ रहे हैं। राजा ने स्वयं सोशल मीडिया पर एक बार उस दौर का वर्णन किया था, ढूँढना पड़ेगा।

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