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नैनीताल

उत्तराखंड में चाय की खेती की असीम संभावनायें, 1838 में शुरू हुआ चाय उत्पादन

उत्तराखंड में चाय की खेती की असीम संभावनायें, 1838 में शुरू हुआ चाय उत्पादन
डॉ. गिरीश नेगी, नैनीताल।
उत्तराखंड में चाय की खेती का प्रथम संदर्भ विशप हेबर ने सन् 1824 में अपनी कुमाऊँ यात्रा में दिया है. सरकारी वानस्पतिक उद्यान सहारनपुर के अधीक्षक डॉ. रामले उत्तराखंड में चाय की खेती हो सकने से पूर्णतया सहमत थे. इस आशय की रिपोर्ट 1827 में उन्होंने ईस्ट इंडिया कंपनी को भेजी और जब गवर्नर लॉर्ड विलियम बैंटिक सहारनपुर आये तो उन्हें भी इस क्षेत्र में चाय उद्योग के विकास हेतु सुझाव दिया. बैंटिक ने 1834 में एक कमेटी का गठन किया, जिसका कार्य चाय के पौंधे प्राप्त करना, बागान लगाने योग्य भूमि ढूँढना तथा चीनी चाय विशेषज्ञों की मदद करना था. 1835 में कलकत्ता से 2,000 पौंधों की पहली खेप उत्तराखंड पहुँची, जिससे अल्मोड़ा के पास लक्ष्मेश्वर तथा भीमताल के पास भरतपुर में नर्सरी स्थापित की गई. आगे चलकर हवालबाग, देहरादून तथा अन्य स्थानों पर भी नर्सरी स्थापित की गई. उसी समय यहाँ चाय बनाने की छोटी इकाइयाँ भी स्थापित की गई. 1837-38 में यहाँ के बागानों की चाय उपभोग हेतु तैयार हो गई. कलकत्ता कॉमर्स चौम्बर ने भी यहाँ चाय को बहुत अच्छा बाजार भाव प्राप्त करने वाली बताया. 1880 तक मल्ला कत्यूर (506 एकड़), कौसानी (390 एकड़) तथा देहरादून टी कंपनी (1200) एकड़ जैसे बड़े बागान विकसित हो चुके थे. चौकोड़ी तथा बेरीनाग बागानों का क्षेत्रफल भी करीब 300 एकड़ था. 1940-65 तक बेरीनाग में चाय उत्पादन चरम पर था और मात्र अकेली यह फैक्ट्री 500 से अधिक लोगों को रोजगार मुहैया करा रही थी. इस सबके बावजूद चाय उद्योग उजड़ता ही चला गया. निर्यात की समस्या, यातायात के साधनों की कमी, स्थानीय स्तर पर बाजार की अनुपलब्धता, राजनैतिक परिवर्तन, स्वतंत्रता प्राप्ति के कारण आसानी से रोजगार के अवसर प्राप्त होने से मजदूरों की समस्या खड़ी होना, स्थानीय स्तर पर चाय फैक्ट्री का न होना, तकनीकी शिक्षा का अभाव, परंपरागत कृषि पर बल, भारत में चाय का कम प्रचलन होना (चाय के अधिकांश उपभोक्ता भी अंग्रेज ही थे) एवं तत्कालीन बागान मालिकों द्वारा चाय बागानों की समुचित देखरेख न होने के साथ ही मालिकों द्वारा चाय बागानों का कुप्रबंधन आदि कुछ ऐसे कारण रहे जिनके रहते यह उद्योग लगभग बंदी के कगार पर पहुँच गया. जहाँ 1880 में 10,937 एकड़ क्षेत्रफल में फैले कुल 63 चाय बागान (जिनमें से 27 प्रमुख टी स्टेट्स थीं) थे, 1911 में मात्र 2,102 एकड़ में फैले कुल 20 चाय बागान ही रह गये. उत्पादन भी 1897 में 17,10,000 पौंड से घटकर 1908 में 1,05,000 पौंड रह गया. मशहूर बेरीनाग टी कम्पनी में 1949 तक भी 59,000 पौंड चाय बनती थी जो कि 1975 में मात्र 9,000 पौंड रह