उत्तराखण्ड
सिस्टम का आईना जो कागजों पर फुर्तीला दिखता है लेकिन ज़मीन पर सुस्त, लापरवाह और बेपरवाह
केशव भट्ट, बागेश्वर। कुमाऊं के बागेश्वर से दिल्ली को रोजाना चलने वाली रोडवेज बस आज सुबह चार बजे डिपो से निकली ही थी कि बस स्टेशन के पास जाकर रुक गई और फिर वहीं ठप पड़ गई. ड्राइवर और कंडक्टर ने घंटों कोशिश की, लेकिन नतीजा कुछ नही निकला. बस में सवार सवारियां सिस्टम को गरियाते हुए अन्य साधनों से चले गए. अडियल बस अपनी जगह से हिली तक नहीं. आखिर थक-हारकर कंडक्टर ने पास में ही पानी की टेंकी में टंगे डबल इंजन के झंडे को बस के पीछे इस उम्मीद में टांग दिया कि कहीं से कुछ मदद पहुंच जाए. लेकिन वो झंडा भी मूक बना रहा. कहीं से कोई मदद नही आई. कहने को तो बागेश्वर जिला मुख्यालय है, पर हालात किसी ऊंघते कस्बे से भी बदतर हैं. रोडवेज की बस खड़ी रही, पल—पल जाम लगता रहा, और तंत्र अपनी आदत के मुताबिक तमाशबीन बना रहा. सुबह सवा चार बजे से लेकर दोपहर बाद तक बस वहीं जड़ बनी रही. न डिपो से कोई अधिकारी आया, न किसी ने यह जानने की ज़हमत उठाई कि आखिर हो क्या रहा है. मीडिया ने इस बारे में रोडवेज के कर्मचारियों से पूछा, तो जवाब मिला कि, ये बस काठगोदाम डिपो की है, उन्हें कुछ नहीं पता. जब यह पूछा गया कि बागेश्वर रोडवेज डिपो का इंचार्ज कौन है, तो वहां मौजूद कर्मचारियों को यह भी नहीं पता था. बस को क्रेन से उठाकर डिपो ले जाने की बात पर सबने चुप्पी साध ली. सवाल यह है कि, यदि एक बस हटाने में पूरा दिन निकल जाए तो आपदा के समय राहत कैसे दी जाएगी..? मॉक ड्रिल में सबकुछ परफेक्ट दिखाने वाले अधिकारी उस वक्त कहाँ गायब हो जाते हैं जब असली परीक्षा सामने होती है..? पता चला कि यह बस नई है और पूरी तरह कंप्यूटराइज्ड सिस्टम पर चलती है. उसे ठीक करने के लिए सॉफ़्टवेयर डायग्नोसिस की ज़रूरत होती है, यानी लैपटॉप से तकनीकी जांच. लेकिन बागेश्वर डिपो में ऐसी कोई सुविधा ही नहीं है. एक ओर सरकार डिजिटल इंडिया और स्मार्ट ट्रांसपोर्ट के दावे करती है, वहीं दूसरी ओर एक डिजिटल बस, डिजिटल सुविधा के अभाव में सड़क पर घंटों पड़ी रहती है. हांलाकि बागेश्वर में कुछेक इंजीनियर हैं जो सायद इसे ठीक कर सकते थे लेकिन उन्होंने भी उनका मेहनतनामा सरकारी तंत्र में फस जाने पर बस को देखने से मना कर दिया. दरअसल, यह मामला सिर्फ एक बस के खराब होने का नहीं, बल्कि उस जड़ हो चुके सिस्टम का आईना है जो कागजों पर फुर्तीला दिखता है लेकिन ज़मीन पर सुस्त, लापरवाह और बेपरवाह है. सब जानते हैं सरकारी मशीनरी तब तक नहीं जागती जब तक किसी बड़े साहब की गाड़ी न फँस जाए. हर साल लाखों रुपये आपदा प्रबंधन, मॉक ड्रिल, और प्रशिक्षण के नाम पर खर्च होते हैं. जनता को भरोसा दिया जाता है कि चिंता न करें, हम तैयार हैं. लेकिन जब असल मौके पर एक बस तक नहीं खिसकाई जा सके, तो यह भरोसा कितना खोखला है, समझना मुश्किल नहीं. अब अगर जिला मुख्यालय में ऐसी स्थिति है, तो पहाड़ के सुदूर गांवों में आपदा आने पर कौन और कैसे मदद करेगा..? होने को तो यह एक मामूली घटना है, पर दरअसल यही घटनाएं बताती हैं कि हम आपदा प्रबंधन में कितने तैयार हैं. वह बस केवल सड़क पर खड़ी एक गाड़ी नहीं, बल्कि उस व्यवस्था का प्रतीक है जो अपने ही बोझ से जकड़ी पड़ी है..



























































