उत्तराखण्ड
25 साल पहले : राज्य का गठन क्या जनाकांक्षाओं की पूर्ति है? या फिर महज सपनों का उत्तराखण्ड….
पुरुषोत्तम असनोड़ा, गैरसैंण। उत्तरांचल राज्य का गठन क्या जनाकांक्षाओं की पूर्ति है ? सपनों में भी उत्तराखण्ड पुकार रहे बच्चों, घसियारों के लोकगीतों में पैंठ चुके भावों और तथा आम उत्तराखण्डी की आशा-अभिलाषाओं को ठेंगा दिखने का उपक्रम तो नहीं है यह ?उत्तराखण्ड’ शब्द पौराणिक रूप से पुष्ट है। पाण्डवों के अज्ञातवास में राजा विराट के यहाँ रहना सुपरिचित तथ्य है। चैखुटिया (अल्मोड़ा) की गिवाड़ घाटी को अब भी बैराठ (विराट) कहा जाता है। महाभारत में राजा विराट के पुत्र उत्तर कुमार के मारे जाने, उत्तरा का विवाह अभिमन्यु से होने तथा पाण्डवों का वंश संचालक जन्मेजय की माता का गौरव उत्तरा को है। चैखुटिया के पास झला गाँव में आज भी उत्तरा का मन्दिर है। राजा विराट के एक मात्र पुत्र उत्तर कुमार की मृत्यु के बाद स्वतः ही उनका राज्य उत्तरा के माध्यम से पाण्डव राज्य में चला गया और वहाँ आज के कुमाऊँ गढ़वाल क्षेत्र को उत्तराखण्ड नाम मिला। सबल सिंह चैहान की चैपाई महाभारत में यह सब उल्लेख है। सन् 1987 से पहले उत्तराखण्ड राज्य की माँग को देशद्रोही मानने वाली भाजपा के के पास ‘उत्तराखण्ड’ को ‘उत्तरांचल’ नाम देने का आधार स्रोत क्या है ? क्या ‘खण्ड’ में अलगाववाद ढूँढते हुए उत्तराखण्ड व कूर्माचल का संयुक्त नाम बनाना उसकी चतुरता है ? दरअसल उत्तराखण्ड क्रांति के प्रारम्भिक काल में ही विधान सभा क्षेत्रों में मिली सफलता ने राष्ट्रीय राजनैतिक दलों को उत्तराखण्ड कब्जाने की एकमात्र युक्ति राज्य आन्दोलन के समर्थन को माना और सन् 1991 आते-आते भाजपा बाजी मार ले गयी। कांग्रेस दुलमुल रवैये से लगातार पीछे छूट गयी और आज वह सर्वाधिक वोट पाने के बावजूद उत्तराखण्ड में हाशिए पर है। कहने का अर्थ है भाजपा ने जब राज्य मुद्दे का समर्थन वोट के पैमाने पर किया तो उसका आत्मिक लगाव इस मुद्दे से हो ही नहीं सकता था। आज भी वही स्थिति है। कभी गन्ना कमाण्ड एरिया (बृहत उत्तरांचल), कभी हरिद्वार और कभी उधमसिंह नगर के चर्चे उछालने से यह प्रवृत्ति प्रकट होती रहती है। राजधानी का सवाल भी उसी मानसिकता का द्योतक है। गढ़वाल-कुमाऊँ के संस्कृतियों, रीति-रिवाजों और भूगोल के बीचोबीच गैरसैंण को राजधानी घोषित करने से हिचकिचाने के अर्थ क्या हैं ? यदि उत्तराखण्ड के मानचित्र पर पैमाने से भी नापे तो भी गैरसैण मध्य बिन्दु है। मध्य हिमालय का भाग भूकम्प जोन में भी नहीं है। पानी के स्रोतों से भरा रामगंगा का उद्गम स्थल है। अनंगपाल से वीर चन्द्र सिंह गढवाली तक का इतिहास समेटे पर्याप्त भूमि और विस्तार की सम्भावनाओं वाले गैरसैंण को उत्तराखण्ड आन्दोलन के दौर में राजधानी के रूप में आन्दोलन के दौर में राजधानी के रूप में सर्वसहमति मिली थी। दोनों मण्डलों की संस्कृतियों के मिलन स्थल में राजशाही-सामन्ती कटुताएँ भी नहीं हैं। फिर क्या कारण है कि गैरसैंण के बारे में राष्ट्रीय राजनैतिक दल चुप्पी साधे हैं ? उत्तराखण्ड का 53 साला विकास आज भी लालटेन और छिल्ला युग में है। हवाई जहाज तो क्या, यहाँ के 90 प्रतिशत ग्रामीणों ने आज भी रेल नहीं देखी है। कैसी विडम्बना है कि उनके प्रतिनिधित्व के दम्भी रेल और वायुयान जैसी सुविधा चाहते हैं ! उत्तराखण्ड आखिर है किसका और किसके लिए ? 