गई. अब बेरीनाग टी कंपनी ध्वस्त हो चुकी है एवं चौकोड़ी बागान में चाय के पुराने पौंधों से ही थोड़ी मात्रा में चाय का उत्पादन होता है. उधर आसाम एवं पश्चिम बंगाल में चाय उद्योग विकसित होते गये. शायद वहाँ उत्तराखंड जैसी समस्यायें नहीं रहीं होंगी. अंग्रेजों ने अपना ध्यान उसी क्षेत्र में लगाया और इस उद्योग का उत्तरोतर विकास होता ही चला गया. कलकत्ता में चाय का अन्तर्राष्ट्रीय बाजार होना भी एक निर्णायक कारण रहा होगा. हाल के वर्षों में उ.प्र. और अब उत्तराखंड सरकार ने पुनः इस दिशा में सोचा. वर्ष 1993 से कुमाऊँ मंडल विकास निगम एवं गढ़वाल मंडल विकास निगम को संभावित क्षेत्रों में चाय बागानों के विकास का दायित्य सौंपा गया. अब तक दोनों मंडलों में 246 हैक्टे. से अधिक भूमि में चाय बागान विकसित किये जा चुके हैं तथा चयनित क्षेत्रों में चाय पौंधों का रोपण कार्य जारी है. नैनीताल, चम्पावत, अल्मोड़ा, बागेश्वर, पिथौरागढ़, चमोली, रुद्रप्रयाग, टिहरी, उत्तरकाशी एवं देहरादून आदि जिलों में चाय बागानों के विकास हेतु 6650 हैक्टे. भूमि का चयन किया गया. उपलब्ध जानकारी एवं हमारे सर्वेक्षण से ज्ञात हुआ कि कुमाऊँ मंडल के अंतर्गत वर्ष 1995 से मार्च 2003 तक 181.77 है. भूमि पर चाय बागान विकसित किये जा चुके हैं. उक्त चाय बागानों के विकास हेतु लगभग 50 से अधिक ग्रामों के 150 से अधिक काश्तकारों एवं पाँच वन पंचायतों से भूमि लीज पर ली गई है. उक्त विकसित बागानों से वर्ष 2001-2002 तक कुल 1921.89 कु. हरी पत्ती का उत्पादन किया गया. करीब 150 से अधिक काश्तकार एवं 5 वन पंचायतें सीधे तौर पर उक्त परियोजना से लाभान्वित हुए. जनपद चमोली में वर्ष 1996 से 2003 तक 92 है. भूमि चाय बागानों के विकास हेतु अधिग्रहीत की गई. वर्ष 2003 तक 64 है. भूमि में चाय बागान विकसित किये जा चुके हैं. उक्त भूमि का 50 प्रतिशत से अधिक भाग वन पंचायतों एवं उत्तराखंड सरकार की भूमि है. चमोली जनपद के 12 विभिन्न स्थानों पर 214 छोटे-बड़े काश्तकारों एवं 12 वन पंचायतों तथा उत्तराखंड सरकार की भूमि अधिग्रहित की गई है. मई 2003 तक विकसित इन बागानों से कुल 94.72 कु. चाय की हरी पत्ती उत्पादित की गई. इन आंकड़ों से प्रतीत होता है कि यदि यह परियोजना जन भागीदारी के साथ आगे बढ़ी तो इसके अच्छे परिणाम होंगे. रोजगार सृजन के साथ यह भूमि कटाव की रोकथाम में भी सहायक सिद्ध होगी. काफल ट्री से साभार
प्रदेश के नौ जनपदों (अल्मोड़ा, नैनीताल, बागेश्वर, चंपावत, पिथौरागढ़, चमोली, रुदप्रयाग, पौड़ी, टिहरी) में वर्ष 2022 तक कुल 1423 हेक्टेयर क्षेत्रफल में चाय का उत्पादन किया जा रहा है। चाय विकास बोर्ड के तहत स्थापित चाय प्रसंस्करण इकाइयों के माध्यम से लगभग 90 हजार किग्रा प्रसंस्कृत चाय का उत्पादन किया जा रहा है। डा. एचएस बवेजा, उद्यान निदेशक उत्तराखंड। 

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