45 किमी. की दूरी पैदल लाँघने, 20 किग्रा तक नमक खरीदने और आधुनिक विकास से कोसों दूर रहने वाले ग्रामीणों का विकास लखनऊ जैसे महानगर से हट कर नैनीताल और देहरादून जैसे नगरों से हो पायेगा ? यदि ऐसा होता तो नैनीताल के उ.प्र. की ग्रीष्मकालीन राजधानी रहते ही यह सम्भव हो जाता। देहरादून भारत भर के नौकरशाहों, नेताओं व पूंजीपतियों की पहली पसन्द है और वे चाहते तो विकास के कुछ अवसर उत्तराखण्ड को अवश्य मिले होते। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इसीलिए उत्तराखण्ड आन्दोलन के दौर में, जिसमें नेता व राजनैतिक दल बहुत पीछे छूट चुके थे, जनता उत्तराखण्ड की राजधानी चन्द्रनगर (गैरसैंण) मान रही थी। उत्तराखण्ड का सवाल आते ही अलगाव, विद्वेष व बाँटो-राज करो के जहर फैलाने वाले राष्ट्रीय राजनैतिक दल राजधानी के मामले पर घमासान की घोषणा करते रहे हैं। उत्तराखण्ड’ को ‘उत्तरांचल’ बना देने की राजनीति बहुत सोची समझी और बहुत आगे देखने की नीति का परिणाम है। उत्तरांचल राज्य की घोषणा कर भाजपा और उसके आनुषंगिक संगठनों ने उत्तराखण्डी संगठनों को नाम से ही अस्तित्वहीन करने की राजनीति की है। उत्तराखण्ड राज्य की दृष्टि और परिकल्पना देने वाले संगठनों को घुसपैठ के जरिये बाहर करने के भाजपायी षड़यंत्र को अभी भी ये संगठन गंभीरता से नहीं ले रहे हैं। इसीलिए उनकी कोई संयुक्त रणनीति सामने नहीं आयी है। जल विद्युत परियोजनाओं की बेदखली, भू परिसीमन कानून, शराब, वन, भू व खनन माफिया, परियोजनाओं के हस्तान्तरण आदि कितने ही मुद्दे उत्तराखण्डी संगठनों के साझा मंच के कार्यक्रम हो सकते हैं। ये तब भी हो सकते थे, जब भाजपा उन्हें पछाड़ कर उत्तरांचल (चुनाव के समय उत्तराखण्ड) नाम से मुद्दे का अपहरण कर रही थी। ऐसा न करने का फल उन्हें मिल चुका है और आगे उन्हें सावधान रहने की जरूरत है। भाजपा और कांग्रेस में आज कोई अन्तर नहीं है। सम्प्रदाय, जाति व क्षेत्रवाद में उनकी एक दूसरे से होड़ है। उत्तराखण्ड को उत्तरांचल बनाने में दोनों का साझा हित सिद्ध हो चुका है। एक तर्क अकसर दिया जा रहा है कि राज्य विधेयक पारित करने का श्रेय भाजपा व कांग्रेस को ही तो है। यदि उनसे उलट पूछा जाये कि यदि भाजपा संसद में विधेयक पारित नहीं करवाती तो क्या होता ? वह मर जाती। वैसे ही जैसे कांग्रेस मरी। जनता के विश्वास को छलने वाला ज्यादा जिन्दा नहीं रहता। जनता ने वोट और राजसत्ता उत्तराखण्ड राज्य के लिए दी थी। इसके बावजूद यदि उनमें ईमानदारी है तो वे जनता के सपनों का उत्तराखण्ड बनायें। शहीदों के बलिदान का सम्मान करें और मुजफरनगरकाण्ड के अपराधियों को जेल भेजें। लेकिन ऐसा नहीं हागा, क्योंकि उत्तरांचल के भावी भाग्यविधाताओं को महानगरीय सुविधा, रेल और वायुयान चाहिए। यही सत्तापक्षीय मोह उत्तराखण्डी संगठनों को उत्तराखण्ड की जनता के करीब लाने का अस्त्र मुहैया कर रहा है। वे बतायें कि जनता ने कैसा उत्तराखण्ड माँगा था। माँ-बहिनों की अस्मिता के लुटेरों के संरक्षक कौन हैं और ‘उत्तरांचल’ के नाम पर उन्हें क्या दिया जा रहा है। यह समय अखबारों में प्रेस नोट देने का नहीं है। जनता के बीच जनता की लडाई को ले जाने का है। समय बताएगा कि उत्तराखण्डी सफल होते हैं या फिर हमेशा के लिए विदाई की तैयारी करते हैं। (यह आलेख राज्य गठन के दौरान नैनीताल समाचार के 1 अक्टूबर 2000 के अंक में पहली बार प्रकाशित हुआ था)




















































